Alka Agarwal

Comedy Drama Fantasy

4.1  

Alka Agarwal

Comedy Drama Fantasy

कविवर महोदय की टंगा टोली

कविवर महोदय की टंगा टोली

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हम चंद्रकला आज आप सबको अपने जीवन की कहानी सुनाना चाहते है। सुनेंगे ना आप सब? ना बोलेंगे, तब भी हम सुनाएंगे, क्योंकि आजकल केवल श्रोता बने रहना पड़ता है, बोलने के लिए बुलबुले हमारे दिल में भी उठते हैं, पूरा तन मन खदबदाने लगता है, दूसरी बात यह है कि आप में से जिनकी शादी नहीं हुई है, वे हमारी इस सत्यकथा से सीख ले सकते हैं देखा …. कितने उत्सुक हो गए ना सब! हुआ यूं कि कुछ साल पहले हमारी जिंदगी में एक घटना घटी। यह दुर्घटना थी, या सुघटना कथा के अंत में आप हमें बताइएगा, वोटिंग लाइन खुली रहेंगी। हम बी.ए. के द्वितीय वर्ष में थे। रोमानियत से भरे हुए थे। सावन के अंधे को सब हरा दिखता है, पर हमें, हर ओर दिखता था, बस प्रेम, प्रेम, प्रेम। दिल इलू इलू करने को करता रहता था। कोई प्रेम कहानी पढ़ते, कोई फिल्म देखते, तो उसकी नायिका को धक्का मार, खुद को उसकी जगह प्रतिष्ठापित कर देते।

हम सब सहेलियाँ एक बार ``एक दूजे के लिए'' देखने गए। देखकर खूब रोए। रोना ज्यादा इसलिए आ रहा था, कि हम किसके पत्र को चाय में घोलकर पिएँ। किसका नाम दीवारों पर लिखें। हमारा दूजा तो कोई अब तक था ही नहीं। किसी ने बताया धर्मवीर भारतीजी की `गुनाहों का देवता' प्रेम करने वालों की धार्मिक पुस्तक है, हम सब सहेलियाँ उसे बार-बार पढ़ते और जार-जार रोते। यह सोच हमारे आंसुओं में उत्प्रेरक का काम करती, कि हम तो सुधा बन गए, पर हमारा चंदर कहाँ है? कभी माधुरी दीक्षित बनकर गाने लगते, तेरा करूं दिन गिन गिन के इंतजार। टीचर प्रगतिवाद पढ़ातीं, तो ऊपर से निकल जाता। प्रेम कविताएं ही बस मन को भातीं। हम सोचते साहित्य का एक वाद प्रेमवाद और एक विधा प्रेम विधा होती – तो कितना अच्छा होता।कहते हैं, न भगवान देता है, तो छप्पर फाड़के देता है, कुछ ऐसा ही हुआ। प्रेम हमारे जीवन में छत, छपरे, छप्पड़ सब फाड़कर आया। उस दिन कॉलेज के सालाना जलसे में कविता प्रतियोगिता में हमने प्रेम कविता ही पढ़ी। हमारा ध्यान उन निर्णायक महोदय की ओर जा रहा था। जिनके आंखों में कजरे की धार थी, चाल में नजाकत थी, गोरा रंग था, घुंघराले बाल थे। खादी का कुर्ताधारी वह सुदर्शन युवक हमें अपना चंदर लगने लगा, अपना आमिर खान लगने लगा। हमने बड़ी नज़ाकत से उन महोदय को नज़र में रखकर अपनी कविता नज़र की। आखिर कौन है ये। उनका परिचय दिया गया, `ये हैं जाने-माने' कवि प्रेम कुमार बेचैन। हाय, मैं सदकी जावाँ, यही हैं वे प्रेमकुमार बेचैन, जिन्हें हम रेडियो पर सुनते हैं, पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ते हैं।

