जवाब दो भगवन !

जवाब दो भगवन !

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पता नहीं क्यों आज माँ की बहुत याद आ रही है. पापा का अकेलापन देख कर मां और भगवान दोनों पर बहुत गुस्सा आता है. क्यों कहते हैं कि शादी जीवन भर का साथ है, जब साथ को बीच रास्ते में छुड़वा देते हो, भगवान जी? कहा तो यह भी जाता है की जोड़ियां ऊपर से बन के आतीं हैं, तो कुछ तो सही हिसाब रखिये. कम से कम दोनों की उम्र कुछ तो बराबर सी हो. आज २४ साल हो गए मेरी मां को अपने पास बुलाये हुए और २१ साल से पाप मेरे साथ हैं. अंतहीन अकेलापन और क्षीण होता स्वास्थ्य क्या मृत्यु से बदतर नहीं है?

उमा जी मन ही मन में भगवान से यूँ ही गडमड बातें किया करतीं हैं. उम्र उनकी भी काम नहीं है... कभी कभी मन सालने लगता है, शायद यह पिता की जिम्मेदारी. आखिर मां होती तो दोनों अपना जीवन जीते, अपने घर में... मां का घर, मायका, इससे तो नाता उस दिन ही ख़तम हो गया, जब मां ने ऊपर अपना घर बना लिया. हाँ, स्वर्ग में. स्वर्ग इसलिए की वह कहीं और जा ही नहीं सकती. इतनी शुद्ध आत्मा. कभी किसी  से द्वेष नहीं, किसी की बुराई नहीं, सभी के ज़रूरत पर काम आना और कोई चारसोबीसी नहीं. लगता है, अब तो साँसे ख़तम होने पर ही मायके वाली चैन की नींद नसीब होगी.

५५ साल की भी कोई उम्र होती है जाने की? उमा जी आजतक समझ ही नहीं पायीं की मां को पेट का कैंसर हुआ कैसे? घर की उगी हुई आर्गेनिक सब्जियां, सिगरेट-शराब का कोई ऐब नहीं तो फिर यह खतरनाक रोग कैसे? बस चस्का था तो चाय पीने का. चाय से कैंसर, कभी सुना नहीं. उमा जी ने सोचा, चलो आज गूगल कर के पता करूँगी की चाय से भी स्टमक कैंसर होता है क्या?

उमा जी का मन आज बड़ा बेचैन है. पाप का अकेलापन देखा नहीं जाता. और उम्र के साथ, उनके पुराने दोस्त भी एक एक कर के साथ छोड़े जा रहे हैं. कभी कभी वह अपने को पापा की जगह रख कर सोचती हैं कि ऐसे बिना उद्देश्य के जीवन को जीना नहीं, ढोना कहेंगे. पापा ने मां के जाने के बाद, धीरे धीरे सभी दोस्तों को अपने से दूर होते देखा है. माँ -पापा का जीवन बहुत ही दोस्तों से घिरा हुआ था. मम्मी के जाने के बाद, ६-८ महीने तो सभी लोग आते-जाते रहे, पर फिर आंटियों को कोई कंपनी न होने के कारण धीरे धीरे, पहले अंकल बिना आंटियों के आने लगे, फिर सभी अपनी जिंदगियों में व्यस्त होते गए और पाप बिना जीवन साथी और दोस्तों के रह गए.

मेरे ख़ुशदिल पापा एक दम सिमट के रह गए, बस अपने आप में. अब आस्था चैनल और धार्मिक ग्रंथों में उन्होंने अपना साथ ढूंढ लिया. पता नहीं, कैसे कर पाए होंगे वह यह सब? एक दम, अपने को सब से अलग कर के? उमा जी सोचने लगी, पता नहीं, वह कैसे ऐसे हालात का सामना करेंगी, अगर वह अकेली रह गयीं तो? पापा के तो दोनों बेटियां  थी, उन्हें तो दूसरे घर जाना ही था. पर उनके तो बेटे हैं, दो दो बेटे, पर अकेली तो वह भी रह रहीं हैं.

रिटायरमेंट के बाद, उमा जी और सुरेश जी ने यह निर्णय  लिया, की वह अपने पुत्र के साथ नहीं बल्कि अकेले रहेंगे. अपनी स्वतंत्रता उन दोनों को बहुत प्यारी थी. उमा जी सोचतीं थी की अब तो बच्चे इंडिपेंडेंट  हुए हैं तो अब चैन से दोनों खूब घूमे फिरेंगे. बच्चों के साथ रहो तो, उनकी गृहस्थी  संभालो, रोज के काम-धंधे, फिर बच्चे संभालो. करो सब, पर क्या कुछ अधिकार मिल पाएंगे? नहीं, वह इस तरह के जीवन के लिए तैयार नहीं थी.

