प्रेमियों की श्रेणियाँ।

प्रेमियों की श्रेणियाँ।

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जाल परैं बहिजात्त जलं तजि मीनन कौ मोहु 1 रहिमन मछरी नीर कौ, तऊ न छांड़ति छोहु।

 मछलीमार नदी में जाल डालकर जब मछलियों को उसमें फँसा लेता है, तो मछलियों पर, उस समय भीषण प्राण संकट उपस्थित होता है। मछली जिस पानी से अत्यधिक प्रेम करती है और जिसके बिना बेचैन हो जाती है, उसका वही प्रेमास्पद जल उसकी इस दयनीय अवस्था और संकट पर कृछ भी सहानभनि व्यक्त न करता हुआ बेपरवाही के साथ आगे बढकर चला जाता है क्रिन्तु मछली फिर भी अपने प्रेमास्पद जल की इस उपेक्षा वृत्ति और निष्ठुरता पर दृष्टिपात न कर जल के साथ वैसा ही. प्रेम स्थिर रखती है, और उससे अलग होते ही प्राण त्याग देती है। 

 सच्चा प्रेम एकांगी होता है '। प्रेमी यह नहीं देखता कि मैं जिससे प्रेम करता हूँ वह भी मुझसे प्रेम करता है या नहीं। बदले कीभावना तो वास्तव में व्यापार मात्र है, वह प्रेम नहीं है। 

 'प्रेम के तारतम्यानुसार यों तो प्रेमियों के अनेक भेद हैं, किन्तु मुख्यतया वह पांच ५ प्रकार के होते हैं जो प्रथम अधम या कनिष्ठ, द्वतीय मध्यम, तृतीय उच्च, चतुर्थ उच्चतम और पाँचवें विचित्र कोटि के कहे जाते हैं। जो प्रेमी अपने स्वार्थवश प्रेम करते हैं और स्वार्थ के पूरा होने पर अथवा स्वार्थ न सधने पर 'प्रेम पात्र से सम्बन्ध विच्छेद कर देते हैं, और जरूरत होने पर अन्य से अपना सम्बन्ध जोड़ लेते हैं यह अधम कोटि के प्रेमी है इनको ' भ्रमर सज्ञक प्रेमी कहा जाता है। कहा है।

 ' धनि रहीम गति मीन की जल बिछुरत जिय जाय। जियत कंज तजि अनत बसि कहा भौर को भाय। 

अर्थात् प्रेम तो वास्तव में मछली का ही प्रशंसनीय है जो अपने प्रेम पात्र जल से अलग होने ही प्राण त्याग देती है, किन्तु भौंरे का क्या प्रेम है' जो कमल पुष्प से प्यार तो करता है, लेकिन उसके पराग ,का रस चूस लेने पर रस रहित उस पुष्प को छोडकर अन्य कमल पुष्प पर जा बैठता है। यह कृत्य उसका कितना निन्दनीय है। ऐसे प्रेमी संसार में यत्र-तत्र देखने में`आते है। ऐसों के लिये कहा है। 

सुख में सङ्ग मिति सुख करै,दुख में पाछौ होय निज स्वार्थ की मित्रता, अधम कहावै सोय।

 दूसरी कोटि के प्रेमी मध्यम वर्गीय होते हैं, यह जिससे प्रेम सम्बन्ध स्थापित करते है उसी के होके रहते है। चाहे प्रेम पात्र उनके साथ सहानुभूति बरते अथवा -कठोरता का व्यवहार करे। किन्तु प्रेमपात्र के कठोर व्यवहार और उपेक्षा से दुखी होकर प्रेम पात्र कौ उलाहना देने अथवा उससे दया की भीख मांगने पर उतर आते है और प्रेम की गरिमा औरु गौरव को किंचित हत्का कर देते हें। ऐसा प्रेमी प्रेमपात्र को और संकेत करके कहता है। 

नहीं कुछ सम हमैं इसका कि यह गम नहीं होता। मगर गम है कि उनको ऐतबार-ए गम नहीं होता 1।

