मेरा आना
मेरा आना
जीवन में कोई साथ दे ना दे अच्छे मित्र हमेशा साथ देते हैं।
कुछ मन के बहुत पास होते हैं और कुछ सिर्फ कुछ समय के लिए। अपना शहर छोड़ कर जब हम इस शहर में आए तो सोचा भाषा अलग होने के कारण कोई मित्र बन भी पाएंगे।
जब मैंने स्कूल में अध्यापिका का कार्यभार संभाला तो बहुत मुश्किलों का सामना किया। आज तक मुझे किसी ने ऊँची आवाज में बिना गलती किए कुछ नहीं कहा था। माँ से डाँट जरूर पढ़ती थी। लेकिन तिरस्कार नहीं। यहाँ तो उच्च पद वालों के मिज़ाज ही अलग थे। अपना रोब दिखाना । बात -बात पर हमारी ग़लतियाँ गिनवाना, लगता था उनका मुख्य कार्य यही है। मैं भी हर रोज आँसू लिए जब ऑफिस से बाहर आती तो सोचती इस बार काम छोड़ दूँगी। लेकिन एक ऐसी मित्र मिली जिसने अपना कंधा दिया और मुझे समझाया कि यह तो होता ही रहता है। प्यार से समझाया कि इन बातों का बुरा ना मानो और अपने काम पर ध्यान दो ।जो अच्छी बातें हैं उन्हें सीखो बाकी छोड़ दो।
सच में एक अच्छा मित्र ही हमें अच्छी सलाह दे सकता है। यूँ ही चलता रहा सिलसिला। 2 साल हम इकट्ठे रहे और बाद में मैं उसी स्कूल में काम करती रही और वह त्यागपत्र देकर चली गई।
उन दिनों फोन करने का इतना शौक नहीं था मुझे। इसलिए अक्सर सबसे दूर हो जाती थी। आदत तो आज भी वैसी ही है। लेकिन जो मेरे करीब है वह मुझे पहचानते हैं और जानते हैं कि चाहे मैं मिलूँ या ना मिलूँ हमेशा सब मेरे दिल के करीब रहते हैं।
अक्सर मेरी मित्र ही मुझे फोन कर हाल-चाल पूछ लेती थी। मैं भी हाल-चाल पूछ कर कुछ समय बातें करती थी। कई साल तक यही सिलसिला चलता रहा। कभी वह कुछ बात करती कभी-कभी मैं भी फोन कर लेती।
अचानक एक दिन शनिवार को उसका फोन आया तो उसने मुझे खूब डाँट पिलाई। हालांकि वह मेरी वह पक्की वाली सहेली नहीं थी। लेकिन उसके स्वभाव और भोलेपन के कारण मैं हमेशा उसे एक अच्छा मित्र मानती थी। इसीलिए उसकी डाँट हंसते -हंसते झेल ली। मुझे धमकाते हुए उसने कहा हर बार आती हूँ, आती हूँ कहकर इतना समय बीत गया है। एक दिन भी नहीं आई। उसका घर बहुत अंदर था जहाँ पर बस नहीं आती थी और मुझे इतनी दूर तक स्कूटी चलाने में थोड़ा डर लगता था। इसीलिए वादा कर कर भी तोड़ना पड़ता था। लेकिन आज डाँट सुन कर लगा अब तो जाना ही पड़ेगा। मैंने वादा किया कि अगले हफ्ते शनिवार को जरूर आऊँगी। बस थोड़ी यहाँ- वहाँ की बातें कर फोन रख दिया और सोचा चाहे कुछ भी हो जाए इस बार शनिवार को जरूर जाऊँगी। रविवार के सारे कामकाज पूरे कर मन में बना कर कि शनिवार को जरूर जाना है सोमवार के दिन काम पर पहुँच गई । लंच ब्रेक के बाद खाली पीरियड में अचानक मेरी सहकर्मी ने आकर कहा आज शाम को शोक सभा में जाना है। मैंने पूछा किसकी मृत्यु हो गई। तो उसने उसी मित्र का नाम लेते हुए कहा उसके पति और ससुर की एक कार दुर्घटना में मृत्यु हो गई है। अचानक ऐसे लगा जैसे आसमान जमीन पर आ गया और मैं उसके नीचे दब गई थी। भरे मन से शाम को उसके घर सबके साथ गई। किसी को दुख में देख कर उससे क्या कहूँ समझ में नहीं आता। जैसे ही कमरे में दाखिल हुई चारों ओर रुदन स्वर फैला हुआ था। सबसे गले मिलकर मेरे मित्र रो रहीं थी। अचानक जैसे ही मैं उसके सामने आई जोर-जोर से रोते हुए बोली- मैंने तुझे कितनी बार बुलाया लेकिन तुम नहीं आई और अब बुलाने पर आई हो तो ऐसे।
मैंने ऐसे आने को तो नहीं कहा था।
उसकी यह बात सुनते ही मेरी आँखों से झर -झर आँसू बहने लगे। उसके यह शब्द मुझे अंदर तक चीरते हुए निकल गए। सच में अपनी व्यस्तता या आलस के कारण हम अपनों से दूर हो जाते हैं। ऐसा नहीं करना चाहिए। कभी कबार समय निकालकर मिलते रहना चाहिए। ऐसा ना हो आपका आना बहुत देर कर दे।
