मृगतृष्णा
मृगतृष्णा
कुछ कहानियाँ शुरू होती हैं और ख़त्म हो जाती हैं लेकिन कुछ शुरू होती तो ख़ुद-ब-ख़ुद हैं लेकिन उनका अंत हमें करना होता है। ख़ास कर तब जब उस कहानी का एक किरदार कहानी ख़त्म होने से पहले ही अपने स्वार्थ के लिए आपको एक अंधे मोड़ पर छोड़ ख़ुद आगे बढ़ जाए और आप इस इंतजार में वहीं रुके रहें कि वो कभी तो लौट कर आयेगा और आपको भी अपने साथ मंजिल की ओर ले जायेगा। ऐसी ही एक यह कहानी है, मेरी और रवि की। आज जब पीछे मुड़ कर देखती हूँ तो सिर्फ़ एक व्यक्ति नज़र आता है जो मेरे हर अच्छे बुरे हालात का जिम्मेदार है और वो है रवि। आज मैं जो भी हूँ सिर्फ़ रवि की वजह से हूँ, अगर वो न होता तो शायद मैं "निशा" नहीं होती।
शाम से शहर में बारिश ने कोहराम मचाया हुआ था। इतनी तेज़ बारिश थी जैसे कहीं कुछ अनहोनी हुई है और उसका शोक पूरा आसमान मना रहा है। मैंने बरामदे से बाहर झाँका और वापस आकर अपनी कुर्सी पर बैठ गई। हाथ में अमृता की जीवनी रसीदी टिकिट थी लेकिन पढ़ने में मन नहीं लग रहा था। कुछ बूझे-अनबूझे सवाल दिमाग में चक्कर काट रहे थे। तुलसा मेरे घर के सारे काम-काज करती थी, कई बार मुझसे पूछ चुकी थी कि रोटियाँ सेंक दे क्या लेकिन मैं उसे हर बार मना कर देती कि अभी भूख नहीं है। आधे घंटे बाद वो फिर वापस आई यही पूछने कि तभी किसी ने डोरबेल बजाई।
“दीदी....” तुलसा ने जाकर दरवाजा खोला तो एक अजनबी को देख मुझे आवाज दी। मैं पहुँची तो एक पल को यकीन नहीं हुआ कि आज की तारीख का इतना बड़ा लेखक मेरे दरवाजे पर! मुझे देखते ही तुम औपचारिकता दिखाते हुए बोले।
“वो बाहर मेरी गाड़ी ख़राब हो गई है, और मेरा फोन भी पानी में भीगने के कारण... क्या मैं एक फोन कर सकता हूँ?” मैंने तुम्हें अंदर आने का न्यौता दिया और पीछे हट गई। तुमने वहीं बाहर अपनी चप्पलें उतारीं और अंदर आ गए। मैंने तब तक तुलसा से तौलिया लाने को कहा और अपना मोबाइल लेने अंदर कमरे में आ गई। बाहर आई तब तक तुलसा तौलिया ले आई थी। तुमने मोबाइल और तौलिया दोनों को हाथ में थामा और पहले अपने घर फोन लगाया।
“हेलो, किरण! हाँ मैं अटक गया हूँ इस बारिश की वजह से... ये नम्बर एक जगह से मदद ली है उनका है...” इतना कह तुमने मेरी ओर देखा और मुस्कुरा दिये. “जैसे ही बारिश कम हो यहाँ के लिए गाड़ी भेज देना........ हाँ पता लिखो... ठीक है, अपना ध्यान रखना और मेरी फ़िक्र मत करना... हम्म, मैं भी...रखता हूँ कुछ देर बार फिर बात करूंगा... बाय..” तुमने कॉल काटा और मेरा फोन मुझे देने हाथ आगे बढ़ाते हुए बोले।
“शुक्रिया, असल में बाहर ही मेरी गाड़ी खराब हो गई, इधर उधर देखा तो आप बरामदे में दिखीं, इसीलिए...” तुमने झिझकते हुए कहा और मेरी ओर फोन बढ़ा दिया।
“आप भीगे हुए हैं, वहाँ वाशरूम है जाकर खुद को सुखा लीजिये।” मैंने फोन हाथ में लिया और तुम्हें वाशरूम का रास्ता बता दिया। कुछ देर बाद तुम बाहर आये तो एक जोड़ कुर्ता और धोती जो तुलसा से अंदर रखवाए थे वो पहन कर बाहर आये। मैं अपनी किताब में नज़रें गड़ाए थी, तुम आये और मेरे सामने रखे सोफे पर बैठते हुए बोले।
"यह कपड़े!"
