प्रायश्चित
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रोजाना की तरह आज भी जब उसने बगीचे का रूख किया और आम के पेड़ की और निहारा तो पेड़ की दो-तीन डालियों पर पत्तों के बीच उसे आम्र मंजरी दिखाई दी, हालांकि उस पेड़ की आयु तकरीबन पाँच वर्ष ही हुई होगी और उसका आकार ज्यादा विशाल भी नहीं हो पाया था और वैसा होने में वर्षों लग जाने थे जैसा कभी वर्षों पूर्व उसी स्थान पर खड़े वृक्ष का था। दो-तीन डालियों को बौराते देख उसकी प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा। आज तो उसे लगा कि वह स्वयं ही बौरा गया है। उसने चहकते हुए अपनी पत्नी कल्पना को आवाज़ लगाई और उसे बगीचे में बुला कर आम्र मंजरी दिखाते हुए कहा-"देखो कल्पना, बाबूजी के दिनों का बसंत आज हमारे घर में फिर लौट आया है।"
वह उसकी तरफ प्रश्नवाचक चिन्ह लगाए देख रही थी और वह सोच रहा था कि क्या वास्तव में बाबूजी का बसंत लौटकर आया है! तब तो शायद हम सभी घरवालों को बाबूजी का बसंत भाता भी नहीं था। माँ-बाबूजी ही घर के बगीचे की उस हरियाली से खुश रहते थे लेकिन सबसे ज्यादा तकलीफ़ उसे ही होती थी क्योंकि बड़ा होने के नाते साफ-सफाई की जिम्मेदारी उसे ही निभाना पड़ती थी।
भोर होने के पहले ही पक्षियों का कलरव उसे शोर लगता था जो उसे बहुत विचलित कर देता था। वह सोच रहा था कि तब आम के पेड़ पर कोयल ने स्थायी बसेरा बना रखा था। उन दिनों घर की छत पर काग भी आ बैठते थे और जिस दिन वहाँ बैठकर वे काँव-काँव करने लगते तो उसकी माँ झट बोल पड़ती कि आज तो कोई मेहमान आने वाला है। घर की छत पर कव्वे की काँव-काँव अतिथि के आगमन की सूचना होती थी और फिर माँ की बात गलत भी तो साबित नहीं होती थी। कभी मामा तो कभी चाचा का परिवार, कभी चचेरे तो कभी ममेरे और थोड़ी बहुत कसर रह जाती तो गाँव खेड़े के राखी-तागे वाले या मुँहबोले रिश्तेदार। माँ-बाबूजी के चेहरे पर कभी शिकन नहीं देखी घर में सतत बनी रहने वाली भीड़-भाड़ से...वह भी उस स्थिति में जब टेलीफोन या मोबाइल की सुविधा जनसुलभ नहीं थी... और यही हालत आवागमन के साधनों की थी। चिट्ठी-पत्री का चलन जरूर था लेकिन चिट्ठी पहुँचने से पहले ही मेहमान आ धमकते। अब तो लोगों के चेहरे देखे को बरसों हो जाते हैं ,फोन पर ही दुआ-सलाम और खैरियत जानकर रिश्ते निभ जाते हैं।
हाँ तो बात हो रही थी उसके बगीचे की। उन दिनों उनके मकान में आम का बहुत बड़ा दरख्त हुआ करता था। मोहल्ले भर के लोग आम पकने के पहले ही उसकी केरियाँ खा जाते थे, मजाल की उसके बाबूजी के चेहरे पर शिकन आ जाए। वह जरूर कुड़कता रहता था। घर के पीछे वाले हिस्से में जामुन के पेड़ के पास ही आँवले का पेड़ भी था, उसकी माँ अपनी पड़ोसनों के साथ बड़ी श्रद्धा से आँवला नवमी पर पूजन करती थीं।
उसे स्मरण आ रहा था कि उसके बाबूजी ने अनार,नीम्बू और जामफल के पेड़ भी तो लगा रखे थे।उन्हें अपने पेड़-पौधों से अपनी संतान की तरह ही लगाव था। घर के सभी लोग पतझड़ के दिनों में परेशान हो जाते थे। रोजाना इतने पत्ते झड़ते कि सुबह-शाम बगीचे की सफाई करते -करते परेशान। एक दिन उसने बाबूजी से हिम्मत करके बोल ही दिया था कि-" क्या बाबूजी, इन पेड़-पौधों की वजह से न तो हम अपने घर का विस्तार ही कर पा रहे हैं और न ही सुव्यवस्थित तरीके से रह पा रहे हैं। यहाँ-वहाँ गंदगी अलग। आखिर हम कब तक इस कवेलू के टापरे में पड़े रहेंगे। आसपास देखो अपने कस्बे में लोगों ने कितनी बढ़िया -बढ़िया बिल्डिंग तान रखी हैं। हम अपने घर की संडास और पानी की टंकी ही नहीं बनवा पा रहे हैं। अब हम पाँचों भाई-बहनों को पढ़ाई के लिए कुछ तो निजता चाहिए। मेहमानों का आना-जाना लगा ही रहता है, कितनी परेशानी उठाना पड़ती है।"
उसके बाबूजी कुछ बोलते, उनके पहले ही माँ बोल उठी थीं -"देखो दीपक अतिथि देवो भवः। अतिथि देवता के स्वरूप माने गए हैं, उन्हें आने से मना नहीं किया जा सकता और फिर तुम्हारे बाबूजी का सबसे व्यवहार ही इतना अच्छा है कि उनके स्नेह और अपनत्व के कारण लोग खींचे चले आते हैं।तुमने घर के बगीचे में आने वाले पक्षियों को नहीं देखा क्या! हाँ,तुम्हारे बाबूजी ने कहा भी है कि अभी घर का पिछला हिस्सा तुड़वा कर पक्का दो मंजिला कर लेते हैं और बाद में अगला हिस्सा भी बनवा लेंगे।"