 ' इसी प्रकार एक गोपी कृष्ण को सम्बोधन करती हुई कहती है। 

ओ बेपीर अहीर ' के तनिक पीर पहिचानि। तेरे दर्शन कारणे मैंने छोडी कुल की कानि 1

 हालांकि प्रेमी यह अनुभव करता है कि मेरे इस कृत्य से मेरे प्रेम पटल पर दाग आता है, और प्रेम का अनादर होता है, किन्तु कठिनाइयों के सहने की सामर्थ्य न होने पर वह ऐसा करने को बाध्य होता है। वह खुद भी कहता है किं

 इश्क की तजलील तौहीन-ए वफा करता हूँ मैं। फर्त ए ग़म से आज घबरा कर दुआ करता हूँ मैं।।

 तीसरी कोटि के प्रेमी दो प्रकार के होते हैं, एक चातक धर्मी अन्य मीन प्रकृति के। चातक धर्मी प्रेमी अपने प्रेम पात्र . के व्यवहार को चाहे वह अनुकूल हो अथवा प्रतिकूल सब्र से बर्दाश्त करते हैं और अपने प्रेमांचल पर धब्बा नहीं आने देते। तथा प्रेम पात्र के कठोर.व्यवहार करने पर भी न उससे दया का प्रस्ताव करते हैं, न अन्य की ओर आँख उठाकर देखते हैं कहा है 1 ' 

 उपल वरषि गरजति तरजि डारत कुलिश कठोर। " चितवन चातक जलद तजि कबहुँ आन की ओर 1।

 वह स्वयं अपने को संबोधन करके कहते हैं 

' जखम पै जखम खाये जा' यार से लौ लगाए जा। आह न कर लबों को सी इश्क है दिल्लगी नहीं।।

 जिस प्रकार चातक अपने प्रेम पात्र बादल के . स्वांति जल के अतिरिक्त किसी और जल की चाह नहीं रखता उसी प्रकार यह भी अपने प्रेम-पात्र के सिवाय और किसी के आगे सर नीचा नहीं करते। 

तुलसी तीनों लोक में चातक ही कौ माथ। सुनियत जासु न दीनता, किए दूसरे नाथ1। 

दसरे मीन प्रकृति के प्रेमी अपने प्रेमास्पद ' का शिकव शिकायत तो करते ही क्या है ,

अपितु उसके निष्ठुर और उपेक्षा पूर्ण व्यवहार के बावजूद उसका वियोग सहन नहीं करते और अपने प्राण उत्सर्ग कर प्रेम का निर्वाह करते हैं आख्यान है कि एक बरगद के वृक्ष के कोटर में दो पक्षी रहते थे उसी कोटर में उनका जन्म हुआ वहीं परवरिश पाई और बड़े होकर भी वहीं पर रहने लगे, उसी वृक्ष के फल खाते एवं अन्यत्र भी चुंग कर उसी बरगद की डालों पत्तों पर फुदकते इस तरह बड़े आनन्द के साथ उनकी जीवन यात्रा चल रही थी अकस्मात ही बरगद का पेड़ सूख गया और उस सूखे वृक्ष में किसी ने आग लगा दी पेड़ जलने लगा अग्नि की लपटें आसमान को छूने लगीं और उस कोटर के भी समीप पहुंच गई लेकिन वह दोनों पक्षी उसी में बैठे ये। और आग से बचने का कुछ भी उपाय नहीं कर रहे थे। एक व्यक्त ने उनकी इस ब्रेफिक्रो पर कौतूहलवश पूछा।

 " आग लगी बट वृक्ष में पजरें धरनि अकास। तुम पक्षी क्यो न उड़ो पंख तुम्हारे पास

 यह सुनकर . पक्षियों ने उत्तर में कहा श्रीमान जी जैसा कह रहे हैं यथार्थता तो यही है इसमें अन्यथा कुछ नहीं किन्तु। 

