Nehha Surana Bhandari

Drama

5.0  

Nehha Surana Bhandari

Drama

मॉर्निंग वॉक

मॉर्निंग वॉक

3 mins
640


“चल उठ जा,” कहते हुए माँ मेरे कमरे के पर्दे हटाने लगी। आँखे मींच कर करवट बदल, “बस ५ मिनट...” कहकर मैं फिर से सो ज़ाती, इतने में मेरे नाना कमरे में आते, “अरे बिटिया अभी तक सो रही है, माॅर्निंग वॉक पर नहीं जाना? “

“आज प्लीज़ मुझे सोने दीजिए, कल चलूँगी पक्का आपके साथ।” हंसते हुए कहते, “नहीं नहीं चल उठ जा, मैं बाहर इन्तज़ार कर रहा हूँ, आज तेरी मुलाक़ात कुछ बहुत ही उम्दा लोगों से कराऊँगा।”

ये सुनकर, अँगड़ायी लेते हुए मैं उठी, चमकता हुआ सूरज देख गहरी साँस ली और मुस्कुरायी। 65 साल के मेरे नाना, बाहर अपना एनक लगाए, गले में क्रवैट पहने मेरा इन्तज़ार कर रहे थे। उनके जूते बिल्कुल उनकी हँसी की तरह चमक रहे थे।

मेरी तरफ़ देखते हुए बोले, “चले? “ मैं हँस पड़ी और बोली, “हाँ चलिये।” और अपनी कहानी भी शुरू करे

कह सकती हूँ, इसी मॉर्निंग वॉक ने मुझे गायत्री मंत्र से लेकर महाभारत तक सभी से मिलवाया।

कभी अब्दुल कलाम की नसीहतें तो कभी अटल जी की ‘ये अच्छी बात नहीं है’ से हंसाया। वो सुबह सफ़ाई करते कर्मचारी उस्मान चाचा मुझसे बोलते, “कैसी हो बिटिया?” तो कहीं मेरे हम उम्र मुझसे कदम मिलाते।

वो खुली हवा में साँस लेने का मज़ा ही अलग था।


मुझे याद है हमारी वॉक हनुमान मंदिर पर ख़त्म होती थी, जहाँ एक बड़ा बेसन का लड्डू मेरा हर रोज़ इन्तजार करता। मेरे हाथों में ‘हरी ॐ’ बोलते हुए पंडितजी रखा करते और मैं बड़े चाव से खाती।

जाते वक्त अख़बार पड़ते हुए मेरे नाना जैसे कई बुजुर्ग दिखाई देते। घर के बाहर पीपल के पेड़ के नीचे ठहाके लगाते हुए Good morning uncle कहते हुए मैं भी कुछ देर उनके साथ बैठ ज़ाया करती। कभी सरकारी जुमले सुनती तो आजकल कौनसा अभिनेता धूम मचा रहा है ये बताती।

कभी कोई मेरी पढ़ाई के बारे में पूछता तो कोई मेरे डॉक्टर नाना से अपनी नब्ज़ गिनवाता और बस ऐसे ही सूरज पूरा निकल आता...

कही चिड़ियों की चहचहाहट, तो कोई कबूतरों को धान दे रहा होता... सबके दरवाज़े खुलने लगते और ज़िंदगी शुरू होने लगती।


आज सालों बाद मैं उसी सड़क पर फिर से निकली मॉर्निंग वॉक के लिए, अकेली नहीं नाना का साया साथ था। आज उस्मान चाचा की जगह सफ़ाई करने वाली ट्रक ने लेलि थी, काम तो वैसा ही करती थी, पर मेरी तरफ़ देख मुस्कुराती नहीं थी, आज रास्ता कुछ  ज़्यादा लम्बा लग रहा था शायद ठहाकों और कहानियों की कमी थी।


मैं मंदिर पहुँची, इधर उधर देखा पंडितजी नज़र नहीं आए, फिर एक कोने से आवाज़ आयी, “कैसी हो बिटिया, बड़े दिनों बाद आयी?” उनकी सफ़ेद दाढ़ी ने चेहरा भले ही छुपा दिया हो, पर माथे पर अभी भी वो केसरिया तिलक वैसे ही चमक रहा था।


मैं बोल पड़ी... “हाँ पंडित साहब, आजकल बाहर पढ़ती हूँ इसलिए नहीं आ पाती।” फिर अटखेलियाँ करती हुए बोल पड़ी, “आज मेरा लड्डू किधर है?” वो अपनी लुभाती हँसी से बोले, “हाथ आगे कर, हरी ॐ,” और मेरी हथेली पर वही सौंधा सा मीठा रख दिया।


“पंडित साहब लड्डू का आकर छोटा हो गया?” वो हंस पड़े और बोले क्या करे बिटिया मीठे की बीमारी जो बड़ी हो गयी!!!


मंदिर से निकल जब जा रही थी, तो कुछ अलग सा महसूस हो रहा था। आज वो पगडंडी ख़ाली नज़र आ रही थी जहा सुबह सुबह जमघट लगा  रहता था। कुछ लोग ज़रूर दिखे अपने मोबाइल में झांकते हुए, पर मैं पहचान नहीं पायी क्यूँकि शक्ल जो नहीं देख पायी।


आज दरवाज़े अभी भी बंद थे, कैसे खुलते? AC ने कस कर जो बांध रखे थे। आज हँसी की जगह हॉर्न सुनायी पड़ता था, और प्यारी सी मुठभेड़ों की जगह सन्नाटे ने ले ली थी। आज सड़के तो बहुत साफ़ थी, पर शायद कुछ अल्फ़ाज़ों को तरसती थी।


वहीं पड़ी तनहा बेंच पर मैं बैठ गयी, आँखें मूँद कर वो साइकल की घंटियाँ, बुजुर्गों के ठहाके, अख़बार की आवाज़ और चाय की ख़ुश्बू महसूस करने लगी... आँख खोली तो सिर्फ़ मैं थी, सामने देखा तो ज़िंदगी शुरू हो गयी थी... या शायद खो गयी थी!!


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