जोगेंद्र नाथ मंडल
जोगेंद्र नाथ मंडल


ज़िन्दगी में कई बार ऐसे मौके आते हैं जब हमें दो रास्तों में से किसी एक को चुनना होता है। यह निर्णय काफी कठिन होता है क्योंकि यह हमारे आगे की ज़िन्दगी को प्रभावित करता है। कई बार हम गलत रास्ता चुन लेते हैं और जब हम पछताकर वापस लौटते हैं तब तक काफी देर हो चुकी होती है, हमें सुनने वाला कोई नहीं होता। कुछ ऐसे ही गलत निर्णय का शिकार हुए थे भारतीय उपमहाद्वीप में जन्मे एक बड़े दलित नेता, जिनका नाम था जोगेंद्र नाथ मंडल।
जोगेंद्र नाथ मंडल के नाम से भारत की अधिकांश जनता परिचित भी नहीं, जबकि वह बंगाल के एक बड़े दलित नेता थे, जिन्होंने ज़िन्दगी की आखिरी सांसें भी इसी भूमि पर ली थी। इसका कारण है- गलत रास्ते का चुनाव। भारत के विभाजन के वक़्त जोगेंद्र नाथ मंडल ने पाकिस्तान को चुना। वह पाकिस्तान के प्रमुख संस्थापकों में से एक थे, जो पाकिस्तान के पहले कानून और श्रमिक मंत्री बने। इसके साथ ही उन्हें राष्ट्रमंडल और कश्मीर मामलों के मंत्री के तौर पर काम करने का मौका भी मिला। लेकिन कुछ ही महीनों में यह पद एक बोझ लगने लगा और आखिरकार उन्हें अपना इस्तीफा देकर पाकिस्तान से भारत आकर बसना पड़ा।
बरिसल नगर ( वर्तमान में बांग्लादेश में स्थित ) के एक दलित नमोशूद्र समूदाय में जन्मे जोगेंद्र को लगता था कि दलित समुदाय का भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से उम्मीद रखना व्यर्थ है। उन्हें लगता था कि कांग्रेस के गैर-दलित नेता दलितों का सिर्फ अपनी राजनीति के लिए इस्तेमाल करते हैं। उन्होंने मुस्लिम लीग का साथ दिया, यह सोचकर कि दलितों को पाकिस्तान बनने से फायदा होगा। 1946 में बंगाल में दंगा भड़कने पर उन्होंने दलितों से आग्रह किया था कि वे मुसलमानों के खिलाफ हिंसा में भाग न लें।
पाकिस्तान बनने पर जोगेंद्र नाथ मंडल संविधान सभा के सदस्य बने, मंत्री बने और कराची शहर में रहने लगे। कुछ ही वर्षों में अचानक ऐसा क्या हुआ कि उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली खान को अपना इस्तीफा सौपना पड़ा ? क्या दलित-मुस्लिम गठजोड़ उस वक़्त भी एक विफल प्रयोग साबित हुआ, जिसकी ताकत का दम आज भी कई राजनैतिक दल भरते हैं। सही कारण को समझने के लिए हमें जोगेंद्र नाथ मंडल का इस्तीफा पत्र पढ़ना होगा।पत्र में साफ तौर पर लिखा है कि किस तरह पूर्वी पाकिस्तान में दलितों को प्रशासन में हिस्सेदारी से दूर रखा जा रहा था और उन्हें बोझ समझा जा रहा था। प्रशासन उनके प्रति क्रूर रवैया अपना रहा था। हिन्दुओं पर हिंसा में बढ़ोतरी हो रही थी और जबरन धर्म परिवर्तन की घटनाएँ आम हो चुकी थी । अपने पत्र में जोगेंद्र नाथ मंडल ने माना है कि स्वतंत्रता पूर्व "डायरेक्ट एक्शन डे" पर मुस्लिम लीग के उकसावे पर हुए भीषण हत्याकांड को भी उन्होंने गंभीरता से नही लिया। कलकत्ता के नोआखली नरसंहार के बाद वह दलितों से शांति बनाए रखने की अपील करते रहें । वह अफ़सोस जताते हैं कि जिस पाकिस्तान को बनाने में वह मुस्लिम लीग का हर वक़्त साथ देते रहे, उसी पाकिस्तान में दलित समुदाय के लोग धिम्मी ( शरियत में धिम्मी को मुसलमानों की तुलना में बहुत कम सामाजिक और कानूनी अधिकार प्राप्त होते हैं ) बनके रह गए। अंततः, जोगेंद्र नाथ के पास भारत लौटने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह गया।
जोगेंद्र नाथ मंडल की मृत्यु 1968 में पश्चिम बंगाल के बनगाँव शहर में हुई। आज उनकी मृत्यु के पचास वर्ष बाद, उन्हें याद करने वालों की तादाद बेहद कम है। उनकी पहचान बस एक ऐसे नेता की है जिसने पाकिस्तान को चुना था।