Shirish J

Drama Romance

4.7  

Shirish J

Drama Romance

कच्ची धूप, इश्क़िया दोपहर

कच्ची धूप, इश्क़िया दोपहर

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सितम्बर अक्टूबर की उमस को गॉसिप की दुनिया में हुए धमाके और भी गर्मा चले थे। संयोग ही था की “चीनी कम” की कहानी को साकार करती हुई अनूप जलोटा की अपने शिष्या के साथ प्रेम में होने की स्वीकरोक्ति, विवाहेत्तर सम्बन्धो को आपराधिक न मानने का अदालती फैसला और मी टू कैंपेन में मशहूर हस्तियों को लपेटने की खबरे तक़रीबन साथ ही सुर्खियों में आये और टनो गीगाबाइट के बोझ से पहले ही चरमराए हुए सोशल मिडिया पर और भी ज्याद गपशप फॉरवर्ड करने की जिम्मेदारी थमा गए। नैतिक अनैतिक के बीच की दीवार का गिरना, विवाह नाम की संस्था का औचित्य, धार्मिक या भारतीय संस्कृति के प्रतिकूल आचरण ये सारे विषयों ने पत्र पत्रिकाओं को वाद विवाद का मसाला तो दिया लेकिन हर बार की तरह यह बहस भी दम तोड़ने वाली है और याददाश्त से दूर हो जाने वाली है। अनूप जलोटा का किस्सा तो एक बहाना है, आस पास निगाह डालना चाहूँ तो और एक न एक फ़साना है। सच तो कहानी से भी जयादा रोमांचक, फिल्मो से भी ज्यादा रंगीन होता है। क्या कोई सोचेगा की किसी साधारण नौकरी पेशा ज़िंदगी में भी कहानियाँ हो सकती है? अनूप जलोटा और मी टू से जुड़े सोशल मीडिय के जोक्स मुझे नहींं लुभा रहे क्योकि सोशल मीडिया पर जोक्स और कमैंंट्स पढ़ते पढ़ते आज मेरा मन आज बस गहरी यादो में जाते हुए आँसुओ में डूबना चाह रहा है।


यादो का समंदर तो हर दिल में है, गहराई में जाये तो मोती मिलते चले जाते है। ख़ुशी के, ग़म के, रुलाने वाले किस्से भुला सके, ऐसा इंसान का दिल कहा? न्यू यॉर्क की गर्मियों की वो एक खुशनुमा शाम और उनसे निगाहे मिलना आज तो एक सपना ही लगता है। सोचा न था के बामुश्किल चंद पलो का आमना सामना जीवन में इतने झंझावात कर जाएगा।


उस शाम एक कॉर्पोरेट पार्टी में जाना हुआ। आयोजक मित्र का आग्रह और पार्टी स्थल का आकर्षण इतना जबरदस्त था की मेरे पेशे से दूर का सम्बन्ध न होने के बावजूद मैं वहां जाने का लालच छोड़ न पाया। 62 मंजिली इमारत की छत पर स्थित ओफेलिया बार, रोशनी में नहाई हुई गगनचुम्बी अट्टालिकाओं का मनोहारी दृश्य और धीमी गति के संगीत के बीच मार्टीनी की चुस्कियों की लहर में किसी वक़्त उस के साथ मुस्कुराहटो का आदान प्रदान हुआ था। कुछ नए बने दोस्तो के साथ हंसी मजाक का दौर था, मेरी किसी बात ने उसके चांदनी से प्रकाशित, खूबसूरत चेहरे पर मुस्कुराहट की जो सजावट बिखेरी वो मुझे सदियों याद रहेगी। तरंग में उसका किसी वक्त टिश्यू पेपर पर घसीट कर फ़ोन नंबर देना और कभी कैच अप करने का वादा शायद अवचेतन मन का ही काम रहा होगा। नाम पूछने की कोई आवश्यकता नहीं थी और यूँ भी सात समंदर पार की तेज रफ़्तार जिंदगी में जब तक किसी भारतीय से दोस्ती की गहराई तक जाने का वक्त आता है तब तक वो किसी और शहर, किसी और देश या किसी और नौकरी की और स्थानांतरित होने के लिए सामान बाँध रहा होता है। वो अपने भारत की बचपन की दोस्ती और परिवारिक वातावरण गोरो के देश में कहाँ? यह अस्थायित्व ही शायद जीवन है और विदेश क्यों, भारत में भी अब क्या कोई कम व्यस्तता है?