"बाबूजी के हैं।"
"ओह! आपने बेवजह तकलीफ़ की, कुछ ही देर में बारिश रुक जाएगी...”
“शायद यह बारिश आज इतनी जल्दी नहीं रुकेगी।”
“जी!” तुमने हैरानी से मुझे देखा तो मैंने टीवी ऑन कर दिया। ख़बर चल रही थी कि मौसम विभाग ने आगे 12 घंटे बारिश और तेज़ होने की चेतावनी दी है।
“बारिश की वजह से पूरे शहर में पानी भरा हुआ है और आने-जाने के सारे रास्ते बंद हैं।” मैंने इतना कह तुलसा को बुलाकर उसे चाय कॉफी बनाने का कहा और फिर अपनी किताब पढ़ने में व्यस्त हो गई। कुछ देर बाद तुलसा एक कप कॉफ़ी और एक कप चाय रख गई सामने। तुमने कॉफ़ी उठा ली लेकिन मैं अब भी अपनी किताब में गुम थी। कॉफ़ी पीते हुए तुम्हारी नज़रें चारों तरफ़ घूम रही थीं, क्या ढूंढ रहे थे? कोई कहानी! लेकिन मेरे इस खाली घर में सफ़ेद दीवारों, उन पर टँगी कुछ तंजौर पेंटिग्स और किताबों की अलमारी के सिवा कुछ नहीं था। अभी मैं यह समझने की कोशिश कर ही रही थी कि ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरा नाम पुकारा। मैं अपने सवालों के जाल से बाहर निकली।
“आपने कुछ कहा?” मैंने पूछा।
“चाय ठंडी हो रही है।”
“मैं ठंडी कर के ही पीती हूँ।”
“लेकिन...”
“कुछ लेंगे कॉफ़ी के साथ? वैसे खाने का समय भी हो गया है तो...”
“अरे नहीं खाना नहीं... अभी बस बारिश रुकेगी तो मैं...” तुमने इतना कहा और चुप हो गये, एक ख़ामोशी जो दरवाजे से हमारे बीच चलकर आई थी वापस वहाँ पसर गई। तुम्हारी नज़रें अब भी चारों तरफ़ कुछ ढूंढ रही थीं कि तभी एक जगह जाकर अटक गई, तुम उठे और किताबों की अलमारी के एक कोने में रखे एक छोटे नीले रंग का पत्थर उठा कर बोले।
“यह अब तक है तुम्हारे पास?” यह सुनते ही मैंने अपनी आँखें बंद कर लीं। सोचा था कि जिस अजनबियत से मिले थे उसे बनाये रखूँगी लेकिन बरसों से शांत पड़ी लहरों में तुमने अचानक पत्थर मार एक बार फिर हलचल मचा दी थी। मैंने ख़ुद को समेटा और उठ कर तुम्हारे हाथ से वो पत्थर वापस ले दराज में डालते हुए बोली।
“कुछ दर्दों को याद रखने के लिए उनकी वजहों का सामने होना ज़रूरी होता है ताकि आगे कोई आपको दोबारा ज़ख्म न दे सके।” तुम कुछ नहीं बोले और वापस आकर बैठ गये और जो किताब मैं पढ़ रही थी उसे उठा कर उसके पन्ने पलटने लगे। मैं अंदर कमरे में आ गई। मेरे अंदर जो इतने बरसों की कड़वाहट थी जिसे मैं ख़त्म नहीं होने देना चाहती थी वो जबसे तुम मेरे सामने आये थे मैं एक कमी पा रही थी उसमें, क्या मैं तुम्हारी ओर वापस खिंच रही थी? मैंने अपने आपको सम्भाला और वापस हॉल में आई तो देखा तुम रसीदी टिकिट हाथ में थामे फोन पर बात कर रहे थे। मुझे देख तुमने फिर फोन करने का कह फोन बंद किया और मेरे बैठते ही अपना सवाल किया जो शायद जबसे यहाँ आये तब से पूछना चाहते थे।
“इस शहर में कब से हो?”
