“कहने वाले कहते हैं”
“कहने वाले कहते हैं”
नाक-कान छिदवाने वालों को, औरत ही क्यों कहना है?
क्या वो इतनी अबला है कि, मर्द के साये में रहना है?
कभी माँ बनी, कभी मेहरारू, कभी बनी वो बहना है,
कहने वाले कहते हैं, औरत लाज का गहना है।
गहने जब ख़ामोश रहे, तो घर की इज़्ज़त कहलाते,
सरे-आम बाज़ार गए, तो बिकने पे क्यों आ जाते?
वही खड़े थे कहने वाले, उनका ही ये कहना है,
इज़्ज़त जब बाज़ार गई, फिर पर्दे में क्यों रहना है?"
ख़ुदा क़सम, क्या हुस्न है उसका, बाज़ारू सी मैना है,
मैं तो बस ख़ामोश खड़ा था, बंद भये मेरे नैना हैं।"
तौक़ पे रख सब तौल दिया, किसको कितना सहना है,
अरे कहने वाले कहते हैं, मुझको कुछ नहीं कहना है।
ज़मींदार की ड्योढ़ी पर जो, ज़मीर बेचकर पड़े रहे,
कह लो बेशक मर्द वही हैं, कोठे पे जो खड़े रहे।
कितना जज़्बाती वो शख़्स, नज़र वहीं पे गड़ी रहे,
अपनी बेटी बेटी है, बाक़ी बिस्तर पर पड़ी रहे।
एक रात गुज़ारी उस घर में, जहाँ दिन में गहरी रात हुई,
तुमने ये क्या कह डाला, इसमें अचरज क्या बात हुई?
एक ख़्वाब मचलता है मुझमें, आँखों में क्यों प्यास हुई,
एक पुरसुकून थी औरत वो, जब से ये मुलाक़ात हुई।
"दाम लगाया ज्यों उसका, क्या ख़ूब मेरी औक़ात हुई।
बस इतना कहना था मेरा, मेरे संग में ख़ुराफ़ात हुई।
मैंने ख़ुद महसूस किया, हमें औरत जात को सहना है।
अरे कहने वाले कहते हैं, मुझको कुछ नहीं कहना है।"
"कुछ शर्मो-हया तो हो तुझमें, ऐसे औरत की हार हुई,
फिर मज़मा लगता है चौक पे, ये औरत मक्कार हुई।
धीरे-धीरे दर-किनार कर, घटिया इल्ज़ामों से शर्मसार हुई,
इस क़दर बदनाम किया कि, वो खुदकुशी का शिकार हुई।"
"शिकार हुई तो होने दो — सोच यही आधार हुई,
मर्द बेचारा क्या करता, उसपे मजबूरी की मार हुई।
मासूम-सा चेहरा लेकर, एक नई चौखट जब पार हुई,
अब कैसे हाल बताऊँ सनी... अस्मत फिर तार-तार हुई।"
नाक में नथ नहीं, ये बेड़ियाँ हैं — सदियों से पहनाई हुई,
क्यों नहीं थमता सिलसिला ये — कैसी रीत अपनाई हुई?
कितने बेहिस हैं ये लोग — वो लज्जा में घबराई हुई,
बिंदी, काजल, कंगन-चूड़ी — सब 'मतलब' से पहनाई हुई।
"ऐसे तो ‘ग़ुलाम’ कहो, क्यूँकि ख़ामोशी को सहना है,
वही खड़े थे कहने वाले, उनका ही ये कहना है ।
मैं तो बस ख़ामोश खड़ा था, बंद भये मेरे नैना हैं,
अरे... कहने वाले कहते हैं — मुझको कुछ नहीं कहना है।"