बात आयी गयी हो गई। वैसे भी अमेरिका में काम के बोझ से भरपूर दिनचर्या में इंसानी कामनाओ के लिए समय कहाँ? यहाँ आये 20 वर्ष हो चले थे, बच्चे अमेरिकी जीवन में ढले हुए और अपने में मग्न। मिड लाइफ में आयी हुई पत्नी विरक्त दिखने लगी थी और कुछ वर्षो से बहुत झगड़ालु हो गयी थी। इसलिए मैं अपने आपको काम में डूबा कर ही संतोष पाता था। जीवन में कुछ नया करने की ऊर्जा अभी भी थी लेकिन उम्र का कोई भी पड़ाव हो, प्रेरणा मिले बिना ऊर्जा अधूरी ही होती है।


पार्टी के कुछ दिनों के बाद अचानक कोट की जेब में पड़ा हुआ टिश्यू पेपर शायद मुझे चिढ़ाने के लिए ही सामने आ गया। फ़ोन नंबर? आज के ज़माने में सब अपने स्मार्ट फ़ोन में ही सुरक्षित रखते है तो ये कहाँ से आया? मुझे याद तो बिलकुल आया ये नंबर किसने दिया है। आगे उत्सुकुता कहे या मजाक पसंद नटखट मन, एक सन्देश लिखा, मिटाया, फिर लिखा, फिर मिटाया लेकिन अंततः भेज ही दिया। पूछा, यह नंबर मुझे एक पेपर पर लिखा मिला है, क्या जान सकता हूँ किसका है? कुछ ही मिनटों में जवाब आ गया, लिख कर फ़ोन नंबर देना तो हाल में एक ही बार हुआ था। आपको शायद याद न हो, हम ओफेलिया बार में मिले थे। औपचारिक परिचय तो न हुआ लेकिन क्या क्या मैं अब आपका नंबर सेव कर सकती हूँ?


मेरा मन ठिठोली भरा, साथ ही कुछ पकती उम्र की रंगीनिया भी थी। पूछा, क्या आप एक परिपक्व एवं वरिष्ठ प्रोफ़ेशनल के साथ दोस्ती करना पसंद करेंगी? जवाब में एक नवयुवती की खिलखिलाहट से भरी प्रतिक्रिया मेरे हृदय को झंकृत कर गयी। सर, क्या आप एक ओजस्वी एवं चंचल प्रतिभा से मित्रता करने में समर्थ है? फिर तो क्या था, व्हाट्सअप पर बातचीत का सिलसिला चल निकला। वो सात वर्ष पहले पढाई करने बोस्टन आयी थी और अब अमेरिकी रंग में रंग कर सिटी बैंक में उसने थोड़े समय में ही काफी प्रगति कर ली है। थोड़ी चैटिंग में ही मैं डेटिंग, महिला पुरुष सम्बन्ध, उसकी और मेरी पसंद नापसंद के बारे में कुछ ज्याद ही खुल गया था।


ऑनलाइन चैटिंग में कोई निषेध कहा, मन के शब्द हूबहू फ़ोन स्क्रीन पर प्रकट हो चुके होते है। मेरी तन्द्रा तब टूटी जब उसने मेरा नाम पूछा, अहसास आया कैसे मैं एक अनजान व्यक्ति से इतनी ओछी बात कर रहा हूँ। अपने आपको तसल्ली देने के लिए ये ख्याल काफी था कि पार्टी की भीड़ भाड़ और मद्धम रोशनी में हुई कुछ क्षणों की मुलाकात में देखा हुआ चेहरा किसे याद होगा? मैंंने अपना नाम तो छुपा लिया लेकिन उसके बारे में जानने की उत्सुकता को जब्त करना अब कठिन हो गया था। पर क्या किया जाये, आखिर एक प्रोफेसर को अपनी इज्जत तो बना कर रखनी ही होगी।


अगली दोपहर फ़ोन का स्क्रीन अचानक जीवित हो उठा। उसी का मैसेज था। सर, आप मुझसे छुप रहे थे, नाम बताने में शर्मा रहे थे। लेकिन ये जो गूगल है न, वो बहुत कुछ उगल देता है। उस दिन की पार्टी में उपस्थित कुछ लोगो की फेसबुक फ्रेंड लिस्ट खोजी, थोड़ी मेहनत लगी और आखिर आप का चेहरा सामने आ ही गया। आप डॉ अचल ठक्कर है न, कोलंबिया विश्वविद्यालय? इतने जाने माने प्रोफेसर, मेरे कुछ कलीग आपके स्टूडेंट रह चुके है। मुझे काटो तो खून नहींं। उस सुहाने मौसम में भी सर पसीने से चुहचुहा उठा। क्या सोच रही होगी ये लड़की? और ये किस किस को मेरी छिछोरी बातो के बारे में बताएगी, यह लड़की आखिर है कौन? जैसे तैसे डरते हुए दिन निकला। रात को सोने से पहले हिम्मत कर के एक मैसेज भेजा। थोड़ी देर चैटिंग हुई लेकिन शालीन तरीके से। गोपनीयता के कुछ वादे हुए जिनसे थोड़ी दिलासा मिली।