“अभी कुछ ही महीने हुए हैं...”
"माँ-बाबूजी के बारे में पता चला पिछले दिनों। बहुत सोचा आने के बारे में लेकिन तुम्हारा कोई पता ही नहीं मालूम था।”
"कोई बात नहीं।" कहते हुए हल्के से गला रुंध गया। तुमने मेरी ओर देखा मैं तुम्हें ही देख रही थी, अचानक ही नमी उभरती दिखी लेकिन क्यों! जब कल कोई फर्क़ नहीं था तो अब क्यों?
"इतना कुछ हो गया और तुमने ख़बर करना भी ज़रूरी नहीं समझा!"
“क्या करती ख़बर करके? किसे ख़बर करती और क्यों? वो जब ज़िंदा थे तब भी ख़बर करके कुछ हासिल नहीं होना था और उनके जाने के बाद भी क्या बदलता? जो सफ़र में आगे बढ़ जाएँ उन्हें पीछे से आवाज़ देकर वापस नहीं बुलाया जाता बल्कि अपनी रफ़्तार तेज़ करनी पड़ती है उनकी बराबरी के लिए।” मेरी आवाज़ में घुला तंज तुम समझ गये थे इसलिए चुप रहे शायद। तुलसा ने आकर बोला कि खाना टेबल पर लग गया है, मैंने तुम्हारी ओर देखा तो तुम बिन कोई सवाल किये मेरे पीछे चले आये। खाने की टेबल पर हम दोनों ही चुप थे लेकिन कुछ सवाल अब भी मेरे दिमाग में थे, मैंने पानी का गिलास तुम्हारे सामने रखते हुए पूछा।
“आज सुबह से ही मौसम ख़राब था, चेतावनी थी कि शाम होने से पहले ही भारी बारिश के आसार हैं, फिर ऐसे मौसम में घर से बाहर?” सवाल सुनकर तुम्हारे गले में कुछ अटका, पानी का पूरा गिलास एक ही घूंट में ख़त्म कर तुमने मुझे यूँ देखा जैसे कोई चोरी पकड़ी गई हो। अपना गला साफ़ करते हुए बोले।
"एक ज़रूरी मीटिंग थी पब्लिकेशन हाउस के साथ। सोचा नहीं था कि मौसम इतना ख़राब हो जायेगा।" कहते हुए तुमने नज़रें नहीं मिलाईं यानी कुछ तो था जो तुम छुपा रहे थे। ख़ैर खाना ख़त्म कर हम वापस बैठक में आ गये। ठंड बढ़ रही थी इसलिए मैंने फायर प्लेस को ठीक किया और उसमें कुछ लकड़ियाँ डालने ही वाली थी कि तुमने उन्हें अपने हाथ में ले फायर प्लेस में डाला और जला दिया।
“तुम्हें अब आग से डर नहीं लगता?” तुमने फायर प्लेस में हाथ गर्म करते हुए पूछा।
“नहीं, पहले बाबूजी और फिर माँ को मुखाग्नि देने के बाद अब किसी आग से डर नहीं लगता।” बीती बातों को याद कर अंदर जो उथल पुथल मची थी उसके बाद भी ऊपर से मैं चमत्कारी ढंग से शाँत थी।
“मुझे माफ़ कर दो निशा, अगर मुझे ख़बर मिलती तो मैं ज़रूर आता...”