निर्णय के नंबर जोड़े जा रहे थे, तब तक घोषणा हुई, कि प्रेम कुमार बैचेन जी कविता सुनाएंगे। बड़ी नज़ाकत के साथ मटकते हुए पान रचे होठों से प्रेम जी मंच पर आए। हम उन्हें देखे जा रहे थे, उन्होंने कविता सुनानी शुरू की –तादात्म्य हो चला है,

प्रिये तेरे मन का मेरे मन से

इसलिए जब भी होता हूँ उदास,

होती है, तू मेरे पास,

आ सजनी मेरी साँसों के

तेरी सांसों से करवा ले तू फेरे,

हमारा दिल धौंकनी की तरह धक-धक, धक-धक करने लगा, लगा हॉल में बस उसीकी धक-धक सुन रही है। हम फिर माधुरी दीक्षित बन गए, दिल धक-धक करने लगा।

हम अपनी धुन में खोए थे कि, सूरजमुखी ने हमें झकझोरा …. अरे कला, कहां खोई है, जा तुझे फर्स्ट प्राइज़ मिला है।

पुरस्कार हमें प्रेम कुमार जी ने ही दिया था। देते हुए बड़े अपनेपन से मुस्काए थे, आपकी कविता लाजवाब थी, आपके पढ़ने का ढंग उससे भी लाजवाब। जीवन में बहुत आगे जाएंगी। मंचों पर भी पढ़िएहमारा दिल बल्लियों उछलने लगा। बाद में उनके लिए चाय नाश्ते का इंतजाम था। आज हमारे पैर जमीन पर नहीं थे। प्रेम की वादियों में उड़े जा रहे थे। ऐसे ही तकरीबन मदहोशी के आलम-मुंह से निकल गया, बेचैन जी आपका नंबर –वाक्य पूरा होने के पहले ही, उनका विजिटिंग कार्ड हमारी हथेली में था।

आप हमें प्रेम कहिए,

हमने सोचा हां बेचैन तो हम हो गए हैं। पर अब स्कूल में पढ़े इस मुहावरे का अर्थ बखूबी समझ आता है - ``आ बैल मुझे मार'' इसे ही कहते हैं।फोन होने लगे, हम उनकी गोष्ठियों में भी जाने लगे। साहित्यिक ज्ञान की अदला-बदली होने लगी। रोमांटिक गानों की सुना-सुनी होने लगी। प्रेम पत्र लिखे जाने लगे। और प्रेम साहित्य का लेन-देन कुछ यूं हुआ कि हम पति-पत्नी बन गए।

शादी के बाद शुरू-शुरू में कविता सुनाते

तुम हो रूप सुंदरी

मन को हरने वाली रूपसी

तुम ही मेनका, तुम उर्वशी,

प्रिये तुम ही हमारे उर वसी

पहले तो हम उनकी कविताओं को सुनकर मुदित हुए रहते। पर धीरे-धीरे हम दोनों पर चढ़ा प्रेम रंग फेड होने लगा, क्योंकि फास्ट कलर नहीं था। अब प्रेम कुमार बेचैन जी, प्रेम कम, बेचैन ज्यादा नजर आते। अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों के बहाने महाशय कई-कई दिन घर से नदारद रहते, जब लौटते अजीब सी मदहोशी के आलम में रहते। अजीब-अजीब सी नामालूम सी महिलाओं के फोन आते रहते। ना चाहते हुए भी कान लगाकर हम सुन ही लेते।हाँ, मेरी अनारकली मैं तुम्हारा सलीम हूं। चिंता मत करो। कविता, भी मैं तुम्हारे लिए लिखूँगा। बस तुम यहां वहां से गाने की धुनों पर उनको गाने की प्रैक्टिस कर लेना।

अरे हां जानू – लोगों को सुंदर मुखड़े चाहिए होते हैं। तुम तो बनी हो श्रृंगार गाने के लिए ही। तुम्हें उपर वाले ने हमारे लिए बनाया है।अरे अनारो, हमारे भाई साहब का फोन आ रहा है। फिर बात करते हैं।

