कर्म पथ
कर्म पथ
किसी ने कंधे पर हाथ रखा तो अपने बहते हुए आँसुओं को वापस गटकने की कोशिश करते हुए उसने नजरें उपर उठाईं पर.... भीड़ भरे उसके इलाके में अचानक फटे हुए उस बम से फैली हुई अफ़रा तफ़री, रोते बिलखते लोगों और वो हर तरफ बिखरे क्षत विक्षत शव ..... नहीं, कैसे भूल सकेगा वह उस दृश्य को? कैसे जी सकेगा भला अपनों को इस तरह खो कर? पर ये कौन है जिसने उसके सर पर हाथ रखा है ? ये हिंदू है या मुसलमान ? आँखों पर ज़ोर देने की कोशिश भी की पर कुछ समझ न आया....। पर वो जो भी था, कुछ समझाने की कोशिश कर रहा था। एक पिघले सीसे सी कुछ पंक्तियाँ मानो हकीक़त बन, कानों के रास्ते दिल में उतर रही थी ... कंधे पर पड़ा हाथ, यही समझा रहा था शायद!
उठके कपड़े बदल घर से बाहर निकल
जो हुआ सो हुआ
रात के बाद दिन आज के बाद कल
जो हुआ सो हुआ
जब तलक साँस है भूख है प्यास है
ये ही इतिहास है
रख के कंधे पे हल खेत की ओर चल
जो हुआ सो हुआ
खून से तरबतर कर के हर रहगुज़र
थक चुके जानवर
लकड़ियों की तरह फिर से चूल्हे में जल
जो हुआ सो हुआ
जो मरा क्यों मरा जो जला क्यों जला
जो लूटा क्यों लूटा
मुद्दतों से हैं गुम इन सवालों के हल
जो हुआ सो हुआ
मंदिरों में भजन मस्जिदों में अजाँ
आदमी है कहाँ
आदमी के लिये एक ताज़ा गज़ल
जो हुआ सो हुआ
(इतने मार्मिक सत्य लिखने के लिये निदा फाजली जी को सलाम )