निशब्द व्यथा
निशब्द व्यथा
भूमि तनया, जनक दुलारी
दिव्य विशिष्टा, निर्मल नारी
पिता से नाम सिया का पायो
जनक राज का मान बढ़ायो।
हुई तरूणी, पितु सोच जगाए
मिथिला राज, कन्या स्वयंवर रचाए,
तीनों लोक के स्वामी आए
धनुष भंग सिय कांता पाए ।
यहीं से प्रारंभ हई माता सीता की तपस्या की त्रासदी। कुल में स्नेह, आदर, सम्मान तो बहुत मिला, पर वह स्थायी ना था।
विमाता कैकेई के हठ के कारण, जब श्री राम ने वनवास का निर्णय लिया, तो एक आदर्श सहधर्मिणी की भाँति, वह भी उनके इस कठिन तप की भागीदार बनीं। चाहती तो वह भी अन्य रानियों की तरह, राज सुख का जीवन चुन सकती थीं, परन्तु उन्होनें स्वामी धर्म को ही, अपना परम धर्म और चरम सुख माना, और श्री राम के साथ हो लीं।
रामायण की पूरी गाथा हम सब ने पढ़ी है। क्या हुआ और क्यों हुआ- और माँ सीता की परिणति से भी, हम सब अवगत हैं।
क्या किसी ने यह सोचा कि उनके अंतर्मन में कैसी झंझा चली होगी, जब रावण द्वारा उनके अपहरण का कारण, उन्हें ही माना गया ?
उनकी सरलता, परोपकारिता तथा ऋषि मुनि रूपी गुरूजनों का आदर, सम्मान सत्कार करने की, बाल्य काल से मिली शिक्षा से, वह मुहँ न मोड़ पाईं और छल का शिकार हुईं...क्या यह उनकी ही त्रुटी थीं????
जब लंकेश ने उन्हें अपनी पटरानी बनाने का प्रलोभन दिया, तब उन्होंने राज ऐश्वर्य और राज सुख से मंडित, इस प्रस्ताव को ठुकराने में एक क्षण भी नहीं लगाया। तब न संपर्क का माध्यम था, न ही संभावना। उनका श्री राम के प्रति अकुंठ प्रेम व समर्पण ही के कारण , उन्होनें सारे भोग विलास ठुकराकर, एक बंदिनी का जीवन चुना, और श्री राम के ही ध्यान में डूबी रहीं- इस विश्वास के साथ, कि देव, निश्चय ही उनका उद्धार करने आएंगे।
युद्ध भी हुआ और श्री राम की विजय भी। वनवास भी समाप्त हुआ तथा माता सीता, ससम्मान भ्राता लक्ष्मण एवं श्री राम संग अयोध्या लौटीं, पर पुनः एक दूसरे वनवास में जाने के लिए।
पता नहीं, उनके हृदय ने कितने रक्त के अश्रु बहाए होंगे, जब गर्भावस्था में एक सती धर्म का मान रखकर भी (जिसका ज्ञान सबको था), उनके चरित्र पर बार बार समाज द्वारा, उनके लंका वास को लेकर, लान्छन लगाया गया।
क्या दोष था उनका ?
यह- कि वो अकेली, भोली, निष्पाप, निश्कलंक थीं ? उन्होंने हर बार अपने आप से बढ़कर श्री राम के मान का ध्यान रखा ?
यह कि अपने पक्ष में तर्क रखना, विद्रोह करना, उनके संस्कार नहीं थे ?
