मैं द्रोणाचार्य नहीं हूं…
मैं द्रोणाचार्य नहीं हूं…
“कामचोर कहीं का, मैंने तुझे काम करने भेजा था और तू यहां बैठा लकीरें खींच रहा है।” सुखराम की कर्कश आवाज़ सुनाई पड़ी।
सुखराम, गोपाल को बुरी तरह पीट रहा था। वह रो-रो कर कहे जा रहा था, “बापू, मत मारो मुझे। मैं अभी सारा काम करे डालता हूं।”
उन दोनों के चिल्लाने की आवाज़ सुन मास्टर दीनानाथ झल्लाते हुए उठ बैठे। यह रोज़- रोज़ का तमाशा हो गया था। सुखराम उनकी प्राइमरी पाठशाला में पिछले 20 वर्षों से झाडू लगा रहा था। पिछले दो वर्षों से वह बीमार रहने लगा था, इसलिए अपने बेटे गोपाल को काम पर भेजने लगा था।
किंतु गोपाल झाड़ू लगाने की बजाय इधर-उधर बैठा रहता, इसलिए सुखराम अक्सर उसकी पिटाई कर देता था। मास्टर दीनानाथ का क्वॉर्टर पाठशाला के भीतर ही था। इसलिए बाप-बेटे के चिल्लाने की आवाज़ें उनके कानों तक पहुंच जाती थी। इससे उन्हें बहुत उलझन होती थी। धीरे-धीरे वे भी गोपाल से चिढ़ने लगे थे।
पिछले महीने की बात है। वे कक्षा पांचवी में गणित पढ़ा रहे थे। तभी उन्हें लगा कि खिड़की के पीछे कोई खड़ा है। उन्होंने कड़कते हुए पूछा, “कौन है वहां?”
यह सुनते ही खिड़की के पीछे खड़ी आकृति भागी। उन्होंने कक्षा के बच्चों से चिल्लाते हुए कहा, “पकड़ो उसे, भागने न पाए।”
कई लड़के एक साथ दौड़ पड़े। थोड़ी ही देर में वे गोपाल को घसीटते हुए ले आए। लगता था कि वह गिर पड़ा था, क्योंकि उसकी कुहनियां छिल गई थीं और उनसे हल्का-हल्का खून बह रहा था।
उसे देखते ही मास्टर दीनानाथ ने डपटते हुए पूछा, “खिड़की के पीछे क्या कर रहा था?”
गोपाल ने कोई उत्तर नहीं दिया। उसका मौन देख मास्टर दीनानाथ का पारा चढ़ गया। उन्होनें चिल्लाते हुए कहा, “जल्दी बता, वहां क्या कर रहा था, वरना हाथ-पैर तोड़ दूंगा।”
“कुछ नहीं कर रहा था।” गोपाल ने सहमते हुए मुंह खोला।
“कुछ नहीं के बच्चे। मैं जानता हूं चोरी करने के लिए बच्चों का सामान ताक रहा होगा।” मास्टर दीनानाथ फट पड़े।
यह सुन गोपाल की आंखें छलछला आईं और वह भर्राए स्वर में बोला, “मास्टरजी, मैं चोर नहीं हूं।”
“चोर नहीं है, तो वहां क्या कर रहा था?” मास्टर दीनानाथ ने ज़ोर से डपटा।
गोपाल ने अपनी बड़ी-बड़ी आंखों को उठा कर उनकी ओर देखा। उनमें अजीब से भाव समाए हुए थे। उसके होंठ भी थरथरा रहे थे। ऐसा लगता था कि वह कुछ कहना चाह रहा है। किन्तु कुछ कहने की बजाय अचानक उसने ज़ोर का झटका दिया और अपने को छुड़ा कर वहां से भाग लिया। कई बच्चे उसके पीछे दौड़े, लेकिन उसे पकड़ नहीं पाए।
मास्टर दीनानाथ का मन खिन्न हो गया था। उस दिन वे ठीक से पढ़ा नहीं पाए। इसके बाद उन्होंने कई बार गोपाल को खिड़की के पीछे खड़ा देखा। उसे पकड़ने के लिए उन्होने कई बार बच्चों को दौड़ाया, लेकिन हमेशा असफलता हाथ लगती। इससे उनकी खीझ बढ़ती जा रही थी।