हलो, अफसाना मैडम…. कैसी हैं आप अरे… हमारे तो हाल बेहाल हैं। आपकी याद हमारे दिलो दिमाग में ऐसी छाई है।

क्या कहा – आप भी – हां – हां आप तो अपने कॉलेज में हमारा कार्यक्रम रखाते रहो। हम आपको बड़े-बड़े मुशायरे में ले जाएंगे। अरे शेरो-शायरी लिखना कौन मुश्किल काम है, बड़े-बड़े शायर चोरी के माल से माल बनाते हैं। तीन चार शेरो शायरी की किताब खरीद लो, इसकी टोपी उसके सर लगा दो, शायरी आपकी हो गई - - -हट - - -- बड़ी वो हैं आप - - - और बड़ी रोमांटिक भीहमें गु्स्सा आ रहा था - - -

अभी निकालते हैं – इनकी सारी रोमानियत –

इतने में बेचैन महोदय कुछ ज्यादा बेचैन होकर भटकती आत्मा बन गए –

सुनो बेग़म - - - हां – भई बेग़म ऐसा है एक आयोजक का फोन आ रहा है, तुम्हारी भी गोटी फिट कर लूं, फिर बात करता हूँ।

हलो मेरी सोनकली - - - इतने दिन से कहाँ थी, - - - अच्छा ये तो बढ़या खबर है - - - नौकरी लग गई - - - क्या - - मेरे लिए कपड़े लाई हो - - - इतना चाहती हो मुझे - - - अरे हां – हां – भूला नहीं हूं - -- इस महीने की 24 तारीख को खाली रहना, हास्य कवि सम्मेलन है - - - हां – जैसा मैंने बताया था, कुछ चुटकुले, कुछ जोक्स की किताबें खरीद लीं ना - - उन्हें ही अपने खूबसूरत होठों से ऐसे सुनाना जैसे तुमने लिखा है। हां – डार्लिंग – देखना ­--- हर जगह हास्य के लिए तुमको ही बुलाया जाएगा। अरे मंचों पर सुंदर महिलाए आती ही कहां है।अचानक मेरे हाथ से सामान गिर गया - -

सुनो सोनू - - - फिर फोन करता हूं।

ये क्या है, प्रेम जी – ये कौन है ------

मेरी चांदनी - - - सब बेवकूफ है अपना उल्लू सीधा करना होता है।

हम कुछ कहें, उसके पहले ही उन्होंने हमारे होठों को अपने होठों से बंद कर दिया। कवि महोदय की रोमानी तबीयत के फलस्वरूप हमारा घर तीन बालक, बालिकाओं की चहल-पहले से पहले ही आबाद हो चुका था।

घर खर्च के लिए बड़ी मुश्किल से पैसे देते। हम जब भी शिकायत करते, कहते – जानम – हम तो ग़ालिब हैं, हम तो कबीर हैं, भई तुम ही कुछ देखो।थोड़ा बहुत अनुवाद करके, या छोटे-मोटे काम से हम कुछ कमा लेते। गुस्ता आता, तो कहते, चलो चांदनी, चंदा, हमारी कला, बीवी कविता सुनाते हैं।

नहीं आज हम सुनाएंगे, हमने भी लिखा है।

अरे अब बीबी हो हमारी अब बीबी की तरह रहा करो। समझी वाइफ

`वाइफ' होना, वो भी एक कवि की, वो भी प्रेम कुमार बेचैन जैसे कवि की हमारे लिए बड़ा दुखदायी था, तब और ज्यादा दुखदायी होता था, जब कवि सम्मेलनों में हमें सामने बैठाकर ये हमें हास्य का पात्र बनाते हैं। जैसे दुनिया के सबसे बुद्धु जीव हम ही हैं। उस दिन आयोजक की ज़िद के कारण भी हमें जाना पड़ा था। ये महाशय चालू हो गए, कहीं से चुराया एक जोक वाहियात हास्य में चिपका दिया।एक दिन, बीवी हमारी हांफते घर में घुसी।

