मधुमय पल

मधुमय पल

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पापा मम्मी मानों उन लोगों के समक्ष नत् ही हुए जा रहे थे अत: उनसे तो कुछ उम्मीद रखना बेकार ही था। उसे तो अपने ऊपर ही क्रोध आ रहा था कि इतना कुछ सोच कर रखने के बावजूद किसी से कुछ कह क्यों नहीं पा रही है। ऐसे में जब दिलीप की मम्मी ने कहा कि तुम दोनों यहाँ बड़ों में बैठ कर क्या कर रहे हो, जाओ कुछ देर लाॅन में घूम आओ, तो उसने चैन की साँस ली। यही सबसे अच्छा रहेगा !

इतनी देर से चुपचाप बैठ कर मुस्कुराते हुए इस इन्सान को तो वह ठीक से समझा ही लेगी कि वह अभी शादी नहीं करना चाहती सो आप लोग इन चाय समोसों और मिठाइयों का भोग लगाएँ और चलता हो जाएँ। बाहर आकर भी दिलीप चुप ही थे अतः उसी ने बात शुरु की "आप अपनी पत्नी से क्या अपेक्षा रखते है ?"

तोप के किसी गोले की तरह दगे इस प्रश्न से वह शायद थोड़ा सा हड़बड़ा से गए थे .... "समझदार होनी चाहिये, स्वभाव अच्छा हो.... सबके साथ मिक्सअप हो जाये...!"

"इन बातों का मतलब समझते हैं आप ? मुझे देखने आए हैं तो इसका मतलब पढ़ी-लिखी कामकाजी ... कमा के लाने वाली लड़की आपको चाहिये ! इसके अतिरिक्त उसे घर के सभी लोगों की नौकरानी की तरह सेवा करनी होगी। सबका खयाल रखे और हर जली कटी बर्दाश्त करती रहे तो उसे समझदार कहेंगें आप, पर अगर एक बार भी अपनी कोई तकलीफ उसके मुँह से निकल गई या अपने आप कोई डिसीज़न ले लिया तो फिर तो उसपर तुरंत तेज़.. खराब स्वभाव वाली... और भी न जाने क्या क्या का ठप्पा लगा दिया जाएगा!"

दीदी के असफल दाम्पत्य को देखकर उपजी मन की सारी कटुता एक बार में परोस देने में उसे जरा भी संकोच नहीं हुआ था। दिलीप समझ गए थे कि यह प्रश्न उनसे किसी हल्के फुल्के मूड में नहीं किया गया है अत: वह भी थोड़े गंभीर हो गए।

"सेवा" बड़े विस्तृत अर्थ हैं इस शब्द के ! इसके बिना तो हर कोई अकेला ही हो जाएगा ! सच कहिये तो किसी भी रिश्ते, समाज या व्यवस्था की धुरी होती है सेवा ! मम्मी पापा ने हमारा खयाल रखा, पाला पोसा तो वो एक अवश बच्चे की, या वृहद अर्थ में मानवता की सेवा है जिसने पूरे भविष्य की नींव डाल दी। उसके बाद अगर मुझे ऑफिस में लेट होते देखकर मेरी बहन मेरे कमरे में ही नाश्ता लाकर जबरदस्ती मेरे मुँह में जल्दी जल्दी कुछ खिला देने की कोशिश करती है तो उसे भी सेवा ही कहेंगे न ?

तब अगर पापा के दुखते पैरों को दबा कर मैं उन्हें कुछ आराम दे सकूँ, या जिंदगी भर मेरी हर सुविधा के लिये दौड़ती भागती मेरी मम्मी को मेरी पत्नी गर्म खाने की थाली परोस कर खिला दे तो इसमें कोई किसी का नौकर क्यों बन जाय ?