 खाए जाके फुल फल गन्दे कीन्हें पात घर्म हमारो है यही जरै इसी के साथ।।

 ' बस यह कहकर दोनों ने अपने शरीर अग्नि को समार्पित कर दिये। 

 दूसरी सत्य घटना अमीर खुशरो की है यह सूफी सन्त शाह निजामुद्दीन औलिया ' जिनका आश्रम दिरुली में था के शिष्य थे यह वड़े मालदार व्यक्त थे और दूसरे देशों के साथ व्यापार का काम करते थे। एक बार यह अफगानिस्तान की तरफ़ से लौटते हुए अपने गुरु महाराज के दर्शनों के लिये दिल्ली स्थित खानकाह ( आश्रम ) में पधारे अन्य गुरु भाइयों. से मालूम हुआ कि गुरु महाराज कुछ दिन हुए शरीर त्याग गए हैं। ज्यों ही यह शब्द कान में पड़े तड़प गये, बेचैन हो गये पूछा, किस स्थान पर उन्हें दफना दिया गया है। पता करके सीधे मजार पर पहुंचे। बड़े अदब के साथ मजार का तवाफ़ ( परिक्रमा ) किया और दोजानू होकर बैठ गये। दोनों हाथ उठाकर यह दोहा पढा। 

 गोरी सोवै सेज पै मूख पै डारै केश चल खुशरो घर आपने रैन भई चहुं देश।।

 बस प्राण त्याग दिये। आपको भी गुरु की समाधि के समीप समाधि दी गई। ऐसे प्रेमी उच्चकोटि के प्रेमी कहे जाते हें। . इनके सिवाय चौथी प्रकार के प्रेमी और हैं जो इन सबसे ऊँचे होते हैं। इनका प्रेम शरीर मन, बुद्धि का प्रेम न रहकर अन्तरात्मा का प्रेम हो जाता हैं। और वह अपनी आत्मा को प्रेम पात्र में अर्पण कर संकुचित जीवन के बजाय विस्तृत जीवन लाभ करते हैं। अत प्रेम की पराकाष्ठा आत्मविस्मरण अर्थात् अपने पृथक स्वार्थ और सत्ता को नष्ट करा यानि भूला कर सर्वदा अपने प्रियतम की भावना और सेवा में प्रयुक्त रहते हैं। और अन्तिम परिणाम यह होता है कि प्रेमी और प्रेम पात्र दोनों एक सूत्रों में बँधे होने के कारण दो का भेद मिटकर अन्तर से आत्म क्षेत्र में एकता हो जाती है। जिसके कारण प्रेम पात्र के आनन्द से ही प्रेमी को साक्षात् रूस में आनन्द का अनुभव हुआ. करता है। चाहे स्थूल शरीर से वह एक दुसरे से कितने ही अलग अथवा दूर रहें। इसका उज्वलतम उदाहरण वृज की गोपिकाएँ है । जब उद्धव गोपी सम्बाद समाप्त हुआ और उद्धव ने निगुर्ण ज्ञान मार्ग की अपेक्षा प्रेम योग की श्रेष्ठता स्वीकार करके भगवान कृष्ण के पास वापिस जाने की तैयारी की तो उन्होंने पूछा कि आप मुझे यह बताने की कृपा करें कि मैं किन शब्दों में आपका समाचार उनके समक्ष निवेदन करु , गोपियाँ उद्धव की बात सुनकर बोली। 

ऊधौदेखि चलै सों कहियो। हम दुखिया दुख ही में राजी वे हरि नीके रहियो ऊधौ

 अर्थात्…हमारा अपना न कुछ सुख है न कुछ दुख हम उसी स्थिति में खुश हैं जिसमें वह प्रसन्न हें 'बल्कि-

जहाँ जहां जायं राज करें तहां तहां तेहिं कोटि शिर भार। ' सूरदास आशास हमारी न्हात. खसै नहिं बार।। 

