Shirish J

Others

4.6  

Shirish J

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ओ. टी. नं 8

ओ. टी. नं 8

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दर्द निवारक इंजेक्शंस का नशा, चोटिल होने का क्षोभ और थकान के अतिरेक के मिले जुले बोझ से उनींदी आँखो को कहीं दूर से आती हुई आवाज़ों ने कुछ हरकत सी दी। एक उद्घोषणा सी हो रही थी, " अब हमारा विमान उड़ान के लिए तैयार है, टेक ऑफ के लिए अपनी कुर्सी की पीठ सीधी रखे, ट्रे को बंद कर ले और सीट बेल्ट्स बाँध ले, मोबाइल का उपयोग अब वर्जित है।"


एक आदत की ख़ातिर शायद मैंने सीट बेल्ट बांधने के लिए हाथ उठाया होगा कि दर्द की लहर ने सारी चेतना जाग्रत कर दी। बाये हाथ में प्लास्टर था और दाहिने में ड्रिप। सर्जिकल वार्ड की मद्धिम रौशनी में आवाज़े अब साफ हो चली थी, सादे मेक अप में सजी मेरी जानी पहचानी नर्स ऐलिस कह रही थी " डॉ। समीर, ऑपरेशन की तैयारी हो चुकी है, हम आपको थिएटर में ले चलने के लिए आये है।" मैंने मुस्कुराने की असफल कोशिश की। कहा "एलिस मेरे ही इलाके में मुझे ले जाने के लिए आपकी क्या जरूरत, मैं खुद चलकर जा सकता हूँ।" नहीं डॉक्टर समीर, आज आप खुद पेशेंट है, हॉस्पिटल नियमों के मुताबिक, आप ट्राली पर ही जायेंगे।" एक क्लिक की आवाज़ के साथ ट्राली का ब्रेक रिलीज़ हुआ, और एलिस के सधे हुए हाथों से धकती गयी ट्राली एल ई डी बल्बों से रोशन कॉरिडोर से होती हुई ऑपरेशन सूट में दाखिल हुई। जगमगाहट से अभ्यस्त होने की कोशिश करते करते आँखो के सामने कितनी ही यादें तैरने लगी, यह वार्ड, यह ऑपरेशन सुईट, यह रोशनियाँ, नर्से सब अपना घर परिवार जैसे ही तो है। पारिवारिक मकान से ज्यादा अपनापन था इन दीवारों में।


ट्राली पर लेटे लेटे अपने सामने से गुजरती लाल नीली बत्तियाँ मन में आज कुछ अलग ही भाव जगा रही थी। देखते देखते ओ टी १२, ११, १०, और ९ के साइन बोर्ड कहीं दूर जाते गए और ट्राली ओ टी 8 के बाहरी कमरे में पार्क कर दी गयी। पहली बार मैंने महसूस किया की मरीज ओ टी में जाता तो सर की ओर है लेकिन निकलते समय पैर पहले बाहर आते है। तो अंतिम यात्रा से कुछ अलग है यह रस्म।


ओ टी इंडक्शन रूम में ट्राली पहुंचते है चहल पहल शुरू हो गयी, तरह तरह की चेक लिस्ट, मरीज़ का सामान, ऑपरेशन के पहले दी गयी दवाओं की खात्री, पेपरवर्क सब कुछ एक यांत्रिक तरीके से। एक नर्स मेरी छाती पर इ सी जी लगा रही थी तो कोई गर्म कम्बल ओढ़ा रहा था। इस अफरा तफरी के बावजूद मुझे थकन ने फिर अपनी गिरफ्त में ले लिया। सचमुच, एक ही दिन में क्या क्या हो गया था, एक सेकंड के अंश मात्र में हुई घटना ने कितना कुछ बदल दिया था, कल ही की तो बात थी, रोजमर्रा की तरह व्यस्त दिन, सुबह मेडिकल कॉलेज में क्लास, पूरे दिन ऑपरेशन और फिर शाम का वार्ड राउंड होते होते डा कार्तिक का फ़ोन आ गया था, सारे मित्र टेनिस कोर्ट पर इंतजार में थे। शरीर को थकाने वाले लेकिन मन को ठंडा रखने वाले टेनिस सेशन के लिए मना करने का तो सवाल ही नहीं था, मैं खाना पीना भूल कर कोर्ट पहुंचा, तीसरा या चौथा सेट था जब नेट के नज़दीक गिरती बॉल की ओर छलांग लगाने की कोशिश में पैर फिसला, गिरने से बचने के लिए मेरा हाथ ज़मीन पर तेजी से टकरा गया, कलाई में आती सूजन और तिरछा आकार अंदर पहुंची चोट को साफ़ बयां कर रहा था। मेडिकल टेक्स्ट बुक्स में पढ़ी सारे सिद्धांत तत्काल ही दिमाग़ पर हमला कर बैठे। दर्द का अहसास दिलाने वाले हॉर्मोन ए सी टी एच, स्टेरॉयड, एंडोर्फिन आदि को स्त्रावित होने में अभी समय था लेकिन मेरा मेडिकल ज्ञान पहले ही डराने लग गया, पता था अभी सूजन बढ़ेगी और बढ़ेगी ह्रदय गति साथ ही ब्लड प्रेशर। शायद कुली'ज़ फ्रैक्चर है, दर्द से बढ़ कर तनाव सता रहा था, हफ्तों के लिए प्लास्टर, फिर फिजियोथेरेपी, पता नहीं कैसे काम कर पाऊंगा?


