कपल केबिन

कपल केबिन

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'भाभी, मानता हूँ, बहुत लेट है। अभी रिटेल में ग्राहकी नहीं है। ग्राहकी खुलेगी। पैसा आयेगा। अगली बार आपको फटाफट पैसा लौटा दूंगा।'

'ठीक है राजेश जी, इस बार लेट हुआ न, तो आपके घर पहुँच जाऊँगी।' आशा भाभी ने शरारत वाली धमकी दी।

'अरे, ऐसा मत करना आप। अभी तो पहले वाली ही नहीं सम्भल रही है।' मैंने अर्थपूर्ण अंदाज में जवाब दिया। मैं उनके मन की थाह लेने की कोशिश में था।

'ज्यादा डीप में न जाओ राजेश जी, आप किश्त जल्दी जल्दी लौटा दो।' उपेक्षित स्वर में जवाब मिला।

ये उपेक्षा बनावटी थी या सचमुच की? समझ नहीं पाया। आशा भाभी अच्छी शक्ल सूरत वाली और साथ कुछ ज्यादा ही खुले विचारों की है। तभी तो मुझ जैसे साधारण शक्ल सूरत वाले से भी ऐसे खुल कर बात करती है, जैसे मैं वाकई में उसका देवर या दोस्त हूँ। जबकि उनसे तीन चार बार ही बात हुई है। आशा का पति चन्दन प्राइवेट कम्पनी में नौकरी करता है। उसकी कमाई का पता तो नहीं। पर इतना जरूर था। आमदनी अठन्नी, खर्चा रुपैया।

तभी तो हर सन्डे को पूरे दिन परिवार सहित बाहर खाना पीना। हर निमंत्रण पार्टी में दोनों की अपेक्षित उपस्थिति, नित नई ड्रेसिंग। आशा भाभी भी हमेशा आधुनिक स्टाइल वाले ही कपड़े पहनती थी। उसको परवाह नहीं थी, कि ब्लाउज का गला कितना खुला है, कुर्ते की पीठ कितनी खुली है, या टॉप कितना झीना है। आशा भाभी हमेशा घर में ही रहती थी, संयुक्त परिवार था, एक जिठानी और एक देवरानी। उनकी आपस में बनती थी या नहीं थी, पर सबकी रसोई अलग अलग थी।

छोटे मोटे घरेलू लेनदेन और बचत करके उसने कुछ रकम इकट्ठी कर ली थी। जो कि मेरे और चन्दन के एक साझा दोस्त के मार्फत मुझे अपने व्यापार के लिए उधार मिल गयी थी। इस शर्त पर कि, मैं ये रकम मय 25% लाभ के साथ तय साप्ताहिक किश्तों में लौटा दूंगा। चन्दन ने कह दिया था कि किश्त सीधे घर पहुंचा देवे।

मुझे क्या चाहिए था। बढ़िया है। इस बहाने आशा को निहार लूंगा। जिस दिन रकम उधार ली थी, तब ही मेरा मन उसके लिए ललचाने लगा। इतनी बोल्ड है, अगर कोशिश करूँ तो पट भी सकती है। किस्मत हुई तो।

बाहर भी होटल में भी मिल लेगी, नहीं तो टाइम पास ही सही।

मेरा धंधा चल निकला, पर मैं जानबूझ कर किश्त लेट कर रहा था, फिर आशा का फोन आता, इधर उधर की बातों में वक्त समय निकालता। इशारों में उसकी तारीफ और अपने इजहार का मौका नहीं छोड़ता। पर वो कोई भाव ही दे रही थी।

एक बार उसने रात 10 बजे भी पैसों की जरूरत जताई। दो किश्त एडवांस में मांग ली। मैंने इसे उसके प्रति समर्पण दिखाने का मौका मान कर रात को ही मांग पूरी कर दी।

इतनी कोशिशें हो गयी थी। पर बात हल्के फुल्के हंसी मजाक से आगे नहीं बढ़ रही थी। यहां तक कि आखरी दो किश्त बची थी।

सोच रहा था कि कैसे बात बनें? भरी दोपहर थी। जानबूझ कर यह समय चुना था। इस वक्त कम ही लोग बाहर होते थे। सोचते सोचते उसके घर तक पहुंच गया। मोबाइल से बात कर के बाहर आकर किश्त लेने को बोला।

आशा बाहर आयी। शायद सो रही थी। काले कलर का पतले कपड़े का सूती कुर्ता पहन रखा था। अंदर प्रिंटेड अंतः वस्त्र की झलक आसानी से दिखाई दे रही थी। कहीं मेरी चोर नजरें न भांप ले, इसलिए आँखें उसके चेहरे की तरफ टिका कर आखरी पासा फेंक रहा था।

 'अच्छा भाभी, इसके बाद एक किश्त बाकी रहेगी।

वो चन्दन को देकर हिसाब नक्की कर लूंगा।

उसके बाद तो इधर आने का कोई बहाना नहीं बचेगा।'

' राजेश जी। आपने कर दी न परायों वाली बात। आपका ही घर है। आते रहियेगा...'

