फिक्र। (कहानी)
फिक्र। (कहानी)


सुबह अखबार उठाओ या टी .वी. पर समाचार देखो। चारों ओर सिर्फ कोरोना का शोर है। सरिता को भी शहर से दूर रहने वाली अपनी बिटिया की बहुत फिक्र हो रही है। उसने अभी फोन पर उससे बात की। सकुशल है वो लेकिन मन मैं अनेक चिंताएँ उठती रहती हैं।
घर के कामों को उसके हाथ मशीन की भाँति जल्दी जल्दी निपटा रहे हैं पर उसका मन अपनी बिटिया तारा मैं ही अटका है। पति और बेटा दोनों ही कोरोना की वजह से आई छुट्टियों के कारण घर पर ही हैं।
मोदी जी ने लॉक डाउन होने का संदेश जब से दिया है लोग उसका पालन सख्ती से कर रहें हैं। सभी अपने घरों मैं बन्द हैं। लोग अपने घर जाने और परिजनों से मिलने के लिए बेताब हैं।
सरिता ने तारा को बैंगलोर मैं ही रहने के लिए कहा। ताकि वह सुरक्षित रहे। यातायात के साधन बन्द कर दिए गए हैं। सड़कों पर चलने वाले वाहनों का चालान किया जा रहा है। कर्फ्यू के हालात हैं। लोगों की जान बचाने के लिए धारा144 लगाई गई है।
सरिता अपने ही विचारों की कशमकश मैं उलझ रही थी कि तभी उसकी नज़र सामने झुग्गी डाल कर रहने वाले परिवार पर जा अटकी।
उस परिवार मैं पाँच सदस्य हैं।
दोनों मियाँ बीवी दिहाडी मजदूर हैं उनके तीन बच्चे हैं। दो बेटी और एक बेटा। उनकी उम्र तीन से नौ साल के बीच की है। आज लॉक डाउन हुए चार दिन हो गए हैं। पूरा परिवार पेट भरने की फिक्र मैं इस कोरोना की जंग मैं पिस रहा है।
उनके बच्चों के उतरे चेहरे और आँखों से बहते आँसुओं ने सरिता को झकझोर दिया। ये कैसी मजबूरी है उन माता पिता कीकि वे अपने बच्चों के लिए दो वक्त का खाना भी नहीं जुटा पा रहे।
मैंने खाने का डिब्बा पैक किया और उनके घर की ओर लम्बे लम्बे डग भर कर चल दी। जैसे ही मैंने खाना उनकी ओर बढ़ाया वे बिना विलम्ब के खाने पर टूट पड़े।
सरिता की आँख की कोर गीली हो गई।
"बहुत भूख लगी है"सरिता ने पूछा।
मजदूर ने हाथ जोड़ते हुए कातर स्वर मैं कहाहाँ मैडम जी, बच्चे चार दिन से भूखे हैं। मैं गरीब काम करूंगा तो खिला पाऊंगा। पर। वह रूआंसा होकर बोला।
बच्चों को और स्वयं को कोरोना से बचाओ भैया,मास्क लगाओ, हाथों को स्वच्छ रखो।
हा हा हा, आहमजदूर ने लम्बी आह भरी।
मैडम जी, कोरोना से तो पता नहीं हम बचेंगे या मरेंगे।
पर भुखमरी जरूर हम सबकी जान ले लेगी।
अभी एक महीना मुझे और मेरी बीवी को कोई काम नहीं देगा।
उसकी सिसकियाँ बँध आईंमेरे बच्चों का क्या होगा।
मैं अकेला नहीं हूँ ऐसा,और भी बहुत लोग हैं।
तभी घड़ी पर ध्यान गया तीन बज गए थे। मैने घर लौट कर महिला मंडल की आपात बैठक बुलाई। जिसमें सर्वसम्मति से दिहाड़ी मजदूरों को खाना पानी उपलब्ध करवाने का सभी ने दृढ़ संकल्प लिया। अब चेहरे पर सन्तुष्टि का भाव था।
मीटिंग के बाद सरिता सोच रही थी कि कितनी सच्ची थी उनकी फिक्र, उन्हें महामारी से क्या लेना। उनके लिये तो भूख ही सबसे बड़ा रोग है। और पेट भरने की जुगत सबसे बडी फिक्र।