धम करके, हम पर गिरी, जान हमारी मुश्किल में फंसी,

पूछा हमने, टुनटुन प्यारी, क्यों इतना हांफ रही हो,

क्यों ऐसी धौंकनी बनी हुई हो।

प्रियतम एक शेर पिंजरे से निकल गया पीछे मेरे पड़ गया, क्या होगा, जो मुझे उठाकर के वो ले गया, हमने मासूमियत से पूछा –

प्यारी बीवी क्या शेर क्रेन लेकर आएगा,

तुम्हें उठाने में वो टें ना बोल जाएगा।

लोग हमारी ओर देख रहे थे, कोई पलट कर, कोई झांककर आगे वाले अपनी गर्दन एक सौ अस्सी के कोण पर घुमा रहा था। बाजू वाले नब्बे डिग्री पर। पीछे वाले हमें देखने के चक्कर में एक दूसरे पर गिरे जा रहे थे। हम खुद पर खिसियानी हंसी हंसे जा रहे थे।

पैंतीस किलो के थे, अब पचपन के हो गए। थोड़े खाते पीते घर के हो गए। पर बेचैन महोदय खुद तो जिम भी चले जाते हैं – हम पर जरा सा भी खर्च करने से कतराते हैं। गुस्सा आया, अभी मंच पर चढ़कर बेचैन महोदय को और बेचैन कर दूं। पर हम महिलाओं का गुस्सा, खौलता ही ठंडा होने के लिए है।हमारे पास अब एक झोला छाप कवि आकर बैठ गए, मुंह से शराब की सडांघ आ रही थी।

चंद्रकला जी, आप कितनी अच्छी कविताएं पढ़ती थीं, आपने तो लाल किले से भी कविता पढ़ी हैं। वैसे हमने भी अभी दो कवयित्रियों को लाल किले से कविता पढ़वाई हैंआप बड़ी सुंदर हैं, आप हमारे साथ मंचों पर पढ़ें। हमारी यहां के बोर्ड में और विदेशों में भी पहचान है, आपकी कविता किताबों में लगा देंगे। दुबई में कविता पाठ करा देंगे। अंतर्राष्ट्रीय कवयित्री बन जाएंगी आप।जी समन्दर जी, शुक्रिया। उनने अपना तखल्लुस (उपनाम) समन्दर रखा हुआ था। हमें कुछ काम से जाना हैं, निकलते हैं।

जी आपके जवाब का इंतज़ार करेंगे।

हमें लगा, सारे पुरुष एक से होते हैं, या ये तथाकथित कवि नाम के पुरुष एक से होते हैं। हमारे पतिदेव भी यही करते फिरते हैं। पेट भरा हो, तब भी - - - -- आगे का वाक्य हम खुद ही पूरा ----- करने में शर्म महसूस कर रहे थे। हम अभी तक दरवाजे के पास भी नहीं पहुंचे थे, कि बेचैन महोदय ने मंचस्थ कवयित्री की सुंदरता में – कशीदे काढ़ने चालू कर दिए।आज हमारे अंदर झांसी की रानी ने जन्म ले लिया था। आओ आज घर कवि महोदय आपकी सारी आशिकी और बेवकूफियों को झाड़ू से ना झाड़ा तो हमने माँ का दूध नहीं पिया।याद आया, सचमुच हमने माँ का दूध नहीं पिया। हमारे जन्म के बाद माँ को दूध उतरा हीं नहीं था डिब्बे के दूध पर ही हम बड़े हुए।

हाथों में झाड़ू लेकर खड़े रहे, थक गए, तो बिस्तर पर जबरन ऑंखें फाड़े पड़े रहे। पर जब तक बेचैन महोदय आए, रौद्र रस की मात्रा कम हो चुकी थी। क्योंकि नींद हम पर चढ़ चुकी थी। और फिर किसे झाड़ते..बेचैन महोदय, वैसे भी उठाकर लाए गए थे। शराब उन पर पूरी तरह चढ़ चुकी थी। लड़खड़ाती आवाज के साथ वे लड़खड़ाते हुए बिस्तर पर लुढ़क गए। इस लुढ़के हुए को अब और क्या लुढसोचा था, जब सोकर उठेंगे तब देखेंगे पर, जब सोकर उठे, हाय तौबा मचा दी। बीवी ओ बीवी झुमरी तलैया में अखिल भारतीय कवि सम्मेलन में हमें जाना है। हमारी पैकिंग करो।

आपको पैक करूं?

