मन का उजाला

मन का उजाला

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रात ड्यूटी पर आकर चौकीदार ने देखा, आज फिर बिल्डिंग में लगी मरकरी लाइट टूटी हुई है। खीज और झुंझुलाहट से उसकी नसें तन गईं। ये काम किसका है, खूब जानता है वो। पिछले हफ्ते भी तोड़ दी गई थी लाइट, तो चौकीदार ने ठेकेदार से माफ़ी मांग कर नयी लाइट का इंतज़ाम कर लिया था। तभी ठेकेदार ने कहा था --" इस बार तो मैं नयी लाइट लगवा देता हूँ, किन्तु आगे इसकी जिम्मेदारी तुम्हारी होगी।" यही कारण है कि चौकीदार बेहद गुस्से में था। दरअसल, ये निर्माणाधीन बिल्डिंग है। काम करने वाले मज़दूर अस्थायी तौर पर यहीं रहते हैं। कल्लू मज़दूर भी अपने परिवार के साथ यहीं रहता है। मरकरी बल्ब, उसी की तेरह वर्षीय बेटी, मुनिया जो अर्धविक्षिप्त है, गुलेल से पत्थर मार कर तोड़ती है। बल्कि अन्य मज़दूरों के लड़के उसे उकसाते हैं ऐसा करने को। गुलेल भी कल्लू के बेटे ने ही बना कर दी थी। कहीं से टेढ़ी लकड़ी ले आया था और कूड़े में पड़े डॉक्टर के दस्ताने को काट कर गुलेल बना, अपनी पगली बहन को थमा दी थी।

चौकीदार ने गुस्से से आँखें तरेर कर कल्लू को चेतावनी दे दी। " या तो मरकरी बल्ब के पैसे चुका, या ठेकेदार से कह कर काम से निकलवा देता हूँ।" कल्लू भयभीत हुआ - पैसे कहाँ से चुकता करे ? ठेकेदार रोज़ के रोज़ तो मजदूरी पूरी देता नहीं। आधी मजदूरी रख लेता है। पूरे परिवार के लिए रोज़ का खाना और उसका ठर्रा ... बस इतनी ही पूर्ति हो पाती है, रोज़ की आधी मजदूरी से ....। हालांकि उसका पूरा परिवार भी मजदूरी में लगा रहता है। उसकी पत्नी और दोनों लड़के। लेकिन पत्नी को इसलिये कम मजदूरी मिलती कि वह औरत है। और बच्चों को तो और भी कम, हालांकि, बच्चों से कई घंटे काम कराते हैं। एक लड़की अभी साल भर की है। कल्लू माथा पकड़ कर बैठ गया। सामने बैठी मुनिया बिना वजह खी -खी करके हँस रही थी। इच्छा तो हुई कि खींच के लगाए गाल पर थप्पड़। लेकिन वो ऐसा नहीं कर सका। पिछली बार मुनिया ने जब लाइट तोड़ी थी, तो कितना मारा था मुनिया को। " ऐसी बेटी जिंदा रहने के बजाय मर जाए।" कहते हुए गुस्से में बेटी को कमरे में बंद कर दिया था। बाहर से दरवाज़े की कुंडी लगाते हुए पत्नी पर चिल्लाया .." बंद रहने देना इसे। आज खाने पीने के लिए कुछ नहीं देना इसे।" लेकिन शाम उतरते ही मुनिया खिड़की पर आ कर चीखने लगी --" रोटी दो --भूख --रोटी दो..।" उस रात जब शराब के ठेके से लौटा, तो पत्नी ने भयभीत हो कर कहा -- "दरवाज़ा खोल दो ...अंदर कमरे से टप-टप की आवाज़ आ रही।" किसी अनहोनी आशंका से घबरा कर जैसे ही कल्लू ने दरवाज़ा खोला। अंदर का दृश्य देख उसका शरीर घृणा से कांप उठा। मुनिया ने गुलेल से कमरे की छिपकलियों को मार कर ढेर लगा लिया था। मुनिया पिता की ओर दाँत किटकिटा कर देखती। अचानक कल्लू के दिमाग में विचार कौंधा - भूख के कारण पगली ने कभी छिपकली खा ली तो !!!! बस उसी दिन से उसने फैसला कर लिया था कि वह मुनिया की पिटाई नहीं करेगा, आज भी मुनिया की हरकत पर बस दाँत पीस कर रह गया। सच, मुनिया पगली न होती, तो कम से कम मजदूरी ही कर लेती। और नहीं तो अपनी छोटी बहन को संभाल लेती। कितनी बार ठेकेदार नाराज़ हुआ है, उसकी औरत पर !!! जब वह छुटकी को अपने सूखे सीने से लगा कर दूध पिलाने काम छोड़ कर एक कोने में जा बैठती। तब ठेकेदार चिल्लाता -- "हर एक घंटे के बाद बैठ जाती है। पैसे काट लूंगा तेरे ..। " स्साला ..हरा.....मन ही मनकल्लू ने ठेकेदार को गाली दी और ठर्रा का गिलास मुँह से लगा लिया।

मुनिया पर तरस भी आ रहा था और गुस्सा भी। ...वह सोचता जाता और शराब चढ़ाता था। एक बार फिर देखा उसने मुनिया की ओर ..!! इस समय वह पागल बेटी नहीं, हाड़ -मांस की गुड़िया लग रही थी। अचानक जाने क्या सोच कर कल्लू ने मुनिया की बांह थामी। और लाचार-असहाय सा चौकीदार को सौंप कर अपराधी की मुद्रा में अपनी झोपड़ी में घुस गया। जाने क्यों कल्लू को महसूस हो रहा था कि ढेर सारी छिपकली उसके बदन में रेंग रही है। उसे गिजगिजाहट सी लगने लगी। लगा जैसे वह खुद छिपकली में तब्दील होता जा रहा है। रेंगने वाली, विषाक्त छिपकली चौकीदार के कमरे से मुनिया की हँसी की आवाज़ लगातार आ रही थी। चौकीदार उस से बल्ब तोड़ने की बाबत पूछता रहा। जवाब में वह दाँत दिखा कर हँस देती और हामी में अपना सिर हिला देती। चौकीदार ने देखा, उस बिल्डिंग में फिलहाल अंधेरा ही था। किन्तु उसके कमरे में एक बल्ब धीमा -धीमा जल रहा था। उसी मद्धिम रौशनी में उसने मुनिया को गौर से देखा - मासूम सा चेहरा .. शरीर पर उम्र की उठान, किन्तु दिमाग छोटी, अबोध बालिका का। वह चारपाई पर लेट गया। और उस मद्धिम बल्ब को देखता रहा -- एक छोटा सा बल्ब किस तरह अंधेरे से लड़ कर पूरी बिल्डिंग में हल्की ही सही रौशनी तो कर रहा है । "बाहर कितना ही अंधेरा हो, मन के भीतर उजाला होना चाहिए ' !! भागवत कथा में यही कहा था पंडित जी ने --जाने क्यों उसे याद आ गई ये बात। मुनिया भी उसके पास लेटी शून्य में ताक रही थी। उस छोटे से बल्ब में चौकीदार को अपनी बेटी की शक्ल दिखाई देने लगी, जिसे गाँव में परिवार के साथ छोड़ के अकेला ही नौकरी के लिए शहर आ गया था। एकाएक वह चारपाई से उठ खड़ा हुआ, मुनिया का हाथ थामा और उसकी झोपड़ी की तरफ चल दिया -- उसके होंठ स्कूल में याद किया दोहा बुदबुदा रहे थे ---" जस की तस धर दीन्ही चदरिया " --



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