अगली सुबह और दिल्लगी कहे या उत्तेजना, बरबस ही फ़ोन पर उंगलिया चलायमान हो चली। गुड मॉर्निंग रूपल। तत्काल ही गुदगुदाने वाला जवाब आया, सुबह सुबह याद करने के लिए शुक्रिया सर। रूपल, आप मुझे अचल कह सकती है, इतनी फॉर्मल होने की जरुरत नहींं। ओके अचल, मैं शाम को काम के बाद आराम से बात करते है। 


शाम तो क्या, दोपहर होते होते ही मेरा हाथ फिर फ़ोन पर चला गया। झिझकते झिझकते पूछा, लंच लिया ? बातो का सिलसिला ऐसा चला की काम का होश नहींं रहा। अगली सुबह रूपल का मैसेज मेरे उठने से पहले ही आ चुका था। वैसे उसका ऑफिस टाइम तो थोड़ी देर में था लेकिन सिर्फ मुझे गुड मॉर्निंग करने की खातिर उसने इतनी जहमत उठाई।

मेरे लिए तो जैसे जीवन का एक नया सफर शुरू हुआ था। रात दिन, बस रूपल का ख्याल, अभी क्या करती होगी? क्या आज देर तक काम कर रही है? क्या आज देर तक सो रही होगी? पल पल पर फ़ोन देखना, क्या वो ऑनलाइन है? रात में बार बार उठना और फ़ोन चेक करना, रूपल का मैसेज है? रातो की नींद और दिन का चैन तो जाने कहा खो गए थे? कही छुपा कर रखे गए जगजीत सिंह और मेहदी हसन की ग़ज़लें सीडी से निकल कर आईपॉड में समां गयी, “दुनिया किसी के प्यार में जन्नत से कम नहींं” की मधुर धुन से वातावरण को रूमानी बनाने लगी थी। जवानी के दिनों वाली बेचैनी, वही घबराहट, न काम में मन न परिवार में, हर और सिर्फ रूपल। मुझे प्यार हो गया था।


शेरो शायरी कविता की भाषा में चाहे प्रेम चाहे दिल का लगना हो, विज्ञान की दृष्टि में यह दिमाग़ का मामला है। ये, रतजगा, यह बिना कारण हँसना या रोना, बिन बुलाई उदासी या चिड़चिड़ाहट सब शरीर में प्रवाहित होने वाले हार्मोन्स का ही तो कमाल है। जब आप किसी को पसंद करने लग जाते है, तब मस्तिष्क में वैसोप्रेसिन और डोपामिन का संचार होता है, जिससे मन डांवाडोल हो जाता है और भूख हवा। दिल तेज धड़कता है और दिमाग जने अनजाने भय या ख़ुशी महसूस करता है। यह प्यार का सफर है, लेकिन कैसा? यह कैसा सफर था? जिसमे मेरा कोई साथी नहींं। यहाँ मैं एकदम अकेला था। किसके आगे अपने दिल के जज्बात खोलता। पत्नी के आगे? मुझे किसी से प्यार हो गया है? किसी सहकर्मी से कहता? और ये कोई रिश्ता भी है? आंदोलित मन को शांत करने एक एक ही इलाज था, एक शाम रूपल के साथ बिताना, अपना दिल खोलना।

मैं बेचैन था, तड़पन में था लेकिन प्रफुल्लित भी, किशोरावस्था के दिन लौट आये थे। आज तक यादे तजा है, कच्ची उम्र के पहले पहले प्यार की। क्या रोमांच था। क्या उत्तेजना थी। उस उम्र में आप तो आप, दोस्त भी फुले नहींं समाते थे उनके साथ सब कुछ साझा जो होता। यार, आज भाभी ने नीली ड्रेस पहनी है। और मिलवा कब रहा है? हम गर्व से कहते थे, अभी तेरा भाई तो ठीक से मिल ले पहले।