बातें चल रही थी। कोई दांव नहीं लगा पा रहा था। आखिरकार हारे हुए खिलाड़ी की तरह यूँ ही मैच पूरा करने की कोशिश की।

'... अच्छा भाभी। जाते जाते दिल से एक बात कहना चाह रहा हूँ। बस आप बुरा मत लगायेगा और अपने तक ही रखियेगा।'

मुस्कराती आशा की पारखी, लेकिन पूरी बात सुनने की उत्सुक नजर जाहिर कर रही थी कि मैं क्या कहने वाला हूँ।

मैंने घिसे पिटे रटे हुए डायलॉग बोलने शुरू कर दिये,

'आप बहुत सुंदर हो, मुझे अच्छी लगती हो,

जब से आपको देखा है....'

... कहते कहते आखिर में यह भी कह दिया।

'आपसे एक निवेदन है, प्लीज। आप ऐसे कपड़े पहन कर बाहर न आया करो। जिसमें से आप के अंदर के कपड़े साफ झांक रहे हो। मुझे बुरा लगता है।'

आखरी बात सुनकर आशा के चेहरे से मुस्कुराहट गायब हो गई। निर्विकार भाव से मुझे देखने लगी।

मुझे लगा, अब वो गुस्सा करेगी। इससे पहले कुछ अनहोनी हो, मैं तुरन्त मुड़ा, बिना पीछे देखे बाइक लेकर रवाना हो गया।

आज तीन दिन हो गये, न चन्दन का कोई फोन आया, न आशा का। मुझे सुकून मिला, बात हम दोनों के बीच ही रह गयी। मैं मार्केटिंग पर निकला हुआ था। अपरान्ह 4 बज रहे थे। तभी मोबाइल कंपकंपाया। चलती गाड़ी में ही स्क्रीन पर नजर डाली। आशा का नाम शो रहा था। उम्मीद की किरण। अगर कुछ बात बनती है तो सारे कार्यक्रम कैंसल।

तुरन्त गाड़ी साइड में लेकर बात की।

'हैलो राजेश जी।'

हाँ, बोलो भाभी।'

'मैं यहां सन्तोषी मंदिर के पास खड़ी हूँ। अकेली हूँ। आप आ सकते हो अभी।'

'पर भाभी। मुझे वहां पहुँचने में आधा घण्टा लगेगा।'

'मैं इंतजार कर लूंगी। अगर आप आ रहे हो तो?

'ठीक है। वहीं रहिये, मैं आ रहा हूँ।'

और कुछ पूछने का सवाल ही नहीं, बाकी बात मिल कर जान लूंगा। तेजी से बाइक दौड़ाई, पूरे रास्ते उसके बारे में सोचता रहा, क्या बात हुई होगी? उसका इस तरह अकेले निकलना भी कैसे सम्भव हुआ? क्या मेरे साथ कहीं भी चल निकलेगी?  वहां पहुँचते पहुँचते सोच भी लिया, अगर वो साथ चलती है तो पास वाले फलां रेस्टोरेंट में ले चलूंगा। वहां उसे शीशे में उतार कर अगली मीटिंग किसी बढ़िया होटल में।

सन्तोषी मंदिर शहर के बाहरी क्षेत्र में था। किसी जान पहचान वाले के देख लेने का डर भी नहीं। मंदिर के बाहर पार्किंग के पास पहुँचते ही वह मुझे दिख गयी। साधारण सलवार सूट पहन रखा। ठीक ही दिख रही थी। मुझे देखते ही मेरे पास पहुँची। बिना कोई भूमिका बांधे बोली,

'राजेश जी। मत पूछना, यहां अकेली कैसे आयी हूँ। 6 बजे किसी भी तरह मुझे किसी भी तरह वापस घर पहुंचना है। डेढ़ घण्टे है, आपके पास। तब तक जो आप चाहो।'

