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CHANDAN JHA

Drama

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CHANDAN JHA

Drama

ट्रेन का एक डिब्बा

ट्रेन का एक डिब्बा

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पूरे वेग से डेग बढाए स्टेशन की ओर जा रहा था। कई लोगों को ओवरटेक करते निकलते जा रहे थे कि झाड़ी में किनारे बैठे लघुशंका करते एक सज्जन ने रोक दिया कहाँ भाग रहे हो, मैं भी चलता हूँ ट्रैन नहीं छूटेगा। मेरा मन किया बोल दूँ, ट्रेन कभी नहीं छूटता हम छूट जाते हैं। हायाघाट स्टेशन से लगभग बराबर दूरी पर उप और डाउन दोनों रुट पर पुल होने के कारण ट्रेन और घने बगीचे की घुमावदार शाखाओं से बल खाती आती ट्रेन की छुक छुक से धोखा हो जाता है। पर अनुभवी काका जी ने कन्फर्म किया कि ये मुंडा पुल यानि डाउन ट्रेन है। खैर हम साथ हो लिए। टिकट घर के सामने लाइन लगी थी। मैं बिना समय गंवाए लग गया। जैसे हीं कोई बिना लाइन में लगे टिकट लेने की कोशिश करता लोग हो हो करने लग जाते। कोई एक बोलता तो सब उसके पीछे शायद उनके आवाज को धक्का लगाने लगते। और ऐसे कि पता भी न चले कौन हो हो कर रहा। वैसे छोटी खिड़की में रेल के डब्बे की तरह हथेली घुसाए जा रहे थे। बगल वाले हाथ के घुसने का कोई चांस नहीं था।

इतने में एक सफेद कुर्ता, खाकी बंडी वाले पुरुष आये और हमसे कहने लगे- "विद्यार्थी आप मेरा भी टिकट ले लीजिएगा।' हमारे यहां लोग ऐसी स्थिति में चरवाहे को भी विद्यार्थी कह देते है। और काम बन भी जाता है। शायद विद्यार्थी सुनने में गर्व का अनुभव होता होगा। मैंने पूरे तर्क के साथ उनको फौरन नकारा," मुझे लहेरियासराय तक जाना है और आपको दरभंगा" । वो समझ जाएगा मैं गलत टिकट ले रहा हूँ। मेरे आगे वाले भाईसाहब दरभंगा हीं जा रहे थे दो टिकट लेना था। महोदय ने उनको एक दश का नोट थमा दिया।

फिर महोदय कहीं चले गए।

थोड़ी थोड़ी देर में देखने आ जाते की लाइन कहाँ तक पहुची है या हो सकता है उनको लगता होगा कि वो उनका टिकट ले फरार ना हो जाए। या फिर अगर वो लगातार खड़े होने में सक्षम होते तो खुद लाइन में न लग जाते? बीच बीच मे इक्के दुक्के महिला आकर बिना लाइन के खिड़की से टिकट ले लेती थी। इस पर कुछ लोग कमेंट भी पास कर देते। एक बार महोदय श्री शान से सिर ऊंचा कर अखबार के गत्तों को खोलते कहा- इन्हें पुरुष के साथ बरबरी चाहिए पर लाइन में नहीं आएंगे। मेरे मन किया बोलूं,- आप जैसे मर्दों के साथ अगर वो लाइन में खरे होने में सूरक्षित होती तो जरूर आ जाती।

उस समय जो महिला टिकट के रही थी उसका पति दूर खड़ा था, शायद उस वक़्त उसे याद आया नारी शक्ति। खैर कुछ भी हो नारी सम्मान मानवता की एक मात्र प्रभावी कसौटी है जो हर हाल में होना चाहिए।

टिकट ले लिया। उस सज्जन ने महोदय को टिकट दे दिया। वो थोड़ी देर में पान से रंजित हुए हाँफते आए। उस सज्जन को फिर से धड़ लिया- आपने 5 टका मुझे वापस नहीं किया। पूरे जेब कई मर्तबा टटोल कर उसे चुड़ी दार बना चुके थे। बात बढ़ गयी। मैन कहा- देखिए अंकल आपने पान खा लिया होगा। उन्होंने कहा- पान खाया नहीं खिलाया गया हूँ। शब्दों की कसरतों में पिक से उनका मुह इतना डांवाडोल हो गया कि हड़बड़ी में आग बुझाने के लिए लटकाए गए रेत भरे डोल में हीं पीक उड़ेल कर अखाड़े में आ गए। किसी ने कहा आप जेब से सब कुछ निकाल कर एक बार देखिए। सिक्का उनके किसी पुराने फोटो आई डी के फटे लैमिनेशन में घुसा हुआ था। लाल मुस्कान से सराबोर सॉरी बाहर ठीक से निकला भी नहीं था कि ट्रेन आ गयी।

