फॉर हियर ऑर टू गो?
फॉर हियर ऑर टू गो?
लम्बे सफर से थका हुआ युग खाने की दुकान में आर्डर करने की पंक्ति में लगा था! मन में घर और देश की अनेकों यादें मानो किसी पुरानी फिल्म की रील सी घूम रही थी। अमेरिका आने के लिए एयरपोर्ट की टैक्सी में बैठते समय माँ का उसे सीने से चिपका लेना और फफक कर रोना भूला न जा रहा था। माँ की याद ने सारे रास्ते उसकी आंखें सूखने नहीं दी। आखिर वो माँ का सबसे लाडला, भाइयों में सबसे छोटा बेटा जो था।
एक तरफ मन में ये संतोष और विश्वास था की भाई और भाभियाँ माँ का अच्छे से ध्यान रखेंगे। फिर भी ह्रदय में एक ग्लानि भाव भी था। "क्या मेरी कोई जिम्मेदारी नहीं परिवार की प्रति? वो माँ जिसने पिताजी के न रहने के बाद गरीबी में न जाने कैसे मुझे पढ़ाया, इंजीनियर बनाया, बच्चों की परवरिश में अपना शरीर फूंक दिया और कितनी बीमारियां पाल लीं।
क्या उस बूढी माँ की सेवा का मेरा कोई दायित्व नहीं? माना कि ममत्व का कर्ज तो भगवान भी न चूका पाए लेकिन फिर भी क्या ये जीवन दोबारा मिलेगा, क्या माँ दोबारा मिलेगी अगर मैं इस जन्म में उनसे दूर रहा? लेकिन कोई बात नहीं मैं कौन सा यहाँ बसने जा रहा हूँ। बस कुछ दिन रहूँगा, कुछ नयी चीज़ें सीखूंगा जिससे करियर में मदद मिलेगी फिर चला जाऊंगा वापस। लेकिन क्या अमेरिका जैसा अच्छा वातावरण, सुरक्षा, सुविधाएं वहाँ मिलेंगी ?
अगर दोबारा आने का मन हुआ और तब वीसा न मिला तो? बेटे अर्जुन के लिए भी तो अमेरिका में ही भविष्य ज्यादा बेहतर रहेगा। शायद ये सही रहेगा कि अर्जुन बड़ा हो जाये, यहाँ बस जाये फिर चला जाऊंगा देश वापस। लेकिन तब क्या माँ रहेंगी ?"
विचारों की ये लहरें युग के मस्तिष्क के किनारे से टकरा ही रही थी कि सहसा उसके कानो में आवाज़ आयी "फॉर हियर ऑर टू गो?"। मानो किसी ने उन विचारों के उपसंहार से जन्मा प्रश्न पूछ लिया हो। युग ने देखा कि वो खाने के काउंटर पर पहुंच गया था। दुकान वाले ने फिर से पूछा "सर ! फॉर हियर ऑर टू गो?" युग ने दुविधापूर्ण मुस्कान के साथ कहा "टू गो।"
