नींबू की बलि
नींबू की बलि
सन 1930 की बात है। गाँव की चौपाल पर बैठे मनोहर ताऊ काफ़ी उत्साहित और खुश नज़र आ रहे थे, और होते भी क्यों न, उनके एक विदेशी मित्र उनके गाँव फाटकपुर पधार रहे थे। उन्हें कल ही उनके मित्र की चिट्ठी प्राप्त हुई, जिसमें उनके सपरिवार आने की खबर सुनकर वे अत्यंत खुश हुए । दरअसल, उनकी मुलाकात आज से दो दशक पूर्व अर्थात सन 1910 में लंदन में हुई थी, तब मनोहर ताऊ नौकरी के किसी काम से विदेश गये थे, लन्दन । मनोहर ताऊ बिना किसी विलम्ब के अपने मित्र के स्वागत की तैयारियों में जुट गए, क्योंकि इसके साथ - साथ उन्हें अष्टमी और अगले दिन नवमी की पूजा के प्रबंध भी देखने थे। सारी पूजा परंपरागत तरीके से पूर्ण होने के बाद अंततः नवमी आई। नवमी के दिन प्रातः ही मनोहर ताऊ का इंतज़ार ख़त्म हुआ और उनके विदेशी मित्र उनके गाँव पधारे। उन्होंने उनके मित्र का अच्छे से स्वागत सत्कार किया और गाँव भ्रमण करवाया। नवमी की तैयारियाँ जोरों शोरों से चल रही थी। माता की मूर्ति का विसर्जन होना था। परंतु उसके पहले विदेशी मित्र ने देखा कि उनके मित्र मनोहर ताऊ पूरे घर के दरवाज़े - खिड़कियों एवं अन्य महत्वपूर्ण स्थानों पर नींबू काट - काटकर उन्हें सिंदूर से लाल कर रख रहे है। उनके विदेशी मित्र उन्हें बार - बार एक जैसी क्रिया करते देख रह न सकें और ऐसा करने का तात्पर्य जानना चाहा। मनोहर ताऊ मुस्कुरा दिए और भारत के महान इतिहास पर बल देने लगे।
उन्होंने कहाँ ऐसा करने के पीछे एक कहानी है -- " जब राम - रावण का युद्ध चल रहा था, तभी धोखे से श्रीराम और उनके अनुज लक्ष्मण को अहिरावण उठाकर पाताल लोक ले गया तथा बली चढ़ाने के लिए उन्हें माता के मंदिर ले जाया गया। तभी हनुमान जी के द्वारा अहिरावण का अंत करके भगवान श्रीराम और लक्ष्मण को मुक्त कराया गया। तभी से नर बली प्रथा बंद करके नींबू की बली दी जाती है। मनोहर ताऊ की ऐतिहासिक कथा को सुनकर विदेशी मेहमानों को भी भारतीय परंपरा, संस्कृति और कला का ज्ञान प्राप्त हुआ तथा अमाननीय प्रथाओं जैसे नर - बली, पशु -बली आदि को बंद करने की प्रेरणा भी मिली ।