सब चढ़ने लगे। लेडीज फर्स्ट का प्रोटोकॉल ठीक से फॉलो नहीं किया गया। संयोग से हम तीनों एक हीं डब्बे में चढ़ गए। मुझे खिड़की की तरफ बैठे एक दोस्त मिल गए। उसने अपने दोनों पैरों को डबल डेकर बस की तरह सेट कर मुझे में अडजस्ट कर दिया। तभी वो महोदय भी उसी सज्जन से मेरे तर्ज मर एडजस्ट करने का हवाला देकर जम गए। कुछ उचक्के लड़के किसी और डब्बे से घूमते घूमते वहां आ कर रुक गए। बाद में पता चला वहां कुछ लड़कियां बैठी थीं। वो सब विद्यार्थी थे। ये तब पता चला जब उसने किसी बड़े आदमी को बोला- विद्यार्थी हैं ज्यादा मुह मत लगाओ, मुँह नोच डालेंगे। मैंने कोशिश की समझने की की उसके हाथ मे फोल्डर की तरह फोल्ड किया किताब है कौन। वो एक हिंदी पत्रिका थी। जिसका नाम सरस सलिल था। ये अपने माँ बाप से ये बोल कर पैसा लेते हैं कि हम मैगज़ीन खरीदेंगे और ये इस तरह की किताबें पढते हैं। मैंगजीन बोलने से बौधीक बोध होता है।

फिर मैंने एक दो और वयस्क लोगों को बैठे उसी मैगज़ीन में गोता लगाते देखा। उस दिन पता चला क्यों ये सर्वाधिक बिकने वाली कुछ पत्रिकाओं में एक है। सब लड़के अंट शंट बोले जा रहे थे। कुछ तो समान रखने वाले स्टैंड पर चप्पल जूतों के साथ चढ़ गए। 

कोई पंखा में कलम घुसा कर तो कोई जबरन स्विच को थोक रहा था। एक ने तो पंखे की जाली हीं तोड़ दी। एसी कोच वाले एक्सप्रेस गाड़ियों की क्रासिंग के कारण रुकते हुए जा रहे थे।

एक आदमी शांत होकर अंग्रेजी अखबार पढ़ रहा था। एक विद्यार्थी उसमे ऐसे ताक झांक कर रहा था जैसे अखवार वाले से अधिक अंग्रेजी इसे आती है। शायद उसने शिष्टाचार वाला चैप्टर नहीं पढ़ा था कि बड़े कुछ पढ़ रहे हों तो ताक झांकी नहीं करनी चाहिए। अगर कोई हिंदी पढ़ने वाले होते तो उसमें से एक पन्ना पढ़ने मांगता नहीं बल्कि सीधे खींचने लगता पर अंग्रेजी वाले से भिड़ने में शायद कुछ शर्म हुई हो ? इतने में टी टी साहब आए। विद्यार्थियों ने एम एस टी बोल कर कन्डक्टर साहब को कन्विंस कर दिया। सामने एक महिला के पास टिकट नहीं था। मैंने गौर किया ये ते वही है जो आगे से खिड़की पर टिकट लेने खड़ी थी। फिर माजरा क्या है।

उसने टी टी साहब को कहा- टिकट हमारे लोक के पास है।

"लोक ?"

"मर्द"

बताईये कैसा मर्द है टिकट बीवी से कटवा लिया और दोनों टिकट खुद रखे उधर गेट पर हवा खा रहा है।

जब उसका मरद आया तब टी टी साहब ने उसे बहुत अच्छी बात कही-" जो औरत घर सम्भाल सकती है, वो एक टिकट नहीं संभाल सकती ? कैसे मर्द हो तुम ?" पता नहीं ये बात विद्यार्थियों ने सुना या नहीं।


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