साज सम्हाल के साथ मुझे इमरजेंसी रूम में पहुंचाया गया, एक्स रे होने के कुछ मिनटों में ही हैंड सर्जरी चीफ डॉ श्रीनिवासन का फ़ोन आ गया था " समीर फ्रैक्चर काफी ख़राब है, सर्जरी ही एक ऑप्शन है, प्लास्टर लगाने भर से यह ठीक नहीं होगा। अब तो मेरे दुःख का कोई पैमाना नहीं था, इतनी लम्बी छुट्टी? इतने सारे पेशेंट्स के अपॉइंटमेंट्स है, कितने ऑपरेशन कैंसिल करना पड़ेंगे? अपने से ज्यादा अपने मरीजों का दुःख। सारे दोस्त दिलासा दे रहे थे, समीर अभी अपने आप का ध्यान रखो, काम तो होता रहेगा। सांत्वना से बढ़ कर राहत अगर मुझे मिली तो इंजेक्शन के नशे से।


ऑपरेशन थिएटर की छत से आती चुभने वाली रौशनी ने फिर नींद को तोड़ा। सीनियर एनेस्थेटिस्ट डॉक्टर वैशम्पायन मेरा कन्धा थपथपाते कह रहे थे, समीर तुम और तुम्हारा स्पोर्ट्स क्रेज, कितना कहता हूँ, खेलने के पहले थोड़ा स्ट्रेचिंग किया करो, डाइट का ध्यान रखो और दिन में थोड़ी धूप भी सेका करो, देखो कितना विटामिन डी कम है तुम में। मैं जबरदस्ती फीकी सी हँसी हँसा तो डॉ वैशम्पायन का लहजा तत्काल ही व्यवसाय सुलभ हो चला, समीर तुम बरसों से ऑपरेशन के जोखिम अपने मरीजों को बताते आ रहे हो, आज तुम्हारी बारी है सुनने की, जनरल और रीजनल अनेस्थिसीया के अपने फायदे और तकलीफ़ है। ऑपरेशन का सहमति पत्र साइन करते करते मेरी बगल में एनेस्थीसिया का इंजेक्शन लगा दिया गया और मैं फिर नींद की गहराई में डूबने उतरने लगा। हरे टॉवेल्स मेरे शरीर पर बिछा दिए गए, यदा कदा नींद खुलती तो टॉप लाइट के रुपहले चमकीली सतह पर मुझे अपने पर हो रहे ऑपरेशन की झलक दिखाई पड़ती, मेरे चेहरे और सर्जन के बीच में एक पर्दा लगा दिया गया था लेकिन छत के लैंप शेड पर दीखते अक्स में मैं डॉ श्रीनिवासन की टीम को मेरे बेजान हो चुके हाथ पर कलाकारी करते हुए देख पा रहा था। बहता हुआ खून, उघड़ी हुई हड्डियों पर चलती ड्रिल मशीन, सुनारी जैसा बारीक काम लुहारी की गति से होता हुआ। यही सब तो मैं भी वर्षो से करता आ रहा था। कितने ही मरीजों के शरीर पर टांको के निशानों को में अपने हस्ताक्षर की तरह दिखा कर गर्व किया करता था। आज वह सब मेरे ऊपर किया जा रहा है, इस अहसास ने डरा सा दिया, आस पास लगे मॉनीटर्स की आवाजें अब अपनी नहीं वरन दिल दहलाने वाली लगने लगी थी।