“मुझे इस बाबत कोई नाराज़गी नहीं है रवि। तुम्हारे जाने के बाद अक्सर सोचा करती थी कि जो भी हमारे बीच था वो क्या था? क्यों था... मेरे लिए तो ये सवाल हमेशा बिन जवाबों के रहेंगे इसलिए अब मैंने इनका पीछा करना ही छोड़ दिया है।" तुम बार बार किसी बातचीत की शुरुआत करना चाह रहे थे और मैं हर बार बात को एक अंधे मोड़ पर लेकर छोड़ रही थी ताकि आगे तुम्हारे सवालों को रास्ता ही न मिले।
बाहर बारिश कुछ कम होने लगी थी, घड़ी की ओर देखा तो रात का 1 बजने वाला था। मेरा फोन बजा, कोई अंजान नम्बर था उठाया तो एक महीन आवाज़ गूँजी।
‘क्या रवि आप ही के यहाँ ठहरे हुए हैं?”
“जी, बात कीजिये...” मैंने फोन तुम्हारी तरफ़ बढ़ा दिया और उठ कर बाहर बरामदे में आ गई। मैं नहीं सुनना चाहती थी तुम्हारी बातें लेकिन जैसे सुनने की सारी शक्ति तुम्हारी आवाज़ पर जाकर टिक गई थी, तुम कह रहे थे।
“हाँ बाबा मैं ठीक हूँ... मैं तुमसे झूठ क्यों बोलूँगा... अच्छा ड्राइवर से कहना कि चौराहे से दाई तरफ़ मुड़ कर सीधे आना है. एक पीली बिल्डिंग है उससे तीसरा घर जो है मैं वहीं हूँ... हाँ किरण मैं ठीक हूँ... नहीं... हाँ वो एक लड़की... किरण तुम... ख़ैर छोड़ो, मैं जल्दी ही वापस आ जाऊँगा तुम अपना ध्यान रखो और माँ का ध्यान रखना... ठीक है, बाय।” माँ का नाम सुन एक बार फिर मैं बीते दिनों में खो गई। कुछ साल पहले जब तुम मुझे माँ के सामने ले गये थे तब उन्हें यकीन ही नहीं हुआ था कि मैं और तुम एक दूसरे से प्यार करते हैं। मुझे याद है उन्होंने मेरा हाथ अपने हाथों में ले कर कहा था कि... “निशा तू कहाँ इसके चक्कर में अपनी ज़िंदगी बर्बाद कर रही है... तू तो किसी राजकुमार के लायक है बेटा... रवि ख़ुश किस्मत है कि उसे तू मिल रही है, मैं जानती हूँ कि तू उसका साथ हमेशा निभाएगी...” तब मुस्कुरा कर बस उनके सीने से लग गई थी मैं। नहीं जानती थी कि जिसके साथ जीवन बिताने का फैसला लिया था वो खुद राजकुमार बनने की चाहत में मुझे ही रास्ते में छोड़ किसी और के साथ चला जायेगा। तुम्हारी बातें ख़त्म होने के कुछ देर बाद मैं वापस हॉल में आई तो देखा तुम फायर प्लेस में कुछ और लकड़ियाँ डाल रहे थे।
"माँ कैसी हैं?"
"ठीक हैं...
"इतने सालों में उन्होंने भी मुझे याद नहीं किया!"
"वो तुम्हें कभी भूलती ही नहीं हैं निशा, जब भी मुझे देखती हैं तुम्हारा ख़्याल उनके दिल में मेरे लिए और कड़वाहट भर जाता है। हाँ किरण से अच्छी बनती है उनकी, ख़याल भी खूब रखती है वो उनका... वो अक्सर कहती हैं कि एक बेटी छीन कर दूसरी अच्छी बेटी दे दी है उन्हें, बस उन्हें इस बात का गुस्सा है कि मेरी वजह से उनकी एक बेटी को इतना दुःख सहना पड़ा।" आग वापस तेज़ हुई तो अपने हाथ साफ़ करते हुए तुम बोले। “मैं एक बात पूछूँ?”