" मतलब यह कि जहाँ अपनी पृथक सत्ता हो नहीं तो दुख और सुख का भान कैसे हो उपरोक्त कथिक प्रेमियों के अतिरिक्त पांचवीं प्रकार के प्रेमी और होते हैं, इनकी गणना किसी कोटि मे न कर इनको विचित्र प्रकार का कहा जा सकता है। ऐसे प्रेमियों का अनुराग प्रेम पात्र के प्रति इतना प्रबल और बगवान हो जाता कि प्रेम पात्र से जरा भी अन्तर उनसे सहन नहीं होता। नदी जैसे समुद्र का और घावमान हाती है, उसी प्रकार यह प्रेमपात्र में अपने कोअर्पण करने को व्यग्र और बेताब हो जाते है। यह अर्पण पतङ्ग भाव के समान है। जैसे पतङ्ग दीपक को ज्याति से आकर्षित होकरअपने को अर्पण कर र्दता है, और जलने पर भी मुँह नहीं मोड़ता और प्रथक रहना ही नहीं चाहता वैसी हो अवस्था इस भाव में होती है। वह प्रेम पात्र के सन्मुख होते हुए भी "मैं" और "तू" अर्थात् द्वैत को बर्दाश्त नहीं करता और अर्पण में शरीर का व्यवधान और आवरण सहन नहीं करता। जिस प्रकार अन्य प्रेमियों की दशा और' भावनाओं का वर्णन किया जाता ह वैसे इनकी भावनाओं का वर्णन नहीं हो सकता। 

उसकी तस्वीर किसी… तरह नहीं खिच सकती शमा के साथ तअल्लुक है जो परवाने का 

क्योंकि 

जज्ब-ए शोक ने दम लेने का मौका न दिया।

शमा मुँह देखती ही रह गई परवाने का।

 अर्थात्-प्रेम पात्र (शंमा) दीपक ही न जान पाया कि उसकी क्या इक्षा है क्योंकि पूछो अवसर ही नहीं दिया इससे पेश्तर ही उसने अपने को भस्म कर दिया। इस प्रकार वहाँ "मैं " औरै "तू" अर्थात् प्रेमी ओंर प्रेमपात्र दो का अस्तित्त्व नहीं रहता। क्या रहता है कहा नहीं जा सकता। जो है सो है इस बात को प्रेमी भक्त मीराबाई ने उस समय चरितार्थ कर दिया जब उनकी प्रेम वेदना अधिक बढी तो द्वारिका जी के भगवान रणछोड़ जी की प्रतिमा में सशरीर प्रवेश कर अपनी जीवन लीला समाप्त कर दी। सारांश यह कि सच्चे और शुद्ध प्रेम का स्वभाव और स्वरूप हो यह है कि जो कुछ उत्तम, पवित्र और सुन्दर वस्तु प्रेमी के पास हो अथवा उसे प्राप्त हो उसको स्वयं उपभोग न करके अपने प्रियतम को समर्थित कर दे। और ऐसी सामग्री का कष्ट से भी संग्रह करे जो उसके प्राण प्रिय को अभीष्ट ( पसन्द ) हो। और फिर उसे शुद्ध और उत्तम बना कर उसे सादर भेंट करे। मतलब यह कि ऐसा कार्य करें जिससे प्रेमपात्र की तुष्टि हो। यहाँ तक कि सदैव शरीर, मन, वचन और बुद्धि द्वारा प्रियतम की सेवा में ही संलग्न रहे और उसके बदले में कुछ न चाहे। एवं उसकी प्रसन्नता में ही प्रसन्न रहे। किंतु यह प्रेम तब उदय होता है जब। 

संत वैद्य सेवन करै, कड़वी औषधि खाय। भोग रोग राखे नहीं, तबहिं प्रेम प्रकटाय।

लेकिन प्रेम के केवल प्रकट होने पर ही सन्तोष न कर ले, बल्कि फिर उसे अधिक अधिक बढाने का प्रयत्न और प्रयास करता रहे। और वह तरीका यह है कि प्रीतम छवि आहुति हिये ज्यों ज्यो लागत जांत। ' प्रेम अनल त्यों त्यों " अतिहि अधिकाधिक सुलगात।

 बस यही जीव वा भक्त अथवा शिष्य को करणीय है। और यही उसके जीवन चरम और परम सार्थकता है। ओ३म् शम्। 


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