19–20 वर्ष की उम्र होती ही ऐसी है, कॉलेज में, रिश्तेदारी में और आसपास की लड़किया कई बार मन को भाती है। विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण सामान्य घटना जो है, लेकिन यह लड़की कुछ ख़ास थी। अहमदाबाद के पुराने शहर की गलियों में दोस्तों के साथ भटकने के आलावा और तो कोई साधन थे नहींं समय गुजरने के लिए। न इंटरनेट था न स्मार्टफोन्स, और टीवी भी तो कुछ ही घरो में आये थे। नयी फिल्मे गुरुवार को लगा करती थी और पहले दिन पहले शो का टिकट मिलना पराक्रमी को ही मिलता था। कुछ दोस्तों ने सिगरेट की लत लगा ली थी लेकिन मध्यमवर्गीय विद्यार्थियों को महंगे शौक रखने का भी हक़ तो नहींं होता। कॉलेज के बाद कुछ शामो को असीम के घर की बालकनी में कैरम की महफ़िल जमा करती थी। चाय की चुस्कियों के साथ आस पास नज़र यदा कदा चली जाती थी और वह दिन तो यादगार था, सामने वाली खिड़की से चाँद का टुकड़ा झांक रहा था। इतनी खूबसूरत आँखे मैंंने पहले कभी नहींं देखी थी, वह अदा, वह मुस्कान। लेकिन बस एक झलक दिखला कर वह तो बाल लहराते हुए अंदर चली गयी। दीदी ने हम सबकी भटकती हुई निगाहो को ताड़ लिया। बताया सामने मेहताजी के घर उनके भाई आये हुए है मुंबई से। स्कूल की छुट्टियाँ बिताने उनका पूरा परिवार हर साल आता है और यह उन्ही की बिटिया थी।


बस, हम सरे दोस्तों को कॉलेज और पढाई के बाद एक शगल मिल गया, बालकनी से जासूसी करने का। उस समय वह शायद अठारह या उन्नीस की रही होगी। कुछ दिनों की तांक झांक के बाद आखिर आँखे मिली। मैं अपने सारे दोस्तों से अच्छा जो था दिखने में, अंग्रेजी में हाथ तंग था लेकिन थोड़ी बहुत तो बोल ही लेता था। असीम, नितिन, सभी का अंदाज़ था की लड़की अगर भाव देगी तो अचल को, एक शाम को मैंंने बालकनी से उसे एक बड़ा पोस्टर दिखाया, लिखा कैन वि बी फ्रेंड्स? बड़ी अदा से वो मुस्कराई और अनदेखा कर गयी। मैंंने हार नहींं मानी, अगले दिन फिर वही, फिर पोस्टर द्वारा ही उसका नाम पूछा। आखिरकार उसका दिल पसीजा, सामने की खिड़की में भी एक बड़ा पोस्टर दिखा — आई एम श्रेया।


अगले एक दो दिन तो सिर्फ पोस्टर पर मार्किंग पेन से कुछ न कुछ संदेशो का आदान प्रदान होता रहा। पोस्टर छोटे पड़ते गए और दिल के भाव बड़े। अब अगले आईडिया पर अमल किया गया। एक कागज़ पर चिठ्ठी लिख कर उसे पत्थर में बाँध कर उसकी बालकनी में फेंका। एक छोटी सी कविता लिखी थी — किसी पत्रिका से चुराई हुई। अगले दिन उसका जवाब उसी तर्ज़ पर आया। एक प्यार भरी कविता थी जिसका अंतिम फिकरा था “ हाउ लकी आई ऍम टू बी इन व विथ यु”


मुझे तो पंख लग गए, ख़ुशी जैसे समा नहींं रही थी। बस बड़ो की नजरो से बचने की कोशिश पूरी थी लेकिन आस पास के सारे लड़को को पता चल गया था। कोई जलन से तो कोई कौतुक से देखता था। सलाहें भी मिलती थी, बच के रहना, बॉम्बे की तेज तर्राट लड़की है। मेरी माँ भी पूछने लगी थी की आजकल तो तेरी दिन रात असीम के यहाँ ही क्यों गुजरती है। लेकिन मुझे होश नहींं था। था तो बस रात दिन श्रेया का ख्याल, क्या कर रही होगी ? क्या पहना होगा? आज तो खिड़की का पर्दा तक नहींं लहराया। अगली कविता कब आने वाली है?