सिर्फ डेढ़ घण्टा। अरे, कुछ घण्टे पहले बता देती तो व्यवस्था बन जाती। तब आधा घण्टा ही बहुत था।

मेरी समझ में नहीं आ रहा था। पका आम खुद ही झोली में आ गिरा। पर खाने के साधन नहीं थे।

अब क्या करूँ? वो बेझिझक मेरी बाइक पर बैठ गयी, उसे कोई फिक्र नहीं थी कि कोई देख लेगा। मैं तो खैर हेलमेट लगाये हुए था। बाइक का रुख पास ही के उस रेस्टोरेंट की तरफ किया। जहां अंदर गुप्त 'कपल-केबिन' की सुविधा भी थी। उस रेस्टोरेंट का जिक्र मेरे कालेज फ्रेंड अर्जुन उर्फ़ प्रिंस ने किया था। देखने में वो आम रेस्टोरेंट की तरह ही संचालित था। उस रेस्टोरेंट में मेरा पहला मौका था। वो अभी खाली सा ही था।

आशा को कोने की टेबल पर बैठा कर ऑर्डर देने के बहाने मैं काउंटर पर बैठे आदमी के पास गया और कपल केबिन के बारे पूछा। कमबख़्त ने पहले तो साफ मना कर दिया। ऐसी कोई सुविधा है ही नहीं। फिर थोड़ी हील हुज्जत के बाद फिर बिना पहचान के केबिन देने को मना कर दिया। अब प्रिंस को लगातार फोन लगा रहा था। पर वो फोन ही नहीं उठा रहा था। 4:45 बजने को हो आये थे। हाथ में आया निवाला वापस छूट रहा था। जूस का ऑर्डर कर के मैं वापस आशा के सामने बैठा। पता नहीं क्यूँ? पास बैठने का साहस नहीं हो पा रहा था। शायद खुले वातावरण से मन में अनजान सा डर बैठ रहा था। जबकि आशा प्रश्नसूचक दृष्टि से मुझे देख रही थी कि अब क्या?

बात कहां से शुरू?

पूछ ही लिया,' आशा। ये अचानक? ये सब? एकदम?

मुझे इस वक्त आशा को भाभी कहना उचित न जान पड़ा।

'क्या आप सचमुच जानना चाहते है?'

प्रिंस के मोबाइल पर अभी भी रिडायल कर रहा था।

फोन लगता है तब तक इसकी बात ही सुन लेते है।

'हाँ, बताओ।'

'राजेश जी। आप मेरी तरफ आकृष्ट हो। मुझे पता था। ऐसे बहुत से आये गये। क्योंकि मेरा रहन सहन का अंदाज हर मर्द को लुभा लेता। पर किसी से भी ऐसी कोई बात आगे नहीं बढ़ी। क्योंकि मेरे घर के माहौल की वजह से ऐसी कोई सम्भावना नहीं बन सकती है।'

'तो फिर मुझ पर ऐसी मेहरबानी क्यों?

दस बारह मिनट से ऊपर हो गए थे। प्रिंस को लगातार फोन लगाते हुए। कोई रिप्लाय नहीं आ रहा था।

अब कोशिश बन्द कर दी थी।

'किसको फोन लगा रहे थे आप?'

जूस के गिलास लेकर लड़का आया तो उसने बात बदली।

'कोई नहीं, किसी से पेमेंट लेना इधर से। सोचा आया हुआ हूँ। लेता जाऊं। तुम बताती रहो।'

मैं आप से तुम पर आ गया था। छोटी सफलता ले ली।

पर मैं अपनी सम्भावित होती असफलता को उसके सामने प्रदर्शित नहीं करना चाह रहा था।

'मुझे हमेशा ऐसे खुले और झीने कपड़े पहनने का शौक नहीं है। मेरी सारी ड्रेसेज उनकी पसंद की ही होती है। शुरू में मुझे अच्छा लगता था, पर बाद में अहसास होने लगा कि किसी भी पार्टी में मैं उनके लिये स्पेशल एडवांटेज वाली वस्तु थी। उनके अन्य कलीग और सीनियर के मुकाबले ज्यादा अट्रैक्शन लेने में मैं सहायक थी। जिस पर मेरी ड्रेसेज और मेरा बिंदास अंदाज मौजूद सभी महिलाओं पर भारी पड़ता था। उनको परवाह नहीं थी। कौन मुझे किस नजर से देख रहा है। उनको बस पार्टी में अपनी शान से मतलब है। मुझे टीस रहती थी, क्यूँ वह घूरने वालों पर आपत्ति नहीं करता, क्यूँ मुझे किसी की आँखों को भोजन बनने दे रहा है, जिस पर सिर्फ उसका हक है। उनकी वजह से घर के बाकी लोग मेरे चरित्र को संदेह की दृष्टि से देखते है। पर इनके तेज स्वभाव की वजह से किसी की मुँह पर बोलने को हिम्मत नहीं।'

