ऑटो की सवारी
ऑटो की सवारी
शायद मुझसे पहले भी कई लोग स्टेशन मास्टर साहब को ट्रेन के बारे में पूछ चुके थे। मैंने पूछा तो चिढ़ गए। मैंने विनम्रता से कहा कि सर पूछ ताछ काउंटर जब है हीं नहीं तो मैं किससे पूछूँ। उन्होंने कहा अभी कोई सूचना नहीं है समस्तीपुर कब तक आएगी। यहां आना तो दूर की बात। तभी एक सज्जन ने कहा- अब तो टेम्पो सेवा भी चालु है। नदी पर सड़क पुल खुल चुका है। सामने देखा एक टेम्पो वाला भी आकर सबको कह रहा था जल्दी हीं टेम्पो खुलने वाली है। और हम ट्रेन से पहले पंहुचा देने के गारन्टी लेते हैं। मैं उस सज्जन को साथ ले टेम्पो में बैठ गया। सज्जन ने उससे कहा- कि भाई देखो हम डायरेक्ट टेम्पो स्टैंड में बैठेंगे। उन्हें लगा कहीं इस छोटी दूरी का किराया भी ना जोड़ दे। टेम्पो वाला बहुत हीं अपनेपन की मुद्रा में कहा- चचा हम कोई बाहर वाले हैं? बस हम दो बैठे थे। टेम्पो चालक ने कहा आप आगे हीं बैठ जाएं पीछे लेडीज और बच्चों को बिठाएंगे। लेडीज और बच्चों के लिए उसके मन में घर किये सुरक्षा की भावना ने मुझे आगे की सीट पर जकड़ दिया। सोचा थोड़े ज्यादे पैसे हीं लगेंगे मगर कितने सम्मान से ले जाएगा। बराबर समय अंतराल पर सवारी बैठता गया और टेम्पो स्टैंड और स्टेशन का चक्कर बार बार काटता रहा। बस एक और हो जाएगा तो चल देंगे। हम ज्यादा नहीं बिठाते हैं। अपनी गाड़ी है। टेम्पो एकदम नया था। उसमें कुमार शानू के एक से एक गाने बज रहे थे। उनका एलबम नशा लगा था। सारे दर्द भरे गीत थे। सोचा कहूँ गाने बदलने को कहूँ पर डर हुआ कहीं भोजपुरी ना लगा दे। ऐसा नहीं कि भोजपुरी गाने अच्छे नहीं होते पर अच्छे भोजपुरी गानों का कैसेट मार्केट में नहीं दूरदर्शन या रेडियो के संग्रहालय में हीं मिलता है। कुल छह सवारी हो गए थे। टेम्पो अपने स्टैंड पर खड़ी और सवारियों की प्रतीक्षा में खड़ी थी। कुछ लोग दोराहे पर खड़े थे इस इंतजार में कि अगर ट्रेन आ गयी तो दौड़ कर ट्रेन हीं पकड़ लेंगे। बीच बीच में मुझे आकर कहते, कोई आये तो बोलियेगा हम यहां बैठे हैं, मतलब रिजर्व।
टेम्पो चालक एक एक कर सवारियों को उसके आकार के हिसाब से पीछे के सीट पर आगे पीछे कर फिक्स कर रहा था। याद आया कैसे धान के पुआल के बीड़ा को उल्टा और सुल्टा कर किया जाता है। इतने में ट्रेन की पुक्की सुनाई दी। दो चार लोग भागे और थोड़ी हीं देर में लौट आये। रनिंग थ्रू एक्सप्रेस थी। अब तो टेम्पो चालक भी तन गया। बोला- अब आप लोगों को पूरा किराया देना पड़ेगा। भले हीं बीच में क्यूँ ना उतरें। एक सज्जन बड़ा सा बैग लेकर आये। चालक ने उसे नीचे से ऊपर ऐसे देखा जैसे कि वो डकैती करके आया हो। आपको डबल किराया लगेगा। असल में टेम्पो चालक को पता था कि अब ट्रेन नहीं आने वाली। वो एक हीं ट्रिप में जीवन भड़ की कमाई समेट लेना चाहता था। शायद वो अवसर का लाभ जैसे शीर्षक का अध्ययन कर चुका था। अगर देश का हर आदमी ऐसा कर पाए तो देश की इकोनॉमि एक हीं दिन में डबल हो जाएगी। मुझे भविष्य दिखने लगा। एक दिन यह ऐसे अनेकों तिपहियों का मालिक होगा और किसी मैनेजमेंट कॉलेज में छात्रों को मोटिवेट कर रहा होगा। आगे चालक को छोड़ तीन आदमी बैठ चुका था। मैं किनारे में धकेला हुआ था। मैं बार बार साइड मिरर के स्टैंड को पकड़ कर छोड़ रहा था। चालक ने कहा- कोई नहीं आप उसे कस के पकड़ लीजिये। मैने कहा- आपको मिरर देखने में दिक्कत होगी। चालक ने हँसते हुए कहा- भाई साहब बीस साल से ड्राइविंग कर रहा हूँ ।
अब टेम्पो फुल थी चलने हीं वाली थी कि एक दुबले पतले लड़के ने झांका- सीट है? चालक ने उसे देखते हीं- अरे तुम्हारे लिए सीट क्या। आजा तू तो कहीं भी खप जाएगा। जैसे कि उसका कोई वजूद हीं ना हो। इतने में एक और सज्जन आये उसे भी चालक आदर सहित अपने सीट पर बिठा कर बाहर निकल गया। हम सब सोच रहे थे कि अब चालक किधर से चलाएगा की इतने में एक छोटा सा लड़का आया और हैंडल थाम लिया। मैंने पूछा- तुम? जवाब दिया - हाँ आश्चर्य मत कीजिये, मैं उस्ताद हूँ। जिस दिन आगे अधिक सवारी बैठ जाती है उस दिन मैं ड्राइव करता हूँ। अभी सड़क नहीं बनी थी। टेम्पो हिचकोले खाते जा रही थी। एडवांस में आने वाले गढ़े को देख छत के एक रॉड को हाथ से पकड़ खुद को लिफ्ट कर लेते थे। मुझे देख वो सज्जन भी लिफ्ट करने लगे। नदी पार करने के बाद बताया गया कि आगे कुछ पुलिस वाले हैं। हमारे साथ वाले सज्जन ने सुझाव दिया कि दूसरे रुट से चलेते हैं। वाटर वेज के ऊपर उस जगह कच्ची गुमटी थी। पटरी को पार कैसे किया जाए। एक सज्जन ने कहा- सब उतर जाईये टेम्पो को उठा कर पार कर देंगे। सुझाव देने वाले सज्जन जिम्मेदारी के बोझ के साथ टेम्पो का बोझ भी उठा रहे थे। कुछ ज्यादा हीं दम लगा बैठे। उनके हाथ मे ग्रीस लग गया था। अब बीच में बैठें तो किसी के वस्त्र में ना लग जाये। तो हमने उन्हें किनारे पर इस आश्वासन के साथ बिठाया कि एक हाथ से हम उनको भी पकड़े रहेंगे। सब एक दूसरे को पकड़े पार उतर रहे थे। एक हीं मिशन और एक हीं राह ने सब को आत्मीयता के बंधन में बांध दिया था। अब तो गढ़ों के चोट से भी खुद को बचाने का तरकीब फेल था। अच्छा हुआ सज्जन ने ये नहीं कहा कि आप एक हाथ से खुद को और एक हाथ से मुझे भी उठाइये। गंतव्य तक पंहुचते पंहुचते शाम हो गयी थी।