देखते देखते गर्मियों की छुट्टियाँ समाप्त हुई, छुपते छुपाते हम रेलवे स्टेशन तक गए। उसने परिवार से नजरे बचा कर ट्रेन की खिड़की से अलविदा का इशारा किया। हम दोनों की आँखों में आंसू थे। अब अगली गर्मियों में ही दीदार होगा। उसके जाने के बाद कितने दिन तड़पते हुए गुजरे। आँखें बंद खिड़की की ओर हसरत से देखती रही। चैन उस शाम आया जब डाकिया एक गुलाबी लिफाफा अपनी व्यावहारिक लापरवाही के साथ फेंक कर गया। गुलाब की पंखडियो से सुसज्जित दिल के बैकग्राउंड वाले लेटर पैड पर शेरो शायरी और लॉट्स ऑफ़ लव से भरपूर वो पत्र मेरी धरोहर बन गया था। कई महीनो तक मैं वो पत्र सुबह शाम पढता रहा। अगली छुट्टियों का इंतजार अब असहनीय हो चला था। दिन रात बस ये ही तमन्ना थी की कोई उससे मिलवा दे, बात करवा दे। यही तो प्रेम की परीक्षा है, इसी आग के दरिया में तपने वाले ही सफल प्रेमी होते है। ठण्ड गयी, कॉलेज के इम्तिहान हुए और अब फिर इंतजार की घड़ियां।


और इधर भी एक दर्दनाक इंतजार के बाद न्यू यॉर्क में दिन छोटे हो चले थे जब रूपल से पहली बार रूबरू होने की शाम आयी। क्यूपौला में पिज़्ज़ा खाते हुए उसने कुछ चौंकाने वाले खुलासे किये। वह तो शादीशुदा थी। उड़ता हुआ पति का करियर और खुशहाल ज़िन्दगी। लेकिन कही कोई कमी थी। व्यस्त और आधुनिक परिवारों में पति या पत्नी का किसी और के लिए आकर्षण नयी बात नहींं थी। खास तौर पर जब कोई सात समंदर पार अपने परिवार से, दोस्तों से दूर हो, चमक दमक भरे शहर में अकेला हो। लेकिन आखिर उसने अपने से इतनी बड़ी उम्र के रंगे बालो वाले में क्या देखा? शायद परिपक्वता में वो अपने किसी गुरु या मार्ग देशक या सहारा देते हुए हाथ को ढूंढ रही है? उसकी आँखों में बस अनुराग ही दिख रहा था। देर रात हम धीमी गति से ड्राइव करते हुए एक दूसरे के सुख दुःख सुनते रहे। हडसन नदी के किनारे पानी में लहराती हुई रोशनियों को तकते तकते कब जाने कैसे उसका सर मेरे कंधे पर झुक गया और फिर संयम का बांध टूट गया।


उसके बाद तो हम उन शामो का इंतजार करते जब उसका पति यात्रा पर होता और मुझे देर रात घर से बाहर होने के लिए बहाना होता। किसी मोटेल या रिसोर्ट में एक दूसरे में खोना तो शायद ऐसा हो गया था जैसे हम एक दूजे के लिए ही बने हो। अमेरिका में वैसे भी कोई इस रिश्ते पर ऊँगली उठाने की किसी को फुर्सत नहींं थी और न कभी मेरी पत्नी को शक हुआ की अधेड़ उम्र में पतिदेव किसी दूसरे ठौर पर मुंह मारेंगे। कभी कभी मन में एक अपराध बोध आता की यह अपने जीवन साथी के साथ धोखा है लेकिन नैतिकता और लालसा के घमासान के बीच वर्जित फल को भी मेरा मन जान बूझकर जायज ठहरा रहा था। क्या रूपल को भी ऐसा कुछ महसूस होता है मैंंने कभी पूछने का साहस नहींं किया।


अहमदाबाद तो क्या पुरे गुजरात में मकर संक्रांति बड़ी धूम धाम के साथ के साथ मनाई जाती है। पतंग उड़ाना एक शौक नहींं बल्कि धर्म, एक जनून होता है। आज सारे शहर की जनता अपने घरो की छतो पे तेज आवाज में टेप रिकॉर्डर पर क्या गुजराती क्या पश्चिमी और क्या बॉलीवुड की धुनों पर थिरकते हुए काइपो छे गूंज रही थी लेकिन मेरा मन पतंग में नहींं था। आज श्रेया का जन्मदिन है लेकिन मैंं उसे जन्मदिन का शुभकामना सन्देश भी नहींं दे सकता। ये तो वो जमाना था जब प्रेमी अपनी प्रेमिका को अपने खून से चिठ्ठी लिख कर भेजा करता था लेकिन मुझे उसके पते पर चिठ्ठी नहींं लिखने की सख्त ताकीद थी। तय समय पर उसका फ़ोन आया। एस टी डी सेवा तब घर घर आ चुकी थी और ट्रंक कॉल लगाकर उबाऊ इंतजार करने के दिन बीत चुके थे। दो मिनट की बात मेरे लिए लाखो से भी कीमती थी और उसके साथ ही मेरी संक्रांति सार्थक हुई।


