पत्र जो लिखा गया
पत्र जो लिखा गया
माँ ! माँ ! देखो कितनी सुंदर डिबिया। बेटी की आवाज सुन मैं दौड़कर कमरे में आई। देखा आलमारी के कपड़े बाहर गिरे थे और गीतू छोटी सी डिबिया को खोलने की कोशिश कर रही थी।
उसके हाथ की डिबिया देख मैं सुन्न हो गई। ये तुम्हे कहाँ से मिली ? माँ ,यहीं सबसे नीचे अलमारी में। मैं ले लूँ ? अपनी गुड़िया के गहने डालूँगी। नहीं ,मैने जल्दी से मना किया और उसके हाथ से डिबिया ले ली। जाओ जाकर पढ़ाई करो और हाँ ! ऐसे आलमारी नहीं छेड़ते।
गीतू मायूस होकर वहाँ से चली गई। शायद गीतू को मैने पहली बार डाँटा था। खैर ,वहीं बैठ अलमारी में कपड़े टिका मैने डिबिया हाथ में ले बैठ गई।
शादी के बाद आज पहली बार ये मेरे हाथ आई। दिल की धड़कन बढ़ गई।आज इतने दिनों बाद उसे खोलने को मन हुआ। शादी के समय भी बड़े सम्भल कर ये अपने साथ ले आई थी।अलमारी में सबसे नीचे कपड़ो के नीचे बिछे पैपर के नीचे दबा कर मानो भूल ही गई थी। सुलझे हुए पति और प्यारे बच्चों के बीच इस डिबिया की कभी याद नहीं आई।
डिबिया खोली तो उसमें कई तहों में मुड़ा कागज़। कागज खोला और एक ही झटके में उसे पढ़ गई। बिना सम्बोधन के लिखा गया प्रेम पत्र। मन में कालेज की वो शाम सामने घूम गई जब हम तीनों सहेलियाँ 'प्रेम रोग 'पिक्चर देखकर आईं थीं।तीनों ने शर्त लगाई कि तीनो एक- एक प्रेम पत्र लिखेंगी, फिल्मी कहानी की तरह।जिसका सबसे प्यारा होगा उसे दूसरे पार्टी देंगीं। उस रात मैने बिना सम्बोधन के लिखा ये पत्र। असलियत से कौसों दूर युवा मन की इतनी सुंदर कल्पनाएँ। अगले दिन पता चला उन दोनों ने मेरा बुद्धू बनाया और पत्र को पढ़ मुझे चिढ़ाया। शुक्र है भगवान का जो बात खुली नहीं वरना किसी को मुँह न दिखा पाती।जो भी हो मैं उस पत्र को फाड़ नहीं पाई। पत्र लिखा पर डाला कहीं नहीं। जिसके लिए लिखा वो तो सपनों का राजकुमार था। हकीकत में सपने सच नहीं होते।
माँ !माँ ! बिटिया की आवाज सुन फिर से पत्र डिबिया में डाल छुपा लिया और रख दिया वहीं नीचे जहाँ कोई देख न सके।
अपनी बचकानी हरकत पर हँसी भी आई पर पता नहीं क्यों...उस पत्र को अपने से अलग नहीं कर पाई।