“हम्म...”
"तुम आगे क्यों नहीं बढ़ीं?"
"मेरी तो ज़िंदगी ही इतनी आगे बढ़ गई कि न चाहते हुए भी मुझे इसके साथ यहाँ तक आना पड़ा।"
"मतलब!" तुमने जिस मासूमियत से पूछा मुझे हँसी आ गई।
"कुछ नहीं, तुम यह बताओ किरण कैसी है? क्या उसमें वो सारे गुण हैं जो तुम्हें चाहिए थे!"
"तुम मिलकर तय करना।"
''मैं!''
''तुम मिलोगी?''
"नहीं, कभी नहीं... रवि एक बात सच-सच बताना!" कुछ देर चुप रह मैंने एक सवाल पूछना चाहा तुमसे।
"हम्म पूछो, आज जो पूछोगी सब बताऊँगा।"
"तुम यहाँ इत्तेफ़ाकन आये हो या पहले से जानते थे कि मैं यहाँ रहती हूँ?" तुमने हैरानी से मुझे देखा और फिर नज़रें झुका लीं।
"कुछ रोज़ पहले किसी को क्रॉसवर्ड पर देखा था। ऐसा लगा कि तुम हो फिर ये सोचा कि तुम यहाँ क्यों आओगी! माँ बाबूजी सब जयपुर में हैं और तुम्हारे बारे में ये भी नहीं पता था कि इन दिनों तुम क्या कर रही हो! तभी एक स्टॉल पर एक किताब पर नज़र पड़ी, उठा कर देखा तो लेखक का नाम देख कर हैरानी हुई। पहला ख्याल यही आया कि क्या यह निशा तुम ही हो! लेकिन तुम लिखने लगी हो! यह समझ नहीं आया। किताब लेकर पढ़ी तो हैरान रह गया। सब कुछ वही था जो हमने जीया था एक दूजे के साथ, फिर ख़ुशी भी हुई कि तुम लिखने लगी हो! लेकिन मन अभी भी मानने को राज़ी नहीं था, कई सवाल थे ज़हन में तो उनका जवाब ढूंढने जयपुर चला गया। तब पता चला कि वो तुम ही थीं। यहाँ आकर क्रॉसवर्ड से तुम्हारा पता लिया और आज तुम्हारे सामने हूँ।"
"तुम क्यूँ आये हो रवि?"
"मैंने जो किया उसके लिए मैं शर्मिंदा हूँ निशा। मैं जानता हूँ कि 6 साल पहले जो मैंने किया वो गलत था, लेकिन उस समय मुझे बस उन ऊँचाइयों तक पहुँचना था जहाँ से मैं वो सारी ख़ुशियाँ खरीद सकूँ जिनसे हम ख़ुश रह सकें। एक छोटे से शहर से आकर अपनी जगह बनाने की चाहत थी लेकिन जब यहाँ आया तो पाया कि ये जगह एक बहुत बड़ा समुद्र है और इसमें खुद को बचाकर रखना ही मुश्किल है फिर मेरा सपना तो यहाँ चमकना था। अपना नाम बनाना था..." तुम्हारी आँखों में आँसू थे, और तुम कहे जा रहे थे बगैर रुके, हमेशा की तरह। मैं कुछ नहीं बोली, बस सुनती रही, तुम बोलते रहे। "मैं जब इस शहर में आया था, मुझे नहीं पता था कि मैं किस से मिलूँगा, किस रास्ते पर चलूँगा बस इतना मालूम था कि एक दिन मेरा नाम सितारों में चमकेगा। कुछ दिन यहाँ वहाँ चक्कर काटे और फिर सपनों से उतर सच्चाई के धरातल पर आने लगा। समझ गया था कि जो तरीका मेरा है उस से मेरा कुछ नहीं होने वाला। अब भी ऑफिस ऑफिस धक्के खा रहा था, ऐसे ही एक दिन किरण के पापा के ऑफिस पहुंचा। उन्होंने मेरी