धीरे धीरे इंतजार के पल पीछे छूटे, परीक्षाओ के समापन के साथ ही गर्मियों की छुट्टियाँ और फिर हमारा वही खिड़की पर इंतजार करना अब असहनीय हो चला था। इस बार श्रेया विश्वविद्यालय में प्रवेश ले रही थी। अतः थोड़ा बहुत बाहर घूमने की अब स्वतंत्रता थी, लेकिन अकेले नहींं। छोटी बहन हालाँकि खुले विचारो वाली थी इसलिए हम एक तो क्या और भी कई बार मुलाकात कर पाए। और क्या यादगार शामें थी वो। एक दूसरे की आँखों में आँखे डालकर लगता था वक्त जरा ठहर जाये। वासना का उस उम्र और उस इंटरनेट पूर्व युग में एक कोमल मन की उत्सुकता से ज्याद कोई रोल नहींं था। इसलिए हलके फुल्के चुम्बन के आगे कोई बात बढ़ी नहींं, सोची भी नहींं। वह प्यार मोहब्बत वाला वक्त ठहरा नहींं लेकिन फिर कभी आया नहींं। अगली गर्मियों में सामने वाली खिड़की सुनी रही क्योकि इस साल उसका परिवार यूरोप में गर्मियाँ मनाना चाहता था। वैसे भी बॉम्बे की चहल पहल भरी ज़िन्दगी जीने वाले को अहमदाबाद की गलियों में क्या मजा आएगा। मेरा ग्रेजुएशन कम्पलीट हो चला था और आगे की पढाई, प्रतियोगी परीक्षाएं और कोचिंग इत्यादि ने इतना व्यस्त कर दिया था की श्रेया की याद की तड़पन से बढ़ कर अब परिवार का दबाव अधिक भारी हो चला था। एक आत्मविश्वास था की जैसे ही करियर रस्ते लगा, मैं अपने और श्रेया के बारे में घर में बात करूँगा। पत्र आना तो बंद से हो गए थे, मैं तय समय पर हमेशा फ़ोन करता था और श्रेया की जगह किसी और की आवाज सुन कर काट दिया करता था। यदा कदा बात होती भी तो संक्षिप्त सी, शिकायत करने तक का हक़ शायद छूट चुका था, लेकिन सांत्वना हमेशा मिलती थी, अहमदाबाद या मुंबई में मिलेंगे तब ढेर सारी बाते होगी।


माध्यम वर्गीय प्रतिभाशाली छात्रों के लिए जॉब मिलना भी कोई एवेरेस्ट फतह से काम नहींं होता। पहली तनख्वाह का क्या कोई मोल हो सकता है? माँ ने तनख्वाह कभी पूछी नहींं लेकिन सावधानी और किफ़ायत बरतने की सलाह हमेशा मिलती रही। पहली बार मैंंने श्रेया के लिए कोई महँगा उपहार खरीदा। एक खूबसूरत सी दिल के आकार वाली अंगूठी। घर में माहौल बनाया, बहुत दिन हो गये है पढाई और काम करते हुए। ब्रेक लेना चाहता हूँ। किसी को क्या आपत्ति होती, पहली बार दोस्तों या परिवार के बिना शहर के बाहर जाने का अवसर था यह। मुंबई में मामा ने दिल खोल कर स्वागत किया, भाइयो ने कुछ कुछ प्लान बना रखे थे लेकिन मेरा उद्देश्य तो कुछ और ही था। आखिर श्रेया से बात हुई। मैंं मुंबई आया हुआ हूँ। सुनकर उसकी प्रतिक्रिया में वो किलकारी, वो बेसब्री, वो अपनापन कही नहींं दिखा। लेकिन उसने मिलने का वादा किया। मरीन ड्राइव के एक महंगे पिज़्ज़ेरिया में उससे मिलन और वहां कभी खाना खाना भी सपना साकार होने की तरह था।