आज उमा जी के मन में पापा को देख कर ऐसा लगा की अब तो पापा का वनवास ख़तम होना चाहिए. ८७ वर्ष की आयु और अकेलापन ढोते ढोते बस अब तो उनके कदम भी लड़खड़ाने से लगे हैं. पहले तो सुबह सैर करने चले जाते थे. १५-२० मिनट सैर की, फिर कुछ प्राणायाम किया,  घंटे भर ताज़ी हवा में घूम-फिर कर आते थे. अब हिम्मत ही नहीं होती. घर में ही रह जाते हैं. नींद भी सुबह जल्दी खुल जाती है. शुक्र हैं, DTH  का, जो टाइम पास हो जाता है. यूँ तो पापा ने अपने दिन को कई भागों में बाँट रखा है. सुबह ६ बजे तक पूजा, फिर थोड़ा सा प्राणायाम , सुबह की चाय बालकनी में पीते हैं, बस यहीं उनका अपने कमरे से बाहर की आउटिंग होती है. समाचार पत्र के आने का इंतज़ार और आते ही उसकी एक एक लाइन बांच लेना. सुबह ८ बजे तक का समय तो देश दुनिया की बातों को जानने में कट गया. फिर बस सुरेश जी के उठते , पापा अपने कमरे की जेल  में बंद हो जाते हैं. हाँ जेल ही तो है, जो मम्मी उन्हें दे गयीं हैं, अकेलेपन की जेल. लगता है, मम्मी और ऊपरवाले की कोई मिली भगत है. अब उन्हें इस एकाकीपन की जेल से मुक्ति मिलनी चाहिए. इस विचार के साथ उमा जी अपने को धिक्कारने भी लगती हैं. क्या कोई अपने पिता की मृत्यु की कामना कर रही हैं?

और फिर उनकी आँखों के सामने बचपन से जवानी तक के सारे लमहें एक फिल्म की तरह से घूम जाते हैं. पापा की उंगली पकड़ के रात में डिनर के बाद बाहर आँगन में धमाचौकड़ी करना, जब तक मम्मी किचन समेट कर नहीं आ जाती थी. फिर मम्मी पापा के बीच में दोनों के हाथ पकड़ कर भागना. उन दिनों वह अकेली थी, छोटी बहन का जन्म नहीं हुआ था. पापा मम्मी के साथ स्कूल जाना. और हर संडे को पापा के साथ सब्जी मंडी जाना. पता नहीं क्यों, पर नन्ही उमा को यह बहुत पसंद था. वहां पापा तो अंदर सब्जी- भाजी, फल इत्यादि लेने जाते, और वह  स्कूटर पर बैठ कर स्कूटर की देख-भाल करती. पापा भी यही कहते थे, स्कूटर का ध्यान रखना है. और जब पापा आते तो वह गर्व से भर जाती कि उन्होंने स्कूटर सुरक्षित रखा.  

एक हलकी सी मुस्कराहट उन के होंठों  पर आ गयी, क्षण भर को वह वापस सब्जी मंडी ही पहुँच गयी थी. फ्रॉक संभाल कर स्कूटर की पिछली सीट पर बैठे होने का अहसास. अब तो स्कूटर पर बैठे हुए भी मुद्दत हो गयी.

कॉलेज में भी एक लेक्चरर से झगड़ा कर लिया था, और टीन एज उमा ने कॉलेज जाने से मन कर दिया था, तब पापा ही "सर" से बात कर के सभी सुलझा कर आये थे. शादी में पापा का सुबकना और जीवन कि किसी भी परेशानी में एक ढाल के तरह खड़े हो जाना. अगर सच कहूँ तो आज भी उन के होने का अहसास एक सुरक्षा कवच सा है, यह जानते हुए भी कि अब वह तो बस अपने को ही संभाल ले तो बहुत है.

पर उनका अकेलापन देख कर लगता है, कब तक, भगवन?

शाम के ५ बज रहे थे, चाय का वक़्त था. उमा जी चाय बनाने उठी. चाय कि ट्रे ले कर पापा के कमरे में गयी, तो पापा आँख बंद करे लेटे हुए थे. उन्होंने हलके से आवाज दी, वह ज़रा भी न हिले. वैसे भी पापा बेवक़्त लेटते नहीं हैं. उनके हाथ कांपने लगे. ट्रे रख कर पापा को हिलाया. पर वह उठे ही नहीं. चेहरे का सुकून बयान कर रहा था कि वह माँ से मिल लिए हैं. और उमा जी का  मायका फिर से आबाद हो गया. 

 


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