मोर्निंग वॉक

मोर्निंग वॉक

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“चल उठ जा”, कहते हुए माँ मेरे कमरे के पर्दे हटाने लगीआँखे मींच कर करवट बदल, बस ५ मिनट कहकर मैं फिर से सो गयी इतने में मेरे नाना कमरे में आए, “अरे बिटिया अभी तक सो रही है, मोर्निंग वॉक पर नहीं जाना?”

"आज प्लीज़ मुझे सोने दीजिए, कल चलूँगी पक्का आपके साथ" नाना जी मेरी तरफ़ आते हुए बोले “नहीं नहीं चल उठ जा, मैं बाहर इन्तज़ार  कर रहा हूँ, आज तेरी मुलाक़ात कुछ बहुत ही उम्दा लोगों से कराऊँगा।”

ये सुनकर, अँगड़ायी लेते हुए मैं उठी, चमकता हुआ सूरज देख गहरी साँस ली और मुस्कुरायी65 साल के मेरे नाना, बाहर अपना एनक लगाए, गले में क्रवैट पहने मेरा इन्तज़ार कर रहे थेउनके जूते बिलकुल उनकी हँसी की तरह चमक रहे थे मेरी तरफ़ देखते हुए बोले.. चलें ?

मैं हँस पड़ी और बोली "हाँ चलिये, और अपनी कहानी भी शुरू करें।" कह सकती हूँ, इसी मॉर्निंग वॉक ने मुझे गायत्री मंत्र से लेकर महाभारत तक, सभी से मिलवायाकभी अब्दुल कलाम की नसीहतें तो कभी अटल जी की ‘ये अच्छी बात नहीं है’ से हंसाया


सुबह सफ़ाई करते कर्मचारी उस्मान चाचा मुझसे बोलते, कैसी हो बिटिया?, तो कई मेरे हम उम्र मुझसे कदम मिलाते, उस खुली हवा में साँस लेने का मज़ा ही अलग था। मुझे याद है हमारी वॉक हनुमान मंदिर पर ख़त्म होती थी, जहाँ एक बड़ा बेसन का लड्डू मेरा हर रोज़ इंतज़ार करता, मेरे हाथों में हरी ओम् बोलते हुए पंडितजी रखा करते और मैं बड़े चाव से खातीजाते वक्त अख़बार पढ़ते हुए मेरे नाना जैसे कई बुजुर्ग दिखाई देते, घर के बाहर पीपल के पेड़ के नीचे ठहाके लगाते हुए"गुड मोर्निंग अंकल" कहते हुए मैं भी कुछ देर उनके साथ बैठ जाया करती कभी सरकारी जुमले सुनती तो कभी आजकल कौन सा अभिनेता धूम मचा रहा है ये बताती

कभी कोई मेरी पढ़ाई के बारे में पूछता तो कोई मेरे डॉक्टर नाना से अपनी नब्ज़ गिनवाता, और बस ऐसे ही सूरज पूरा निकल आताकहीं चिड़ियों की चहचहाहट, तो कोई कबूतरों को दाना दे रहा होता... सबके दरवाज़े खुलने लगते और ज़िंदगी शुरू होने लगती।


आज सालों बाद मैं उसी सड़क पर फ़िर से निकली मॉर्निंग वॉक के लिए, अकेली नहीं, नाना जी का साया साथ था, आज उस्मान चाचा की जगह सफ़ाई करने वाली ट्रक ने ले ली थी, काम तो वैसा ही करती थी, पर मेरी तरफ़ देख मुस्कुराती नहीं थी, आज रास्ता कुछ ज़्यादा लम्बा लग रहा था शायद ठहाकों और कहानियों की कमी थी


मैं मंदिर पहुँची, इधर उधर देखा पंडितजी नज़र नहीं आए, फिर एक कोने से आवाज़ आयी," कैसी हो बिटिया, बड़े दिनो बाद आयी? उनकी सफ़ेद डाढ़ी ने चेहरा भले ही छुपा दिया हो, पर माथे पर अभी भी वो केसरिया तिलक वैसे ही चमक रहा था

मैं बोल पड़ी.. "हाँ पंडित साहब, आजकल बाहर पढ़ती हूँ इसलिए नहीं आ पाती।" फिर अटखेलियाँ करती हुए बोल पड़ी, आज मेरा लड्डू किधर है, वो अपनी लुभाती हँसी से बोले ‘हाथ आगे कर’, “हरी ॐ” और मेरी हथेली पर वही सौंधा सा मीठा लड्डू रख दिया

"पंडित साहब लड्डू का आकर छोटा हो गया?"

वो हंस पड़े और बोले "क्या करें बिटिया मीठे की बीमारी जो बड़ी हो गई!"


मंदिर से निकल कर जब जा रही थी, तो कुछ अलग सा महसूस हो रहा था, आज वो पगडंडी ख़ाली नज़र आ रही थी जहाँ सुबह सुबह जमघट लगा रहता था, कुछ लोग ज़रूर दिखे अपने मोबाइल में झांकते हुए, पर मैं पहचान नहीं पाई क्यूँकि शक्ल जो नहीं देख पाई।आज दरवाज़े अभी भी बंद थे, कैसे खुलते? AC ने कस कर जो बांध रखे था ।

आज हँसी की जगह हॉर्न सुनायी पड़ती थी, और प्यारी सी मुठभेड़ों की जगह सन्नाटे ने ले ली थीआज सड़कें तो साफ़ थीं पर कुछ अल्फाजों को तरसती थीं

वहीँ पड़ी तन्हा बेंच पर मैं बैठ गयी, आँखे मूँद कर वो साइकल की घंटियाँ, बुजुर्गों के ठहाके, अख़बार की आवाज़ और चाय की ख़ुश्बू महसूस करने लगी...

आँखें खोली तो सिर्फ़ मैं थी, सामने देखा तो ज़िंदगी शुरू हो गयी थी..... या शायद खो गयी थी!!



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