पॉश पिज्जा बाय दबे में कसीदाकारी वाले टेबल क्लॉथ पर सुर्ख गुलाब और मोमबत्ती की रोशनी से सुसज्जित टेबल पर मैं और श्रेया आमने सामने बैठे। अंगूठी की डब्बी मेरी पिछली जेब से बदन को चुभो रही थी और कभी भी निकल पाने के लिए बेताब थी। अरब सागर की लहरों को ताकते और विदेशी -देशी ग्राहकों की खिलखिलाहट के बीच श्रेया की आवाज गंभीर हो चली थी। अचल अच्छा हुआ तुम वक्त निकल कर मुंबई आ गए वर्ना मुझे अपना दिल खोलने के लिए पता नहींं कितना इंतजार करना पड़ता। फ़ोन पर कुछ कहना उचित नहींं होता। उसकी बात पूरी होते होते मेरी दुनिया उजड़ चुकी थी। श्रेया अब उसके सहपाठी के साथ गहरी दोस्ती में थी। धीरज एक बड़े व्यापारी का बेटा था इसलिए श्रेया को भी विश्वास था की उसके माता पिता उस रिश्ते से खुश ही होंगे।

मेरी आँसू थमने का नाम नहींं ले रहे थे, अंगूठी की डब्बी अब बदन को नहींं बल्कि दिल में नश्तर चुभी रही थी। चर्च गेट से ट्रेन का सफर मैंंने शुन्य में ताकते हुए गुजारा। मेरे गंतव्य से मीलो आगे अपने अंतिम स्थानक पर ट्रेन के पहुँचने पर ही मेरी तन्द्रा जागी। क्यों मैं इतना बदकिस्मत हूँ? प्रभु ने क्या उदास बनाने के लिए ही जीवन दिया था? ऐसा मेरे साथ ही क्यों? अब मुंबई में रुकने का कोई मतलब नहींं रह गया था। श्रेया के आखिरी शब्द, अचल बचपना छोडो, कमजोर न बनो। अब हम सब व्यावसायिक दुनिया में कदम रख रहे है। उसने कितनी आसानी से कह दिया था।


तो क्या सचमुच दुनिया ख़त्म हो चुकी थी? मेरे पीछे मेरा पूरा परिवार आस लगा कर बैठा है, कितना कुछ करना बाकि है ज़िन्दगी में। लेकिन कैसे करूँगा? जिसके लिए करना चाहता था वो तो किसी और की हो चुकी थी। लेकिन क्या वो सचमुच मेरी थी? मामूली खत मुलाकात प्यार नहींं सिर्फ बचपना है। मर्द अगर हिम्मत खो दे तो मर्द ही क्या। जीवन का चक्र तो निरंतर चलना है और सांसारिक जिम्मेदारियों को निभाना इश्क़ मोहब्बत से कई गुना महत्वपूर्ण है। समय का सम्मान करो और हिम्मत रख आगे बढ़ते चलो। मेरे दोस्त, मेरा परिवार, और मेरी आशावादी प्रवृत्ति मुझे जरूर फिर से जीने की कोई नयी वजह देंगे। बस यही सोचते समझते मैंंने आघात सहा, फिर से अपने आपको मजबूत बनाया।

ओफेलिया बार की पार्टी हुए साल हो चला था। इस माह न्यू यॉर्क कड़ी ठण्ड की गिरफ्त में था। भरी बर्फ़बारी की वजह से गतिविधिया जैसे ठप्प थी। ऐसे में रूपल की चुप्पी दिल तोड़ने वाली थी। शायद उसका पति भी घर पर ही है? लेकिन एक गुड मॉर्निंग मैसेज का जवाब देने में कितना टाइम लगता है? पल पल फ़ोन देखता, मैसेज टोन आने पर लगता रूपल का होगा लेकिन निराशा का सिलसिला चलता रहा। सप्ताहांत बीता, वियोग सहन सीमा के पार हो चला। मैंंने हिम्मत करके फिर मैसेज भेजा, जवाब में एक हल्का सा हाय, उम्मीद फिर जगी। लंच टाइम, कॉफ़ी ब्रेक, आखिर शाम को उसने कहा, अचल आप समझने की कोशिश करे, मैं शादीशुदा हूँ, मेरा परिवार है, जॉब में नयी नयी चुनौतियां है। थोड़ा सब्र रखे।


लेकिन सब्र का सैलाब कभी रुकता है? कभी तुम जीने मरने की कस्मे खाती थी और अब अचानक? मुझे पूरा अहसास था की वो परिवार वाली है। शायद अब प्रेगनेंसी की योजना बन रही हो? मैं पूरी तरह से वाकिफ था की हमारे रस्ते अलग अलग है पर फिर भी। मैं समझ पा रहा था की उसे कई साल बड़े व्यक्ति में एक मेंटर तो दिखा ही, गोपनीयता, निजता और सुरक्षा की गारंटी थी। अब अहसास हुआ की हकीकत में ये सब उसकी वासना थी? मैंं उसे लगातार मैसेज करता रहा। पूरे तीन हफ्ते हो गए थे, नींद तो जैसे दुश्मन बन गई थी। प्यार और दर्द के हार्मोन पर जवाबी हमला करने के लिए मैंंने एंडोर्फिन के संचार का सहारा लिया, जिम गया, दौड़ने गया, मैंडिटेशन किया लेकिन सब व्यर्थ। उसकी याद तड़पाती रही, भूख प्यास, अपनों से प्यार सबका साथ छूट गया था।