कहानी अपने पास रखी और फोन करने का कह दिया। इतने दिनों में इतना तो मैं जान गया था कि एक नए लेखक को मना करने का यह सबसे आसान तरीका है। मैंने अपना सामान समेटा और वहाँ से निकला ही था कि किरण से टकरा गया, उससे माफ़ी माँगी और बाहर निकल आया। २ दिन बाद हमारी सगाई थी मैं ख़ुश था तुम्हारे साथ को पाकर। सगाई के दूसरे दिन खुराना साब के ऑफिस से फोन आया कि मेरी कहानी को चुन लिया गया है, याद है?" तुमने मेरी ओर देखा, मैंने सिर हिला कर जवाब दिया और तुम फिर बताने लगे।
"सब ख़ुश थे, जब वापस आया था तो सोचा था कि जैसे ही कहानी बाज़ार में आएगी धूम मच जायेगी और मैं हमारे लिए वो सारी ख़ुशियाँ इकट्ठी कर लूँगा जिनके सपने हमने देखे थे। यहाँ आने पर खुराना साहब ने कहा कि कहानी तो अच्छी है लेकिन व्यावसायिक सफ़लता के लिए कुछ बदलाव करने पड़ेंगे जो कि प्रोफेशनल लेखक भी करते हैं और उसमें मेरी मदद किरण करेगी। इसके चलते किरण के साथ काफ़ी उठना बैठना होने लगा। यह भी समझ आ रहा था कि उसका खुराना साब पर बहुत असर है। पहले सिर्फ चाहत थी सफलता की लेकिन फिर वो जुनून में बदल गई। एक दिन किरण के पापा ने मेरे सामने किरण से शादी का प्रस्ताव रखा, समझ ही नहीं आया कि क्या जवाब दूँ! मुझे डर था कि मना करने पर ऐसा न हो वो मेरी किताब न छापें और ये भी हो सकता था कि वो मेरी इमेज को नुकसान पहुँचा दें और फिर कोई पब्लिकेशन मेरी किताब को आँख उठा कर भी न देखे और ऐसे शुरू हुआ एक के बाद एक तुमसे और किरण से भी झूठ कहने का सिलसिला। वो ऐसा समय था निशा जब मेरे लिए सफ़लता सबसे महत्वपूर्ण थी और मैंने उसे चुना मगर आज..." कहते हुए तुम रुक गए। मैंने सवालिया नज़रों से तुम्हें देखा तो तुमने नज़रें नीची कीं और बोले। "आज मैं सफल होने के बाद भी अधूरा हूँ, और जानती हो क्यों?" मैं समझ रही थी आगे क्या कहने वाले हो लेकिन इतने सालों से मन के भाव छुपाते हुए अब चेहरे को निर्भाव रखना सीख गई थी। "मैं वापस आना चाहता हूँ, तुम्हारे पास... मुझे हमेशा यह एहसास रहा है कि मैं किरण से प्यार नहीं करता, प्यार तो मैंने तुमसे ही..." अभी तुमने अपनी बात ख़त्म भी नहीं की थी कि डोरबेल की आवाज़ आई। तुलसा ने दरवाज़े की ओट से देखा और वापस आकर बताया कि तुम्हारी गाड़ी आ गई है। तुमने एक बार फिर उसी आशा से मेरी ओर देखा जैसे 7 साल पहले कॉलेज में प्रेम का प्रस्ताव रखते हुए देखा था। मैंने आँखें मूँदी और और फिर खड़ी हो गई। तुम अब भी मेरे जवाब के इंतज़ार में बैठे थे। कुछ देर रुक मैं बोली।