अरे मजाक मत करो – हमारी डायरी कहां है, हमारी नई कविता कहां है? हमारे कपड़े प्रैस हैं कि नहीं।हां कपड़े, उनके बारे में आप सबका जानना जरूरी है। आजकल न जाने किसके कहने से एक लाल रंग की, एक हरे रंग की पैंट सिलवा ली थी, फुले वाली शर्ट ले ली थीं। कुर्ते पाजाने भी बड़े भड़कते रंग के लिए थे। या किसी आशिका ने ला दिए थे। मूंछों को अजीब सी म़क्खी कट कतरवा लिया था। जिन्हें देखकर हंसी भी आती थी, और हमारे भीतर, वीरांगना सा भाव भी जागता था, उठो वीरांगना, अबला नहीं सबला हो तुम उठाओ कैंची हाथ में, मक्खी कट मूंछें, कतर दो कतर दो, अपने गुस्से को ठंडा कर लो खुद पर गुस्सा आता कैसे हमने इस कार्टून को पसंद कर लिया था। इसीलिए कहते हैं प्यार अंधा होता है। अब इन कवि महोदय की कितनी बातें नागवार गुजरने लगीं। वे घुंघराले बाल जिनमें हमारा मासूम दिल अटका था, अब झाड़-झखाड़ से लगने लगे।पहले उनकी अस्तता व्यस्तता पर प्यार आता था, अब पैजामे का लटकता नाड़ा देख, गुस्सा आता।

ये तो हुई कपड़े की बात अब ये कौन सी कविता ढूंढ रहे है।आजकल नींद में कविता का नाम भी बड़बड़ाते रहते हैं – क्या उसे। हम सोचने लगे कैसे नई – नई कविताएं इस मख्खरे के जाल में फंसती हैं। सामने दर्पण में हमारे अक्स ने हमारी हंसी उड़ई, जैसे आप फंसी थीं मोहतरमा'बीबी ढूंढी हमारी नई कविता –

आज हमें भी गुस्सा आया –

शौहर नई कविता लिखी, कब –

ओ बीवी वो जो हमने नयनिका के खंजर जैसे नैनों को देखकर लिखी थी। और वो व्यंग्य कविता – जो - - -

व्यंग्य - - - समझते हैं आप - - - फूहड़ हास्य लिखते हैं – और हिम्मत देखो, परस्त्री के नयनों पर कविता लिखते हैं - - - आज आर पार होई जाए। हम पर वीर रस चढ़ा हुआ था। आपकी कविता ग़ज़ल सब निकालेंगे हम। सब पता है दूसरे शहर में सम्मेलन होते हैं कि मिलन।कवि महोदय, इस दुनिया में भी रहो। तीन-तीन बच्चे हैं घर में, शराब कबाब का शौक है। बच्चों की फीस तीन महीने से नहीं दी।