आप अगर ऑफिस में बाॅस की आज्ञानुसार काम करते हो तो उसे सेवा क्यों न कहें ? वहाँ अगर उस सेवा के एवज में वेतन मिलता है तो यहाँ प्यार सम्मान ! एक नये परिवार में जाने पर, उनके दिल में जगह बनाकर ही तो आप वहाँ स्वयं को स्थापित कर सकोगे ! जहाँ तक जली कटी सुनने और अपनी इच्छाओं को दबाने की बात है, मुझे लगता है कि साथ-साथ रहने के बावजूद भी परिवारों में असंवाद की स्थिति, गलतफहमियां, ढेर सारे काॅम्प्लिकेशन्स पैदा करती रहती है। बहुत सारी समस्याओं कोे केवल आपसी बातचीत, समर्पण और समझदारी से सुलझा लिया जा सकता है। हाँ, अगर समय रहते समाधान नहीं हो सका तभी वहाँ ये ढेर सारी कटुता पैदा होती है। .... इसके अलावा अक्सर थोड़े पेशंस की भी जरूरत होती है कि सामने वाला पक्ष भी तो इंसान ही है, उसमें भी क्रोध लोभ क्षमा प्यार सभी तरह की भावनाएँ हैं, अत: अगर कभी वह गुस्से में है तो उसका मूड नार्मल होने का इन्तज़ार कर लिया जाए पर कभी अगर महसूस हो कि आपके स्वाभिमान पर चोट हो रही है तो एक सशक्त सीमा रेखा भी खींचने की जरूरत पड़ेगी !

एक बात और, किसी भी तरह का सामंजस्य कुछ समय लेता है पर हम तो अब ई.एम.आई. पर आए फ्रिज टीवी की तरह लोगों के मन में मान इज्जत भी इंस्टैंट ढूँढने लगे हैं।" इतना लंबा लेक्चर सुन कर मन कड़वा सा हो गया था उसका ! "ये सारी बातें सिर्फ बहू के लिए ? उधर दामाद पहले दिन से ही वी आई पी ? सारा घर अपने आगे पीछे घूमता न मिला तो उसका मूड खराब ?"

कुछ सोंचते हुए दिलीप ने कहा, "शायद इसलिये कि वह कुछ समय के लिए आने वाला मेहमान सरीखा होता है ! परिवार का ऐसा नया सदस्य, जिसका साथ थोड़े ही समय को मिलेगा।"

"हुँह, कितने दामाद बेटे या परिवार के सदस्य जैसा बनने का प्रयास करते हैं ? उधर जिंदगी बिता देने के बाद भी कितनी बहुएँ बेटी का स्थान ले पाती हैन? दिल से दहेज की, और आजकल तो बहू की तनख्वाह की लालसा खत्म होती है कभी ?"

"हमेशा ऐसा ही नहीं होता.... फिर भी,"

दिलीप कुछ सोचते हुए बोले.... " हाँ, बहुत सारी कुरीतियाँ भी हैं समाज में, सोच में नुक्स भी है पर अगर हम समाज का हिस्सा हैं तो हम पर ही उसकी सफाई की जिम्मेदारी भी है। तो जरूरत पड़ने पर, सही ढंग से लड़ना भी होगा और अपनी अगली पीढ़ी को इन कमियों को दूर करने के लिए सुशिक्षित भी करना होगा। दहेज और कमाऊ बीवी की तनख्वाह के प्रश्न पर तो मुझे लगता है कि आज के माहौल में भौतिक सुखों के पीछे भागने की एक होड़ सी लगी हुई है कि पैसा रिश्तों से कहीं ज्यादा ताकतवर हो गया है। पर हम युवा हैं, समर्थ है, हमें ही इस बात को समझना होगा... समाज में आवश्यक बदलाव हमें ही लाना होगा ! जिम्मेदारियों बहुत बड़ी हैं, अकेले नहीं संभलेगा.... साथ दीजिएगा मेरा ?" अचानक आये इस प्रश्न से हड़बड़ा सी गयी थी वह... ".... मुझे डर लगता है शादी से... मैं अभी शादी नहीं करना चाहती..." दिलीप मुस्कुरा रहे थे.. "मैं इन्तज़ार कर लूँगा !" पता नहीं क्यों, उनके शब्द मन को छू रहे थे और उसके होंठों पर एक शर्माई सी मुस्कान सज गई थी।


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