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मुट्ठी भर रेत

मुट्ठी भर रेत

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महावर रचे पैरों से जब पहली बार ससुराल में कदम रखा तो, मानो उस की तरुणाई का बसंत भीग गया। हथेलियों में मेहंदी की भीनी भीनी खुशबू फिज़ा में तैरने लगी।

“तुम्हारा यह नया परिवार भरा पूरा है बहू!” किसी ने कहा। और उसने अपनी मुट्ठी बंद कर ली, अपने सपनों के साथ, अपने आंसू के साथ, अपने गम को छुपाती, अपने वजूद को भुला कर औरों की होती -भोर की किरण और यामिनी के चंद्र कलाओं को समेट हुए -उसकी मुट्ठी बंद हो गयी। कितनी ही बार सुई चुभायी गई। कभी कम दहेज की, कभी बेटी पैदा करने की, कभी खिलखिला कर हँसने की पाबंदी पर...!! किस-किस ने चुभन दी, ये विस्मृत ही रहा। किन्तु हाँ!! उस की बंद मुट्ठी कभी नहीं खुली। सारे रिश्ते इस मुट्ठी में ही बंद रहे, मेहँदी की महक के साथ।

अब वह थक गयी है… मुट्ठी खोलना चाहती है, चांदनी से सफेद बालों और कमजोर होते हुए शरीर में मुट्ठी बांधने की ताकत रही नहीं। एकाकी जीवन में उन की जरूरत है, जिसे उसने अपनी मुट्ठी में बंद कर लिया था। इसलिए आज उसने अपनी मुट्ठी खोल दी।

वह स्तब्ध थी देख कर!!! …मुट्ठी तो खाली है उस की!!! 

वर्षों से  बंद उसकी मुट्ठी से कब रेत की तरह एक एक रिश्ते फिसल गए … वह जान ही नहीं पायी।


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