'जब उस दिन आपने मेरे झीने कपड़ों के बारे में बात की, तो मैं अवाक् रह गयी है। जो बात मेरे पति के मुँह से निकलनी चाहिए थी। आपके मुँह से निकल रही थी। उस दिन मेरे लिए कही गयी बात मुझ में गहरे तक असर कर गयी। मुझे लगा, आपने मुझे इतना मान दिया, तो मैं भी कुछ आपके लिए...।'

आखरी अधूरा वाक्य कहते हुए उसके होंठ कांप रहे थे। मेरी तरफ से नजर हटा कर बाहर सड़क की ओर देखने लगी। मैं मोबाइल में समय देख रहा था।

5:15  बज रहे थे। मेरा जूस का गिलास खाली हो गया था। लेकिन उसका आधा भी खाली नहीं हुआ था। शायद भावुकता में पी नहीं पा रही थी। इधर मौका हाथ से लगभग निकल गया था।

अगर इसको घर वापस 6 बजे पहुँचना है तो समय रहते निकलना होगा।

 'ये गलत बात है। आप इतनी सी बात पर खुद को मुझे सौंप रही हो। तुम से थोड़ी हंसी मजाक कर लेता था। आपसे आत्मीयता थी, एक सच्चा प्रेम सा है। इसलिए आप से ऐसी बात कही। अगर मुझे आपके जिस्म की चाहत होती तो यहां कई होटल है, बल्कि इसी रेस्टोरेंट में भी कपल केबिन है, वहां ले चलता।'

मैंने उसके हाथ पर हाथ रखा। उसने अपना हाथ हटाया नहीं। उसके हाथ की गर्मी और मुलायमता महसूस कर पा रहा था। चेहरा अभी भी सड़क की ओर था। मेरा शराफत का लफ्जी चोला बाहर आ गया था, जिसे मैंने अपने हाथ और इरादों पर ढक दिया।

'आपका मोबाइल पर कॉल आ रहा है। शायद उसी पार्टी का है।'

उसने मेरी तन्द्रा भंग की। मेरा ध्यान उसके अहसास की दुनिया से मोबाइल के कम्पन की दुनिया में गया। प्रिंस का फोन था। साले, कमीने। अब फोन कर रहा है। फोन काट दिया। अब क्या काम का।

'जाने दो उसको। मैं तुम्हारे साथ इस दो पल को जी लूँ। मेरी खुशकिस्मती है कि मैं तुम्हारे सामने बैठ कर तुम्हें इतने पास से देख पा रहा हूँ।'

'मैंने जैसा सोचा था, वैसा आपने कुछ भी नहीं किया। आप की पत्नी बहुत ही खुश किस्मत है। आप तो ....

काश मेरी किस्मत में आप होते...'

उसकी आँखें भर सी गयी थी। आवाज भर्रा रही थी। माहौल संगीन हो रहा था। मैं ऐसी संगीनियत का आदी नहीं था।

'हमें अब निकलना चाहिए। तुम्हें 6 बजे घर भी पहुंचना है। मैं तुम्हें बाइक से ड्राप कर देता हूँ।'

वह उठ खड़ी हुई।

'नहीं, रहने दीजिये। बस या ऑटो से चली जाऊँगी। थोड़ा लेट होगा। मैनेज कर लूंगी। किसी ने देख लिया तो?  मेरी वजह से आप पर कोई आंच आये, मुझे अच्छा नहीं लगेगा।'

उसकी आँखों और शब्दों में मेरे लिए फिक्र और कृतज्ञता उमड़ जा रही थी।

वो जा रही थी। अब शायद ही कभी उससे मुलाकात होगी। मिल भी गयी तो काम नहीं बनेगा। उसकी नजर में मेरे असफल प्रयास वाले लम्पटत्व पर देवत्व का मुलम्मा चढ़ गया था।


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