अठारह वर्ष का था जब ऑपरेशन थिएटर में पहली बार अपनी उत्सुक लेकिन डरी हुई निगाहों को ले कर कदम रखा था। सहमे हुए, बेआवाज हम ऍम बी बी एस द्वितीय वर्ष के छात्र टेबल से काफी दूर बनी कांच की दीवार के पीछे खड़े तक रहे थे। हरी क्रीम दीवारों वाले कमरे के मध्य में रौशनी से नहायी ऑपरेशन टेबल एक भव्य तस्वीर की तरह लग रही थी और गाउन बांधते कॉंफिडेंट कदमों के साथ टेबल की और जाते सर्जरी विभाग के चीफ प्रोफेसर वशिष्ठ किसी सेलिब्रिटी की तरह ही दिख रहे थे। जैसे ही प्रोफेसर वशिष्ठ के दक्ष हाथों ने चाकू चलाया, पेट पर लगे चीरे से खून का फव्वारा सा उछला और देखते ही मैं और मेरा साथी गश खा कर गिर पड़े। ओ टी में अफरा तफरी मच गई। प्रोफेसर वशिष्ठ की तरेरती हुई आँखें मुझे आज तक याद है। तब लगता था की यह कैरियर शायद मेरे बस की बात नहीं। लेकिन समय के साथ मेरा स्वभाव बदला, माता पिता का सपना पूरा करने का जोश और सीनियर्स के प्रोत्साहन के चलते एम् एस की थका देने वाला समय सहज ही निकल गया, उसके बाद लंदन के किंग जॉर्ज हॉस्पिटल में ट्रेनिंग, पिट्सबर्ग में फ़ेलोशिप के साल तो जैसे पंख लगा कर उड़ गए। घर वापसी पर अपने ही मेडिकल कॉलेज में सेवा करना तो जैसे एक सपना पूरा होने के सामान था। लेकिन इस बेहोशी में पता नहीं चला के कब उम्र चालीस के नज़दीक पहुंच रही है, बच्चों के लिए कितना कुछ करना है और बचत के नाम पर शून्य। आप व्यक्ति क्या सरकार भी कभी एक डॉक्टर की संघर्ष गाथा नहीं समझ सकती। कितने ही कॉलेज के साथी अब तक सेटल हो चुके है और हम? लेकिन फिर भी कुछ बात है इस यात्रा में, अस्पताल का, काम का नशा किसी भी सम्पन्नता को फीका कर सकता है, ओ पी डी के बाहर कतारबद्ध पेशेंट्स, आधुनिक उपकरणों से लैस ऑपरेशन रूम्स , ओ टी के बाहर बैठे रिश्तेदारों की आशा, रात दिन मेहनत करते जूनियर डॉक्टर, काम के बोझ में भी मुस्कुराती नर्स, और इन सबसे बढ़कर किसी को जीवन परिवर्तन करने की संतुष्टि कही और मिल सकती है ?


आखिरकार मैंने डॉक्टर श्रीनिवासन की आवाज़ सुनी, समीर, अब टांके लग रहे है, कुछ ही देर में तुम्हें वार्ड में शिफ्ट कर दिया जायेगा।


तो यह यात्रा कुछ अजीब थी। शायद विमान यात्रा से थोड़ी अलग, यहाँ सिर्फ एक ही यात्री था। विमान में जैसे आप अपना जीवन विमान के कप्तान पर के भरोसे छोड़ देते है, यहाँ भी अपना सर्वस्व आप अपने डॉक्टर पर विश्वास के साथ सौंप रहे है, टेक ऑफ और लैंडिंग के पहले और बाद की चेकलिस्ट, इन सबके पीछे छुपा प्रिसिशन, टीम वर्क, टीम के हर सदस्य की मुस्तैदी, वही सब कुछ यहाँ उतनी ही बड़ी टीम के जिम्मे था। यात्रा के दौरान पायलट जैसे एक लीडर होता है वैसे ही लीडर यहाँ सर्जन और अनएथेस्टिस्ट थे, परिचारिकाओं की तरह ही सारी टीम मेरा ध्यान रख रही थी, समय समय पर खाना या ड्रिंक्स नहीं बल्कि हर मिनट देखभाल।


ट्राली बहार निकलते निकलते फिर वही सरे साइन बोर्ड्स सामने से गुजरे, ट्राली धकाती नर्स चिकोटी काटती कटाक्ष कर रही थी, डॉ समीर इतने साल आपकी नसीहते सुनते गुजारे है, आज पहली बार काबू में आये है, आपको पूरा अनुशासन में रखेंगे हम लोग, अच्छे मरीज़ की तरह व्यवहार करना हां !! साइड में चलते डॉक्टर्स के चेहरे पर अचीवमेंट के भाव थे। दीवार घड़ी सात बजा रही थी, मतलब पांच घंटे से डॉ। श्रीनिवास डॉ वैशम्पायन और उनकी टीम अथक मेहनत में लगी थी, क्या लंच, क्या चाय कॉफ़ी, सर्जन के लिए तो काम ही कैलोरीज है, मैंने मन ही मन सारे डॉक्टर्स, नर्सेज और पूरी ऑपरेशन थिएटर की टीम को नमन किया।


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