मेरी डायरी से...

मेरी डायरी से...

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दिल्ली विश्वविद्यालय के कई कॉलेजों से थक हारने के बाद मैंने सत्यवती महाविद्यालय में अपना प्रवेश करवाया।

कुछ दिन कॉलेज आने के बाद मन ऐसा हो गया था कि अब मैं कॉलेज नहीं आऊंगा, इसी बीच मेरा ध्यान ‘छात्र यूनियन संघ’ के नारों की आवाज़ मेरे कानों तक पहुँची। सभी छात्र आकाश यादव, आकाश यादव नाम के नारे लगा रहे थे।

इसी शोर में, मैं भी शामिल होने अपनी हिंदी(विशेष) की कक्षा से नीचे आ पहुँचा। जैसे ही मैं नीचे आया सभी छात्र कहीं और चले गए थे और अब कॉलेज में चारों तरफ़ शांति का वातावरण छा गया था।

अगले दिन जब मैंने कॉलेज में प्रवेश किया तो सत्यवती महाविद्यालय के 'सूचना पट्ट’  पर कई सूचनाएं लगी हुई थी, उन्हीं सूचनाओं में से एक सूचना पर मेरा ध्यान गया। वह सूचना थी कि ‘अमिताभ बच्चन’ की 1970 में बनी फ़िल्म 'दीवार' पर चर्चा-परिचर्चा दिल्ली विश्वविद्यालय के करोड़ीमल महाविद्यालय के सभागार में होने वाली है।

करोड़ीमल कॉलेज का नाम बहुत सुना था शायद इसलिए कि अमिताभ साहब का नाम इस महाविद्यालय से जुड़ा था।

इसलिए मैं उसी समय करोड़ीमल महाविद्यालय पहुँचा लेकिन मैं कार्यक्रम के समय से पहले पहुँच गया था। समय का सदुपयोग करने के लिए मैंने कॉलेज का भ्रमण किया और भ्रमण करने के पश्चात मैंने मन ही मन सत्यवती महाविद्यालय की तुलना करोड़ीमल महाविद्यालय से कर डाली। कुछ और दोष-गुण निकलता तभी जिस कार्य के लिए मैं यहाँ आया था, उसका समय हो गया था।

मैं सभागार में जाकर बैठ गया,कुछ समय बाद विभिन्न कॉलेज के छात्र वहाँ पहुंच गए थे। सभी ने अपना स्थान ग्रहण कर लिया था और कार्यक्रम शुरू होने की बड़ी बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे थे।

अब कार्यक्रम शुरू हो चुका था। सर्वप्रथम हमें 'सत्यवती वंदना' सुनाई गई। जिन छात्रों ने वंदना सुनाई थी उनकी आवाज़ इतनी मधुर और लयात्मक थी कि मैं उनकी कही हुई पंक्तियों को मन ही मन बार-बार दोहराए जा रहा था। वंदना ख़त्म होने के बाद हमें  'दीवार'  फ़िल्म दिखाई गई जो  "70 के दशक"  की फ़िल्म थी।

फ़िल्म ख़त्म होने के पश्चात कई सवाल मष्तिक में समाए हुए थे। उसमें से एक सवाल था कि हमें ये फ़िल्म क्यों दिखाई गई है?

फिर मैंने सोचा कि हर कार्य के पीछे कुछ उद्देश्य होता हे। फ़िल्म दिखाने के पीछे भी कोई लक्ष्य, उद्देश्य होगा लेकिन मैं उस लक्ष्य और उद्देश्य को समझ नहीं पाया था।

फ़िल्म पर चर्चा-परिचर्चा के लिए करोड़ीमल महाविद्यालय ने 'इग्नू' से ‘जितेंद्र श्रीवास्तव जी’ को वक़्ता के रूप में आमंत्रित किया हुआ था।

जितेन्द्र श्रीवास्तव जी ने हमें बताया कि अमिताभ की 6 फिल्में  फ्लॉप होने के बाद उनकी 'दीवार' फ़िल्म 70 के दशक की सबसे लोकप्रिय फ़िल्म बन गई थी और इसी फ़िल्म ने एक ऐसे अभिनेता को जन्म दिया जिसने कभी ये नहीं सोचा होगा कि लगातार 6 फ़िल्मों के फ़्लॉप होने के बाद कोई छोटा-मोटा कलाकार आज इतना बड़ा 'अभिनेता' बन जायेगा।