"आपसे मिलकर बहुत ख़ुशी हुई, अगर आज आपके आतिथ्य में कोई कमी रह गई हो तो माफ़ कीजियेगा। आशा करती हूँ आपका और किरण का आगे का जीवन सुखमय होगा।" मैं औपचारिकता से बोली, तुम मेरी तरफ़ हैरानी से देख रहे थे कि अचानक क्या हुआ मुझे! मैं सब सुनने के बाद भी इस तरह से क्यों बोल रही हूँ! इसका यकीन तो मुझे भी नहीं हुआ कि जो मैं बोल रही थी तुमसे मिलने के बाद कभी बोल पाऊँगी।
“उस दिन क्रॉसवर्ड पर तुम्हारी किताब की रीडिंग थी तब सबसे पीछे बैठ कर सुनी थी मैंने। “निशदिन”, 6 साल में यह तुम्हारी तीसरी किताब है और वो भी बेस्टसेलर मगर हर कहानी में एक ही किरदार ‘निशा’। मैं जानती थी कि कहीं कुछ अटका हुआ है, मैं भी तो वैसी ही अटकी थी। यूँ शादी वाले दिन तुम्हारे वहाँ से चले आने के बाद जो बातें हुईं, बाबूजी सह नहीं पाए और १ महीने बाद हम सबको छोड़ कर चले गये। उनके बाद २ साल तक माँ भी बस नाम के लिए जिंदा थीं। मुझे चुप देखतीं तो अकेले में आँसू बहातीं, बाबा के बारे में सोचतीं तो तुम्हें कोसतीं। मैं उनसे कहती, जो अपना नहीं उसे कोस कर क्यों अपना मन मैला करना और ऐसे ही एक दिन वो भी चली गईं। मैं अकेली उस शहर में अपनी ही जड़ों को ख़त्म होते देख रही थी। कहीं न कहीं मैं भी उखड़ने लगी थी। अकेलेपन ने कलम पकड़ा दी और जो अब तक का जीवन जिया था काग़जों पर उतार दिया। किसी दोस्त के हाथ पाण्डुलिपि लग गई तो उसने यहाँ भेज दी और किस्मत की बात कि अगले ही हफ्ते फोन आ गया कि वो मेरी किताब छाप रहे हैं। तब तक बिलकुल नहीं सोचा था कि इसके बाज़ार में आने के बाद तुम्हारे साथ कोई मुलाकात होगी लेकिन उस दिन क्रॉसवर्ड में तुम्हारी कहानी का वो हिस्सा जो तुमने अभी अभी मेरे सामने दोबारा पढ़ा, उसे सुन कर ऐसा लगा कि मेरा पक्ष भी तुम्हें मालूम होना चाहिए। जानती थी कि मेरी एक झलक देखने के बाद तुम ज़रूर आओगे और वैसा ही हुआ भी। आज तुम यहाँ हो, मेरे सामने। सोचती थी कि जब तुमसे मिलूंगी तो ऐसा करुँगी वैसा करुँगी, बहुत गुस्सा था मेरे अंदर तुम्हारे प्रति, जाने क्या क्या सोच कर बैठी थी कि जब तुम मिलोगे तो खूब खरी-खोटी सुनाऊँगी, ज़लील करूँगी लेकिन आज तुमसे सब सुनने के बाद कुछ एहसास ही नहीं हो रहा है! लग ही नहीं रहा है कि कभी तुम मेरी ज़िंदगी में थे भी।” मेरी बात सुन तुमने मुझे यूँ देखा जैसे किसी ने तुम्हें ऊँचाई से धकेल दिया हो। मैंने खुद को यूँ देखते हुए तुम्हें देखा तो बात ख़त्म करने के उद्देश्य से मैं आगे बोली।
