प्रेमसेतु

प्रेमसेतु

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माँ जी का दायाँ पैर फ्रैक्चर होने के बाद प्लास्टर हुए बीस दिन भी न हुए थे। करुणा तो घटना के दिन से ही पूरे घर को सर पर उठा रखी थी।

फोन आया कि आज ही उसकी माँ की भी सीढ़ियों से गिरने के कारण दोनों पैर फ्रैक्चर हो गए हैं। नयन कलशों से छलकने को आतुर क्षीर सागर के साथ सास को चाय देने जैसे ही आई, 

"किसका फोन था बहु।"

"जी माँ का फोन था। वो...."

दुलारी ने बीच में ही बात काटते हुए कहा-

"लगा तो फोन मुझे भी बात करनी है। बहुत दिन हो गए समधन से बात किए।"

"हेलो! भाई साहब प्रणाम! ज़रा बहन जी को दीजिए न।"

"जी प्रणाम। वे सीढ़ियां चढ़ते गिर गई थीं। हल्की चोट है। हम लोग हॉस्पिटल में हैं। घबराने की जरूरत नहीं है। बाद में फोन करते हैं।"

फोन डिस्कनेक्ट होते ही-

"बहु तुमने कहा क्यों नहीं कि तुम्हारी माँ को...।"

"आपने कहने का मौका ही कहाँ दिया माँ जी!"

"अच्छा। ठीक है, ठीक है। अभिनव गाड़ी निकालिये बेटा! हमसब अभी के अभी चलेंगे मिलने।"

कार से उतर दुलारी बैसाखी के सहारे बेटे बहु के साथ वार्ड में जैसे ही पहुँची। दोनों पैरों में प्लास्टर लगे बेड पर पड़े समधन जी को देख रोने लगी। सभी का रो रो बुरा हाल था।

घन्टो बाद चलते वक्त दुलारी ने कहा-

"बहु तू माँ के पास रह। यहाँ से देखभाल करते हुए मायके चली जाना। जबतक ठीक नहीं हो जाती वहीं रहना। मैं अब कुछ ठीक भी हूँ। हम चलते हैं।"

"क्या कह रही हैं बहन। बहु है न मेरा ख्याल रखने के लिए। और सुन बिटिया, तू अपने घर जा। तू है एक ही और तुझे समधन जी की बेटी और बहु दोनों का फर्ज़ अदा करना है।"

 जब दोनों समधन अपने अपने ज़िद पर अड़े रहे तभी- 

"जी माँ! मैं ससुराल ही जाऊँगी।"

कह माँ के पाँव छूते फफक पड़ी। वह मन ही मन सोचने लगी काश! उसके भी ननद व देवर होते। खैर हैं तो इकलौते। ज्यादा सोचने से क्या फायदा? और दो माँओं के प्यार के बीच उसे तो हर बार की तरह इस बार भी प्रेमसेतु बनना ही था।

  


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