अमिताभ ने खुद कहा है कि मैं अपनी हार को भी अपनी जीत समझता हूं क्योंकि हारने वाला इंसान ही जीत की कोशिश करता है।

मैं थोड़ा खुश न था कुछ दिनों से, कारण कई थे।लेकिन फ़िल्म को देखने के बाद और उसके पीछे का जो इतिहास रहा उसे जानने के बाद निराशा में आशा का संचार हो गया था और अब मन बहुत हल्का और सुकून महसूस कर रहा था।

सभागार से बाहर निकलते वक़्त मैंने देखा कि करोड़ीमल महाविद्यालय के N.S.S के छात्र छोटे-छोटे बच्चों को साथ लेकर आ रहे थे।

मष्तिक में फिर प्रश्न उठा की ये बच्चे यहाँ क्या कर रहे हैं? इन्हें यहाँ क्यों लाया गया है, उत्तर पाने के लिए मैंने एक N.S.S के छात्र से पूछा, तो जवाब मिला कि हम रोज कॉलेज के आस-पास जो झुग्गी-झोपड़ियाँ हैं, वहाँ से उन बच्चों को यहाँ पढ़ाने लाते हैं, जो बच्चे स्कूल नहीं जाते तथा जिनके माँ-बाप आर्थिक कारण के चलते अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेज पाते, पढ़ा नहीं पाते। उन बच्चों को हम क्लास खत्म होने के बाद यहाँ उन्हें पढ़ाते हैं। दिल बहुत खुश हुआ जब मैंने उत्तर सुना।

अब मन कर रहा था कि उन छोटे बच्चों को पढ़ते हुए देखूं, फिर मैं भी उनके पीछे चल दिया। वो सब बच्चों को बास्केट बॉल कॉर्ट में पढ़ाते थे। मैं भी बच्चों से थोड़ी दूर बैठ गया और देखने लगा कि यह सब बच्चों को कैसे पढ़ाते हैं। जब सभी बच्चे पढ़ रहे थे तो चारों तऱफ शांति का वातावरण था। मैं थोड़ा हैरान था कि सभी बच्चे कितनी शांति से पढ़ रहे हैं।

अब सब जगह शांति थी कहीं कोई हल-चल नहीं हो रही थी। फिर मैं भी बैठे-बैठे बोर होने लगा और उठकर बास्केट बॉल कोर्ट की सीढ़ियों पर जाकर बैठ गया और कुछ लिखने की कोशिश में लग गया। काफ़ी समय हो गया था सोचते-सोचते की क्या लिखूं लेकिन कुछ सूझ नहीं रहा था।

 तभी...बास्केट बॉल की धप्प-धप्प की आवाज़ मेरा ध्यान अपनी और खींचती है और मैं देखता हूं कि एक छोटी-सी लड़की शायद क़रीब पांच-छह साल की होगी, हाथों में बास्केट बॉल लिए और पूरे मंजे हुए खिलाड़ी की तरह बॉल को ज़मीन पर पटकती है और बॉल को बास्केट में डालने के लिए बिल्कुल विपरीत अंदाज में ऊपर उछालती है।

बॉल कभी आधी दूरी से वापस लौट आती तो कभी बास्केट के बग़ल में लगकर रह जाती और कभी 90 डिग्री का कोण बनाती हुई वापस उसके सर पर ठप्प से गिर जाती। लड़की का प्रयास निरंतर जारी रहा और मैं भी उसे एकटक देखे जा रहा था। काफी समय बीत गया लेकिन...

बॉल बास्केट के इधर-उधर से गुजरती हुई नीचे गिर जाती लेकिन लड़की का प्रयास जारी रहा। आखिरकार उसकी कोशिश रंग लाई और इस बार बास्केट हार गई और बॉल उसके अंदर से गुजरती हुई नीचे आई, और साथ में लाई उस लड़की के चेहरे-पे मुस्कान और मेरे लिए एक संदेश कि मेहनत करते हुए कई बार हमारे हाथ सिर्फ असफलता आती है और मेहनत के बाद जब सफ़लता मिलती है उस आनंद कि कोई परिभाषा नहीं हो सकती। बस उसे महसूस किया जा सकता है, बस जरूरत है एक कोशिश की और कहा भी गया है...लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती और कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।


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