राम की अधूरी होली
राम की अधूरी होली
“हैलो! भाई कहां है तू? बाहर आजा रंग शुरू हो गया है”। फ़ोन पर उस ओर राम की उत्साहित आवाज़ थी। “हाँ यार, घर पर ही हूँ। पर इस बार होली खेलने नहीं आ पाऊँगा। माफ़ करना”। हामिद के उत्तर में एक भारीपन था। “नहीं आ रहा? क्या मतलब? सब ठीक तो है? अब तो पुलिस ने कर्फ्यू भी हटा दिया है कल रात से”। अचंभित राम को यह सामान्य नहीं लग रहा था। होली और रंग की प्रतीक्षा और उत्तेजना हर साल उससे कहीं अधिक तो हामिद को ही रहती थी। बीते कई वर्षों से जबसे वह और हामिद दिल्ली की एक ही सोसाइटी में रहने लगे हैं, तब से कोई होली ऐसी नहीं गयी जिसमें दोनों ने संग मिल हुड़दंग न किया हो।
“कुछ नहीं यार, बस कुछ खांसी जुकाम सा हो गया है। तुम्हें तो पता ही है कि पूरे शहर में एक वायरस फैला हुआ है, तो अब मिलना जुलना कुछ कम कर दिया है”। हामिद ने खांसते हुए कहा। राम अपने बचपन के मित्र की इस कृत्रिम खांसी का मूल कारण अब भली भाँती समझ चुका था। सब सामान्य करने की चेष्टा में परिहास के संग बोला “तेरी भाभी ने मसालेदार कोरमा बनाया है। आजा रंग खेलकर खाएंगे सारी तबीयत दुरुस्त हो जाएगी। और कुश भी तो कब से कबीर की प्रतीक्षा कर रहा है। उसकी पसंदीदा ड्रैगन वाली पिचकारी भी लेकर आया है कल बाजार से”। “ कबीर! वेयर आर यू? कम सून। हरी अप!” फ़ोन पर कुश की आवाज़ सुन कबीर दरवाज़े की ओर दौड़ा लेकिन हामिद ने उसका हाथ जोर से भींचकर अपनी ओर वापस खींच लिया। तभी दरवाज़े की घंटी बजी!
“राम, सुन मैं तुझे थोड़ी देर में कॉल करता हूँ दरवाजे पर कोई है”। कहकर हामिद ने दुखी मन से फ़ोन रख दिया और दरवाज़ा खोला। दरवाज़े पर राम था। मुट्ठी रंग से भरी थी और आँखें पानी से। हामिद के गाल पर गुलाल मलते हुए उसे गले लगाकर बोला ”तेरे बिन राम की होली अधूरी है। जनता है न? हैप्पी होली”।