बीवी वो हमें नहीं पता। हम तो कविता के लिए बने हैं।

हां आज आपकी सारी कविताओं, ग़ज़लों और शायराओं को फोन करके आपकी असलियत बताते हैं। और अब बताओ, डायरी नहीं – ढूंढ़ी तो - - - वरना क्या - - - कुछ नहीं प्रिये - - -- मैं ढूंढ़ लूंगा। हमारा वीर रस और परवान चढ़ता उसके पहले दरवाजे की घंटी बची, गुप्ता जी अपने पैसे वसूलने आए थे, भनक लगते ही, प्रेम बेचैन जी, पलंगी के नीचे जाकर छिप गए। क्योंकि गूसलखाने में आज छिपकली जमकर बैठी थी, कविता मे दुनिया से लड़ जाने वाले हमारे कवि पति छिपकली को देखकर कांपने लगते थेक्या-क्या बतायें, अब तो लोग भी हमारे घर आने कें कन्नी काटने लगे थे। एक बार कवि महोदय को कई दिन तक कहीं कविता पढ़ने नहीं बुलाया गया, तो महाशय बीमार पड़ गए। हमारी एक मित्र, अपने पति के साथ घर आई। हमें जरूरी काम से बाजार जाना पड़ा। मित्र के पति रूपक के साथ बीमार प्रेम कुमार बेचैन जी को छोड़ हम चले गजब हम लौटे तो दरवाजा खुद बेचैन जी ने – खोला चेहरा खिला था, बिल्कुल स्वस्थ लग रहे थे।

अरे वाह, रुपक जी के आने से तो आप एकदम चंगे हो गए। रुपक जी कहां हैं?

उन्होंने कमरे की ओर इशारा किया।

कमरे में पहुंचकर हमने जो देखा, होश ही उड़ गए।रूपक जी पागल की तरह बाल नोचते बिस्तर पर आधे बेहोश से, बड़-बड़ा रहे थे बस करो, अब और नहीं सुन सकता।एंबुलेंस मंगाकर उन्हें अस्पताल में जमा करना पड़ा। फिर कभी उन दोनों ने हमारे घर का रूख नहीं किया।

कहते हैं, दूध का जला छांछ भी फूंक-फूंक कर पीता है पर हमारे ये बेचैन महोदय दूध को खौला खौलाकर पीते हैं। एक बार किसी की खटारा कार उठा लाए।

आयोजक को बड़ी शान से बोलने लगे - - - नहीं नहीं मैं अपनी कार से आ जाऊंगा।कुछ घंटो बाद हाथ पैर तुड़वाकर टंगा टोली करके लाए गए। बच्चे भी उनकी इस टंगा टोली के आदी हो गए थे।

सोमरस का नशा ज्यादा चढ़ जाता। एक दो बार, घर के बाहर शोर सुनाई दिया हम बाहर गए, तो, देखा नाले के पास भीड़ जमा थी।अरे कला – जल्दी आओ - - - बेचैन जी, नाले में रपट गए हैं।

दोपहर का वक्त था, पुरुष कोई था नहीं। हम चार औरतों ने उनके हाथ पैर पकड़े लटकाकर टंगा टोली करके उठाकर लाया गया।हमारे दु:ख से – आप सबकी आंखें भी गीली हो गई ना। प्रेम कुमार जी के प्रेम में बहकर, जो प्रेम विवाह किया था, अब वह प्रेम विवाह की जगह बेचैन विवाह बन चुका था। पर छोड़कर जा भी नहीं सकते थे। क्योंकि एक तो हमने सचमुच उन्हें प्रेम किया था, दूसरा तीन बच्चों को भी संभालना था। अब घर की गाड़ी चलाने के लिए दूसरें छोटे-मोटे कामों के अलावा उर्वशी नाम से लिखना चालू कर दिया था।फेस बुक पर भी फेक फोटो चिपका दी थी। उस उर्वशी की रचनाओं को पढ़ बेचैन जी फिर से प्रेम बनते नजर आने लगे। कविता को सीने से लगाकर कहते –

`कब मिलोगी उर्वशी'

हम कहते, तुम्हारी घर तो हम बसे थे हम तुम्हारी उर्वशी हैं ना –

कहां बीवी, तुम कहां - - - ये

इस पर उन पर तरस भी आता गुस्सा भी आता, दिल से गाना गाता

कभी खुद पर, कभी बेचैन जी पे गुस्सा आया,

कवि पत्नी बन, जिंदगी का सबसे बड़ा धोखा खाया।अच्छा चलते हैं – दुआओं में याद रखना। हमारी कहानी से जरूर एक सीख लेना।


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