माँ, कोरोना चला गया क्या ?
माँ, कोरोना चला गया क्या ?


सुबह होते ही मेरी चार साल की बेटी का सबसे पहिला सवाल बडी ही मासूम सी अवाज में, "माँ कोरोना चला गया क्या ? और मेरे पास कोई जवाब नहीं था।क़्यूँकि ये सवाल वो लगातर कई दिनों से पूछ रही थी और जब भी में उसको उत्तर ना मे देती तो जोर जोर से रोना शुरु कर देती और आज तो उसका ये सवाल फिर से सुनकर मेरी भी आँख नम हो गई। मैंने कैसे भी करके उसका ध्यान यहाँ वहाँ भटकाया बोला,' जाओ जल्दी से फ्रेश होकर आओ में तुम्हारे पसंद का नाश्ता पोहा बनाकर लाती हूँ। मैं पोहा बनाने चली तो गई लेकिन संसार में चल रही कोरोना जैसी त्रासदी को लेकर कई सवाल,जवाब मेरे मन में उमड़ रहे थे।
आज मेरी बेटी ने एक बार भी अवाज नही लगायी वरना तो पता नहीं कितनीँ बार मुझसे पूछ लेती थी कि माँ नाश्ता बना कि नहीं, नाश्ता लेकर मैं उसको देने गई तो वो अपने कमरे में एकदम उदास खड़ी हुई खिड़की के बाहर झाँक रही थी, जैसे ही उसने मुझे देखा तुरंत आकर मुझसे गले लग गई और आँखो से मोती जैसे आँसू ढलकाते हुए बोली,'माँ मुझे अपनी सहेलियों के साथ पार्क में खेलना है,कोरोना से प्रार्थना करो ना कि वो हमेशा के लिये चला जाये। मैंने खुद के आँखो की नमी छुपाते हुए उसके आँसू पोंछे,और उसको झूठी तसल्ली दी कि ठीक है, म
ैं कोरोना से प्रार्थना करूँगी, ऐसा सुनते ही वो मुझे चूमकर खिल खिलाकर हँसते हुये दौडते हुये आँगन में चली गई।
बहुत दुख हो रहा था मन ही मन जैसे अन्दर से कुछ कचोड़ रहा हो,साथ ही एक अजीब सी ग्लानि, जो ये सोचने को मजबूरकर रही थी कि आज हमने अपने बच्चों की मीठी सी आजादी छीन ली, उनके चेहरे पर खोती हुई चमक और हँसी का कारण हम है, जिस प्रकृति ने हमको और हमारे बच्चों को उडने के लिये नीला असीमित आसमान दिया,आज उस प्रकृति को हमने अपनी आधुनिक चमक धमक,स्वार्थ,और भोग विलास के लिये निगल लिया और बर्बरता की इतनी हद पार करती कि आज विवश हो गई ये ममता से भरी प्रकृति कोरोना जैसे वायरस का कहर मानव के ऊपर ढाने के लिये।
हमनें ये भी नही सोचा कि हम इस प्राकृतिक धरोहर को संभालकर रखते तो हमारे बच्चे इस प्रकृति आसहनीय घाव को सहन करने के स्थान पर प्रकृति की गोद में सिर रखकर सुकून की नींद सो रहे होते चारो तरफ यू त्राहि त्राहि नहीं होती, आज हमारे नन्हें से बच्चों के रंगीन पर घर की चार दीवार में कैद ना होकर खुले आसमांन में उड़ रहे होते,ना होते बच्चों के वो सवाल जिनका जवाब देने में भी हमको आत्मग्लानी होती है क्यूँ कि हम जानते हैं कि ये कैद हमारी स्वयं की देन है।