परेशान होकर तीन दिन पहले उन्होंने सुखराम से कहा कि छुट्टी के बाद वह गोपाल को उनके पास लेकर आए, वरना वे उसे स्कूल में काम नहीं करने देंगे। आशंकित सुखराम स्कूल के बाद गोपाल को घसीटते हुए उनके पास ले आया। उन्होंने कई बार पूछा कि वह खिड़की के पीछे क्यूं खड़ा होता है। किन्तु गोपाल ने आज भी कोई उत्तर नहीं दिया इससे उनका पारा चढ़ गया।
उन्होंने उसे झन्नाटेदार थप्पड़ जड़ते हुए धमकी दी, “अगर आज के बाद कक्षा के आसपास भी दिखाई पड़े, तो तुम बाप-बेटे को स्कूल में काम नहीं करने दूंगा।”
धमकी काम कर गई। सुखराम ने उन्हीं के सामने गोपाल की ख़ूब पिटाई की। इसके बाद अगले दो दिन तक वह खिड़की के आसपास नज़र नहीं आया। मास्टर दीनानाथ ने राहत की सांस ली। किन्तु आज सुबह-सुबह फिर वही चीख-चिल्लाहट शुरू हो गई।
मास्टर दीनानाथ ने फैसला किया कि वे आज आर-पार का फैसला करके ही रहेंगे और तमतमाते हुए अपने क्वॉर्टर से बाहर निकले। एक कक्षा के सामने बैठा गोपाल सिसक रहा था। उसकी बगल में खड़ा सुखराम हांफ रहा था। आज उसकी तबीयत कुछ ज़्यादा ही ख़राब मालूम पड़ रही थी।
“यह सुबह-सुबह क्या तमाशा बना रखा है तुम लोगों ने?” मास्टर दीनानाथ उन्हें देखते ही फट पड़े।
“क्या बताऊं मास्टर साहब, मेरी तो क़िस्मत ही फूटी है। एक ही लड़का है, सोचता था कि काम में हाथ बंटाएगा। लेकिन ये नालायक काम करने की बजाय यहां बैठा काग़ज़ पर लकीरें खींच रहा है।” कहते हुए सुखराम ने एक काग़ज़ उनकी ओर बढ़ा दिया।
मास्टार दीनानाथ ने काग़ज़ देखा, तो चौंक पड़े। कल उन्होंने बच्चों को रेखागणित पढ़ाते समय ब्लैक बोर्ड पर कुछ रेखाचित्र बनाए थे। हुबहू वही रेखाचित्र उस काग़ज़ पर बने हुए थे।
“किसने बनाया है इन्हें?” मास्टर दीनानाथ ने अपनी आंखों पर चढ़े चश्मे को ठीक करते हुए पूछा।
गोपाल ने कोई उत्तर नहीं दिया, तो सुखराम ने डपटा, “अबे चुप क्यूं है? बताता क्यूं नहीं कि ये फालतू काम तूने किया है।”
“ये गोपाल ने बनाया है?” मास्टर दीनानाथ बुरी तरह चौंक पड़े।
“हां मास्टर साहब, झाडू लगाने की बजाय ये यहां बैठा समय बर्बाद कर रहा था। इसे माफ़ कर दीजिए। मैं अभी फटाफट पूरे स्कूल की सफ़ाई करवाए दे रहा हूं।” सुखराम हाथ जोड़ते हुए बोला। उसके मन में काम छूट जाने का भय समा गया था।
बात मास्टर दीनानाथ की समझ में आने लगी थी। उन्होने गंभीर स्वर में कहा, “सुखराम, ये फालतू का काम नहीं है। यह तो वो काम है, जो कक्षा के ज़्यादातर बच्चे नहीं कर पाते हैं। तुम्हारे बेटे ने तो कमाल कर दिया है, लेकिन समझ में नहीं आता कि इसने किया कैसे।”
सुखराम की समझ में नहीं आया कि हमेशा डांटने-फटकारने वाले मास्टरजी इतने शांत कैसे हो गए। वह बस आंखें फाड़े उनके चेहरे की ओर देखता रहा।
मास्टर दीनानाथ गोपाल के क़रीब पहुंचे और उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोले, “एक दिन में कोई इतने अच्छे रेखाचित्र बनाना नहीं सीख सकता। सच-सच बताओ तुमने यह कैसे सीखा?”
