पुनर्नवा

पुनर्नवा

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"नहीं-नहीं मैं नहीं भूल पाऊँगी गौरव को", लगभग चीखते हुए पंखुड़ी बरस पड़ी रोहन पर।

"देखो रोहन, तुम मेरे अच्छे दोस्त जरूर हो, लेकिन मैं तुमसे क्या किसी से भी पुनर्विवाह की बात सोच भी नही सकती। गौरव मेरा पहला और आखिरी प्यार था, मैं उसकी यादों के सहारे जी लूँगी। प्लीज,आइंदा से तुम ऐसा सोचना भी मत।

"देखो पंखुड़ी, तुम समझने की कोशिश करो। मैं तुम पर दया नही कर रहा बल्कि मैं तुमसे बहुत दिनों से प्यार करता हूँ। मैं तुमसे इज़हार करता, इससे पहले ही मुझे गौरव से पता चल गया कि तुम उसकी मंगेतर हो और मैं तुम दोनों की जिंदगी से दूर होने के लिए ही अपनी आगे की पढ़ाई के लिए विदेश चला गया, इसलिए तुम्हारी शादी में भी शामिल नही हो सका।

"नहीं रोहन, गौरव माता-पिता की इकलौती संतान थे। मैं उन्हें अकेला कैसे छोड़ सकती हूँ ?

"चिंता न करो बेटा, मैंने तुम्हें अपनी बहू नहीं बेटी माना है और बेटी को तो विदा करना पड़ता है न। मैं फौजी रहा हूँ, मेरा दिल कमजोर नहीं। मेरा बेटा देश के लिए शहीद होकर अमर हो गया मगर बेटी तो है मेरे पास। अचानक श्वसुर की आवाज सुनकर पंखुड़ी चौंक पड़ी और उनसे लिपटकर रोने लगी।

श्वसुर अपनी छत्रछाया में पंखुड़ी को सांत्वना तो दे रहे थे किंतु आज के युग मे भी आधुनिकता के चोले में लिपटी पुरातनपंथी सोच से कुछ चिंतित भी थे।

नहीं रोहन, "मैं एक विधवा स्त्री को अपने घर की बहू नही बना सकती। आधुनिक विचारों का समर्थन करने वाली अपनी माँ के मुँह से ऐसी बातें सुन रोहन ने बिफरते हुए कहा, "मगर क्यों माँ ? मैं पंखुड़ी से प्यार करता हूँ। उसके उदास जीवन में खुशियों के रंग भरना चाहता हूँ।

जिंदगी की तपिश से झुलसी पंखुड़ी के जीवन मे प्रेम की फुहार लेकर पुनर्नवा की तरह उसे हरा-भरा देखना चाहता हूँ। पंखुड़ी की जगह क्या आपकी बेटी होती तो भी आपके यही विचार होते ?

संध्या को तो लगा जैसे किसी ने उसके दुःखते रगों पर हाथ रख दिया हो। बेटी तो नहीं थी मगर अपनी जवान विधवा भाभी को तिल-तिल कर मरते देखा था। किसी पुरुष से हँस-बोल क्या लिया कि मोहल्ले में काना-फूसी शुरू हो जाती, नादान संध्या के सामने भी तरह-तरह की बातें लोग बनाते रहते थे, बिचारी भाभी जमाने के आगे खुद के लिए तो जीना भी भूल गई थी। ओह ! पंखुड़ी के साथ ऐसा नही होना चाहिए। संध्या मन-मन ऐसा सोच निकल पड़ी पंखुड़ी के घर की ओर। एक ही मोहल्ले में रहने के कारण घर की दूरी ज्यादा तो नहीं थी किन्तु आज संध्या के हृदय में पंखुड़ी के लिए जो वात्सल्य की त्रिवेणी बह निकली इस कारण मन की दूरी भी मिट चुकी थी।


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