अपितु उन्होंने दोषी न होते हुए, चुपचाप, इस निर्णय को स्वीकारा और महर्षि वाल्मिकी के आश्रम में आश्रय लिया।
उनकी इस मूकवेदना को भी किसी ने नहीं समझा।
सफल अग्नि परीक्षा भी उनकी शुचिता एवं संशय व्यक्त न कर पाई। आरोप फिर भी अडिग रहा। रावण का असतित्व तथा माता सीता के प्रति उसके गलत विचार जिस प्रकार झुठलाया नहीं जा सकता, ठीक उसी प्रकार, कि वह केवल एक तरफ़ा था एवं माता का उसमें कोई दोष नहीं था, को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। निष्पाप होते हुए भी माता सीता की कोई सुनवाई नहीं थी। उन्हें दोबारा अपने प्राणाधार एवं परिवार से दूर, विरहणी का जीवन व्यतीत करने पर विवश होना पड़ा।
महर्षि वाल्मिकी के आश्रम में लव- कुश का जन्म हुआ। आदर्श संतान की भाँति, जब वे अपने जनक के परिचय से अवगत हुए, तो उन्होंने माता सीता की व्यथा कथा, श्री राम तक पहुँचाने तथा उनके पुनर्मिलन का बीड़ा उठाया। माता सीता की व्यथा, अपने गीत के माध्यम से, समस्त अयोध्यावासियों के समक्ष, श्री राम के दरबार में गाकर भी सुनाया। जब श्री राम को ज्ञात हुआ, कि लव-कुश उन्हीं की संतान हैं, तब उन्होंने उन्हें, उनका अधिकार तथा यथोचित स्थान प्रदान किया।
माता सीता फिर भी न्याय से वंचित रहीं। उनका कलंक ज्यों का त्यों वर्तमान रहा।
इतने वर्षों से अयोध्या की प्रजा के मत को ध्यान में रखकर वे वन में रहीं थीं। इसके पश्चात भी, उनकी सतित्व का प्रमाण माँगा जा रहा था। तीव्र अंतर पीड़ा से विवश होकर, उन्होंने इस अपवाद को चिरस्थायी रूप से समाप्त करने का निर्णय लिया। पृथ्वी पुत्री अपने अश्रु में छुपे चित्कार की धार में ही पुनः, अपनी जननी की गोद में लीन हो गईं ।
श्री राम तो मर्यादा पुरुषोत्तम थे ही,
रावण को भी अपने पापों की सज़ा मिली,
लव-कुश को भी यथायोग्य सम्मान व स्थान प्राप्त हुआ,
अयोध्या ने भी राम राज्य पाया,
पर.....
कभी किसी ने माता सीता की अंतर व्यथा को समझने की चेष्टा की?
किसी ने उनसे जानने का श्रम किया, कि वह क्या चाहतीं थीं?
सती धर्म का पालन करने पर भी, उन्हें श्री राम के विरह में व्याकुलता भरा एकाकी जीवन क्यों मिला ?
क्या, किसी ने यह विचारा कि वह इतनी पीड़ा तथा दंड की अधिकारिणी थी भी या नहीं ?
कुछ ऐसी ही दशा नारी की, आज भी समाज में वर्तमान है, और शायद हमेशा रहेगी।
दुनिया चाहे कितनी भी उन्नति कर ले,
पर आज भी...
चुपचाप रहना,
सब कुछ खामोशी से सहना,
बिना सवाल उठाए हर आदेश का पालन करना,
निष्पाप होने पर भी, यदि गलत लांछन लगाया जाए, तब भी अपने यथोचित सम्मान और अधिकारों के लिए आवाज़ न उठाना, गलत देखते, जानते, समझते हुए भी उसका विरोध न करना- आज भी एक संस्कारी और आदर्श नारी का प्रतीक माना जाता है।
हम सब माँ,बेटियों,बहुओं की समाज में, मर्दों से समानता के पक्ष में, बड़ी बड़ी बातें तो करते हैं, परन्तु जब उनके मूल अधिकारों तथा यथोचित स्थान देने की परिस्थिति आती है, तब हम उनसे सभ्यता, परंपरा और संस्कार की आड़ लेकर, त्याग और बलिदान की अपेक्षा ही रखते हैं।
क्या हम सही मायनों में निष्पक्ष विचारक हैं ?
क्या इस समाज को वास्तव में सभ्य और उन्नत माना जा सकता है ?
अंतर निर्णय करें !