"रवि, तुम वो रवि नहीं हो जिससे मुझे सफ़ाई चाहिए थी। वो तो 6 साल पहले ही खो गया था! आज तुमसे मिलकर यह जाना कि कहीं न कहीं मैं सही थी! वो रवि जिससे मैंने प्यार किया था अब कभी वापस नहीं लौटेगा और मुझे उसकी वापसी की कोई उम्मीद भी नहीं है। हाँ दुआ ज़रूर है कि वो जहाँ भी रहे, ख़ुश रहे और अपनी ज़िंदगी में उस ऊँचाई को पाये जिसके लिए उसने अपनी नींव को भुला दिया। जिस तरह अजनबी बन, अनजानेपन से यहाँ आये थे वैसे ही चले भी जाओ रवि, हम एक दूसरे की ज़िंदगी के बीते हुए हिस्से हैं जो कभी एक दूसरे का भविष्य नहीं बनेंगे, हाँ कभी-कभी आज की तरह वर्तमान में यादें बन याद आ जाते हैं लेकिन यादें ज़िंदगी तो नहीं होतीं! तुम्हारे जीवन का सत्य अब किरण है और इतनी उम्मीद तो कर ही सकती हूँ तुमसे कि तुम अतीत को दोहराओगे नहीं। याद रखना सफ़लताएँ क्षणिक होती हैं लेकिन रिश्ते जीवन को निभाते हैं। जाओ अब, घर पर सब तुम्हारा इंतजार कर रहे होंगे, अलविदा।"
"अलविदा! इसका क्या मतलब है?"
"लेखक हो! क्या जानते नहीं कि अलविदा का क्या मतलब होता है? अलविदा का मतलब हम अब कभी नहीं मिलेंगे। मैं तुमसे अब कभी नहीं मिलना चाहती।"
"लेकिन निशा? मैंने जो किया मैं जानता हूँ कि उसके लिए मुझे माफ़ नहीं कर सकती लेकिन बस एक दूसरा मौका!”
"दूसरे मौके का वक़्त निकल चुका है रवि, सुबह का भूला शाम को लौटे तो उसे भूला नहीं कहते लेकिन यहाँ तो तुम्हें बरस बीत चुके हैं। अब लौटने का न तो कोई औचित्य है और न ही यह सही है। मुझे अपनी बात कहनी थी और मैं वो कह चुकी हूँ, बस अब इससे आगे कुछ नहीं कहना चाहती।" मैंने नरमाहट से कहा और हाथ जोड़ लिए, तुमने निराशा में नज़रें नीची कर लीं और बाहर जाने को चल दिए, तुम्हारे एक कदम पीछे ही मैं थी। दरवाज़े पर तुलसा ने अन्दर से एक पैकेट लाकर तुम्हें दिया जिसमें तुम्हारे कपड़े थे। तुमने उसे हाथ में लिया और गाड़ी की तरफ़ बढ़ गए, गाड़ी मैं बैठते समय एक बार पलटे, शायद यही देखने कि मैं अब भी वहाँ हूँ या नहीं, मुझे दरवाज़े पर खड़ा देख तुम बेबसी से मुस्कुराये और गाड़ी में बैठ ही रहे थे कि पैकेट में से कुछ गिरा, तुमने झुक कर देखा तो वही नीला पत्थर था जिस पर तुमने मुझे बरसों पहले “निशदिन” तराश कर दिया था। तुमने उसे उठाया, अपने कुर्ते की जेब में डाला और चले गए। मैंने तुलसा से दरवाज़ा बंद करने को कहा और अपने कमरे में आकर लेट गई। आँखों में नींद भरने लगी थी, 6 साल बाद आज फिर वैसी ही नींद आ रही थी जैसे माँ की गोद में लोरी सुनकर आती थी। जिस कहानी को तुम एक अंधे मोड़ पर छोड़ गए थे आज मैंने उसे आगे बढ़ने का रास्ता दे दिया था, उसका आखिरी पन्ना लिख दिया था। शायद मेरी इस कहानी को मंज़िल मिल गई थी लेकिन, हर कहानी को यूँ आसानी से मंज़िलें मिलना नसीब नहीं होता।