तब उसने उनकी बात काटते हुए कहा था कि-"नहीं माँ, हमें नीचे का हिस्सा ही दो पोर्शन में बनवा लेना चाहिए। एक हिस्से में किराएदार रख लेंगे तो आमदनी भी शुरू हो जाएगी। बाद में ऊपर की मंज़िल तान देंगे, होगा तो वहाँ टीन लगवा देंगे।"
उसकी बात सुनकर उस समय बाबूजी को छोड़कर सभी ने उसके मंतव्य का समर्थन किया था। बाबूजी के न चाहते हुए भी घर को दो हिस्सों में बनवा दिया था और इस पुनर्निर्माण की भेंट उसके बाबूजी के चहेते जामुन और आँवले के पेड़ चढ़ गए। अब एक इकलौता आम और उसके साथ नीम्बू एवं जामफल के पेड़ ही बच गए थे। बगीचे का बहुत छोटा हिस्सा ही शेष रह गया था जिसमें मौसमी फूल और सब्जियाँ हो जाती थीं लेकिन इसके बाद से उसके बाबूजी बहुत उदास-उदास से रहने लगे थे। उसके घर के सभी लोग यही समझ रहे थे कि शायद तीनों बेटियों की शादी हो जाने और छोटे बेटे का सरकारी नौकरी के लिए कस्बे से दूर भोपाल चले जाने के कारण उनपर उदासी छा गई होगी। वैसे परिचित और रिश्तेदार जरूर कानाफूसी करते थे कि उसी के स्वार्थ के कारण उनकी यह मनोदशा हुई थी।
तब वे लोग मौसम बदलने या पतझड़ और बसंत के आगमन पर उनके बदले व्यवहार को भी नहीं समझ पाए थे। उन दिनों उनका समय अपने बगीचे में कम और आश्चर्यजनक रूप से घर के अन्दर टीवी की ओर शून्य में निहारते हुए ही गुजरने लगा था। पक्षियों ने भी तो आना कम कर दिया था। कबूतरों का दाना-पानी भी नियमित नहीं रह पाया था, शायद उसके बाबूजी की याददाश्त पर असर होने लगा था। वे भूलने भी लगे थे।कभी दाना डालते तो कभी भूल जाते। शायद उसकी माँ ही उन्हें समझ रही थीं, तभी तो वे ही उन्हें याद दिला दिया करती थीं।
उसे याद है कि उन दिनों में तो चिड़िया, तोते, कबूतर राह तकते-तकते कहीं ओर दाने-पानी की जुगाड़ में निकल जाते थे जब उसके माँ-बाबूजी अपने छोटे बेटे प्रकाश के यहाँ पन्द्रह-बीस दिनों के लिए चले जाते थे। हालांकि उनका मन वहाँ भी नहीं लगता था। भला सीमेंट-कांक्रीट के जंगल उन्हें कैसे रास आते!और फिर उम्र के हिसाब से उन्होंने कई समझौते भी तो कर लिए थे जब पोते अनुज ने बगीचे के कारण बारिश के दिनों में घर में कीचड़ और मिट्टी आने की बात कही, पक्षियों की बीट के कारण गंदगी होने और आम के पेड़ की जड़ों से मकान कमजोर होने तथा घर में धूप नहीं आने की बात कही और उसे कटवाने की सहमति ले ली थी। वह भी तो अनुज की बात से सहमत हो गया था बल्कि उसके मन की बात ही तो अनुज ने कह दी थी।
उसे बहुत बाद में महसूस हुआ कि उन्होंने जब कांक्रीट का जंगल खड़ा कर दिया था संभवतः तभी से बसंत का आगमन बन्द सा हो गया था, पतझड़ ने तो पैर पसार ही दिए थे। वैसे भी सीमेंट-कांक्रीट के जंगल में भावनाओं का, संवेदनाओं का क्या काम,बिखराव और बिछोह लेकर ही तो आता है पतझड़। और इस घर में यही तो बचा था। उसके माँ-बाबूजी भी उदासी के जीवन के साथ रूखसत कर गए थे।अनुज अपनी नौकरी के चलते कभी बेंगलुरू तो कभी यूएसए ….कस्बे से उसे मोह रहा ही कब!...वह अपनी पत्नी और बच्चों के साथ महानगरीय सभ्यता में खुश था।
तब जीवन के उत्तरार्ध में उसे बाबूजी ही याद आए थे और उनका बगीचा। बगीचे के शेष जिस हिस्से को पक्का करवा दिया था, उस हिस्से से उसने सभी फर्शियाँ उखड़वाकर काली मिट्टी भरवा दी थी और सबसे पहले आम का ही पौधा ही रोपा था। अब चिड़िया भी चहचहाने लगी हैं, पक्षियों का कलरव भी सुनाई देने लगा है। जिस तरह से उसके माँ-बाबूजी बगीचे में कुर्सी डालकर बैठते थे, उसे भी वहाँ बैठने पर सुकून मिलने लगा ।
आज जब आम के पेड़ पर मंजरी दिखाई दी तो कल्पना को आवाज़ लगाकर उसने यही तो कहा था कि-" देखो कल्पना, आज बाबूजी के बसंत का आगमन फिर से हमारे घर-आँगन में हो गया है।" शायद इसमें कहीं उसके प्रायश्चित का भाव भी सन्निहित था।