स्नेह की छाया मिलते ही गोपाल का दर्द आंसू बन बाहर निकल पड़ा। वो सिसकते हुए बोला, “मास्टरजी, जब आप बच्चों को पढ़ाते हैं, तो मैं खिड़की के पीछे छुप कर सुनता रहता हूं। उसी से थोड़ा-बहुत लिखना-पढ़ना सीख गया हूं।”
मास्टर दीनानाथ को लगा जैसे वे आसमान से गिर पड़े हों। गोपाल आज तक एकलव्य की तरह विद्या की साधना करता रहा और वे द्रोणाचार्य की तरह उसे दंडित करते रहे। उसे अपमानित करते रहे। कितना महान है वह और कितने छोटे हैं वे। उनका मन आत्मग्लानि से भर उठा।
उन्होंने गंभीर स्वर में कहा, “बेटा, तुमने आज तक मुझे बताया क्यूं नहीं ?”
“मैं सफ़ाईवाले का बेटा हूं। डरता था कि आप कहीं डांट न दें।” गोपाल ने हिचकी भरते हुए उनके चेहरे की ओर देखा।
मास्टर दीनानाथ के अंदर इतना साहस न था कि वे गोपाल की आंखों की ओर देख सकें। उन्होंने सुखराम की ओर मुड़ते हुये पूछा, “तुमने आज तक अपने बेटे को पढ़ने के लिए क्यों नहीं भेजा?”
“पढ़-लिख क्या करेगा? सफ़ाईवाला है, बड़ा होकर झाडू ही लगाना है। अगर थोड़ी-बहुत कलम पकड़ना सीख गया, तो फिर ढंग से झाडू नहीं पकड़ पाएगा।” सुखराम ने सांस भरते हुए कहा।
मास्टर दीनानाथ ने चंद क्षणों तक उसके चेहरे की ओर देखा फिर बोले, “तुमने बहुत बड़ी ग़लती की है। आज ज़माना बदल गया है। कोई ज़रूरी नहीं कि सफ़ाईवाले का बेटा सफ़ाईवाला ही बने। वह अफसर भी बन सकता है। उसे स्कूल न भेज कर तुमने ग़लती की है और उससे भी बड़ी ग़लती मैंने उसका अपमान करके की है। हम दोनों को अपनी ग़लती सुधारनी होगी। इसका एक ही उपाय है कि गोपाल को लिखा-पढ़ा कर बड़ा आदमी बनाया जाए।”
“मास्टरजी, आप कहीं मज़ाक तो नहीं कर रहे?” सुखराम की आंखें आश्चर्य से फैल गईं। उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं होे रहा था।
“सुखराम, तुम्हारा बेटा अपमानित होकर भी अपनी साधना करता रहा है। वह एकलव्य की तरह महान है, लेकिन मैं द्रोणाचार्य की तरह उंगली काटकर उसकी साधना भंग नहीं करना चाहता। मैंने आज तक उसका बहुत अपमान किया है, अब उसका प्रायश्चित करना चाहता हूं। गोपाल में प्रतिभा और लगन है। तुम बस हामी भर दो। आज से उसकी फीस और किताबों का ख़र्चा मैं उठाऊंगा। देखना एक दिन वह बहुत बड़ा आदमी बनेगा।” मास्टर दीनानाथ का स्वर भावुक हो उठा।
यह सुन गोपाल की आंखें प्रसन्नता से खिल उठीं। उनमें अनेक दीप एक साथ जगमगा उठे थे। अपने आंसू पोंछ वह मास्टर दीनानाथ के चरणों की ओर झुक गया, लेकिन उन्होंने उसे बीच में ही रोककर अपने सीने से लगा लिया।
सुखराम की आंखों से भी ख़ुशी के आंसू बहने लगे थे।