दिन फिर हफ्ते और अब महीना होते होते मेरी स्थिति दीवानो जैसी हो गयी थी। प्यार का मीठा मीठा दर्द अब कसकने लगा था। पंकज उधास और मेहंदी हसन की जगह तलत महमूद और गुरुदत्त की धुनों ने ले ली थी। ऐसे में नशा सबसे वफादार साथी हो जाता है। सिगरेट न पीने की चेतावनी देती हुई पत्नी की तरेरती हुई आँखें अब डराती नहींं थी। रूपल से संपर्क करने के सारे रस्ते एक एक बाद बंद होते जा रहे थे। एक दिन उसका दिल शायद पसीजा। बात करने का, उसे छूने का, उसकी बदन की खुशबू महसूस करने का एक मौका भी मैं गवाना नहींं चाहता था। मिलने का वादा हुआ और फिर बड़ा वज्रपात, वह इस रिश्ते को जारी नहींं रखना चाहती थी

आखिर क्या हुआ? मन भर गया? त्रिया चरित्र। यह सचमुच वासना थी जो की समय के साथ ढलान पर आ गयी थी।


उसके लिए तीस वर्षो के भीतर मैं दूसरी बार तबाह हुआ था। यह बर्बादी उन्ही शब्दों के साथ आयी थी "अचल आप बच्चो जैसी बाते कर रहे है। कृपया सज्जन बने। बचपना छोड़े। आप एक परिपक्व और करियर वाले है। मेरे निर्णय का सम्मान करे"


एक बार फिर आँसुओ की मूसलाधार हुई। किसे बताऊ? दोस्त को? सहकर्मी को? ये दुःख क्या पत्नी बाँट सकती है? यहाँ कोई परेशान दिखता है तो बिन मांगी सलाह नियत होती है। प्रभु की शरण में आ जाओ, जीसस हमारे पाप हरने के लिए ही आये थे। लेकिन मेरी गीता में भी तो वो ही ज्ञान है। क्या वो सचमुच तबाही थी ? क्या वो मेरी थी? शायद वासना को प्यार के रूप में देखने की भयंकर भूल तो मैंंने ही की थी। वक्त धीरे धीरे सारे जख्म भर देगा और वक्त कितना भी गुजरे, एक टीस, एक कसक तो सदा सदा के लिए रहेगी। और कौन जाने उन जख्मो को छेड़ने फिर कोई आ जाये?


कई दिनों के बाद मुझे आज अपने परिवार का साथ याद आया। बच्चो के कमरों में झांक कर उन्हें प्यार से देखा। परिवार के फोटो एल्बम पलटने का मन किया और फिर किसी तरह नींद के आगोश में जाने की कोशिश। साथ सोयी हुई पत्नी के कंधे पर मैंंने अपना सर रखा, उसने कुनमुना कर अपना हाथ मेरे गाल पर लगा दिया, आँसुओ का गीलापन तो शायद वो नहींं महसूस कर पायी लेकिन दिल की तेज धड़कनो को सांत्वना देते हुआ कहा, "सो जाओ, सुबह जल्दी काम पर जाना है"


तो ये अंत भी तीस साल पुराने जैसा ही है । सब कुछ हार कर भी जो फिर खड़ा हो वही मर्द है। उम्र यूँ सीढ़ी नुमा चाल से चलती जानी है। ख़ुशी और गम का एहसास लगातार कराती जानी है। मंज़िल पर पहुँचना ही होगा। तू चला चल, जाग्रत हो, मोह माया पर विजय प्राप्त कर, पराक्रमी बन।


आज जब में गॉसिप कॉलम देख रहा हूँ तो अनूप जलोटा अपने प्रेम सबंध टूटने की पुष्टि कर रहे है। जसलीन मथारू के माता पिता का उतरा हुआ लेकिन चिंता मुक्त चेहरा चैनल्स पर छाया हुआ है और फिर सोशल मीडिया पर बहस।


नैतिकता की जीत हुई। लेकिन क्या सचमुच? नैतिकता हारी ही क्यों थी?


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