मनुष्य का धर्म।
मनुष्य का धर्म।
एक बहुत पुरानी बात है कि एक मंदिर में बहुत से लोग जाया करते थे। दूर-दूर देशों के मनुष्य भी उस में आते थे। वहां का पुजारी जो था वह बहुत ही ज्ञानवान था, समझदार था और वह ईश्वर से मिला हुआ था। पीछे से वह कहा करता था कि फलां की सेवा स्वीकार हुई ऐसी प्रेरणा उसको अंतर से होती थी।
एक बार बहुत बड़ा मेला लगा था। बहुत से दर्शनार्थी वहां जमा हुए। पीछे से जब वह खड़े होकर कहने लगे और नाम बतलाया कि फलां भक्तों की सेवा स्वीकार हुई, ईश्वर उससे प्रसन्न है। लोगों ने उस आदमी को बहुत तलाश किया मगर वहां ना था। लोगों ने उस आदमी को बहुत तलाश किया मगर वह वहां था नहीं। बहुत तलाश किया लोगों ने एक दूसरे से पूछा भाई !
वह भक्त कौन सा है। जिस पर ईश्वर प्रसन्न हुआ और उसकी सेवा स्वीकार हुई है। बहुत तलाशा गया लेकिन नहीं मिला। वहां उसका पूरा नाम बताते थे, स्थान बताते थे, तो बहुत से लोग उसके स्थान पर चल दिए कि उसका दर्शन करें। वह ऐसा है कि उसे ईश्वर ने स्वीकार किया है। उसके घर गए और उससे पूछा कि महाराज आपने कैसे सेवा की थी ईश्वर की। क्या उसके लिए आप करते थे ? क्यों वह प्रसन्न हुए ?जरा हमें भी तो बतलाइए।
वह बहुत गरीब आदमी था, दिन भर मजदूरी करके अपने घरवालों का पेट भरता था। वह बड़ा दुखी हुआ, कहने लगा, मैंने तो कोई सेवा नहीं की और मैं तो उनके दर्शन के लिए भी नहीं गया। उन लोगों ने फिर पूछा कि कुछ तो बताइए।
वह कहने लगा "क्या बताऊं "!मैंने निश्चय किया था कि 15 दिनों की मजदूरी जो मिलेगी उसी से वहां दर्शनों को जाऊंगा। वह मजदूरी जो थी उसे मैंने इकट्ठी की लेकिन एक आदमी जिसे किसी कर्जदार ने बंधन में डाल रखा था और उसे वह बड़ा तंग कर रहा था किसी तरह से चैन नहीं लेने देता था, उसे अपशब्द कहता था। मुझे उसकी दशा पर दया आ गई और मैंने वह रुपया उसे दे दिया। उसने कर्जदार को चुकता कर दिया और वह कर्ज से मुक्त हो गया। मुझे उसी दिन रात्रि में ऐसा स्वप्न भी हुआ था की परमात्मा कह रहे हैं कि हमें तेरी सेवा स्वीकार है। तूने संसार के एक प्राणी को मुक्त किया है, मैं तुझे संसार से मुक्त करता हूं। मैं तुझे इस भवसागर से मुक्त करता हूं।