परीक्षा
परीक्षा
परीक्षा शब्द सुनते ही मन घबराने सा लगता है। याद आ जाते हैं वो दिन जब मैं स्टूडेंट हुआ करती थी। टाइम टेबल आते ही सारे भगवानों के नाम सुमरने लगते थे हम सब। पढ़ने का समय और गति डर के मारे स्वतः बढ़ जाते थे। मन बेचैन और अनजान डर से आहत रहता था। पहले पेपर वाले दिन तो कॉपी मैं पैन चलाना किसी जंग से कम न था। परिवार वालों की उम्मीदें, अपना आत्मसम्मान सभी दाँव पर लग जाता था।
परीक्षा से पहले बाबूजी का नब्बे प्रतिशत अंक लाने का आशीर्वाद भी मानों किसी बड़े पत्थर से उपजे बोझ जैसा लगता था। माँ का रात रातभर जागकर चाय बनाना, भाई, बहनों का टेलीविजन देखना बन्द कर देना मन को अपराध बोध से भर जाता था। कक्षा मैं अव्वल आने की जिम्मेदारी का बोझ ढोते ढोते कई बार हौसला ही टूटने लगता था।
कितनी यादें समाई हैं मन मैं, आज जब अपने बच्चों को उस परिस्थिति मैं देखती हूँ तो उनकी अनकही पीड़ा को स्वतः ही समझ जाती हूँ। पर मैं माँ हूँ, उनके उज्ज्वल भविष्य के लिए थोड़ी सख्ती भी आवश्यक मानती हूँ।
आज यूँ लगता है कि मेरी परीक्षा कभी खत्म ही नहीं होगी
पहले मैं खुद परीक्षा देती थी pr आज बच्चों की परीक्षा भली भांति निपट जावें और परिणाम सुखद हो इसी को ध्यान रख उनके साथ दिन रात लगी रहती हूँ।
मन मैं अचानक सवाल उठा, "ये तेरी परीक्षा है या बच्चों की ?" मैं मुस्कुरा उठी। परीक्षा का दवाब जब मैं ही नहीं झेल पा रही हूँ तो फिर नन्हीं नन्हीं जानों पर क्यों परीक्षा का अनावश्यक दवाब बना दिया गया है, उफ़ ये परीक्षा.....।