Anita Purohit

Inspirational

4.4  

Anita Purohit

Inspirational

ज़मीर वाला आदमी

ज़मीर वाला आदमी

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अचानक उसे लगा जैसे वह गहरे अंधेरे में डूबता जा रहा है। उसने अपने आस पास नज़र घूमा कर देखा, चारों तरफ़ अंधेरा ही अंधेरा था। जैसे किसी ने स्याह रंग की एक घनी परत सब ओर बिखेर दी हो। इस परत के उस पार कुछ भी देख पाना मुश्किल था। हाँ कुछ हिलती डुलती परछाइयाँ थीं, जो ठीक उसी की तरह गहरे अंधेरे में डूबी हुईं थीं।

इन सबके बीच से वह बाहर निकल जाना चाहता था, रौशनी की तलाश में ..। ...लेकिन क़दम बार बार उलझ जाते थे उन परछाइयों के साथ जो उसके आजू-बाज़ू पसरी हुईं थीं। अंधेरे का वह दायरा धीरे धीरे उसके लिए तंग और तंग होता जा रहा था। इस माहौल से उसे घुटन हो रही थी। साँसे भी जैसे रुकने लगीं थीं। एक अज़ीब सी घबराहट, एक अज़ीब सी बेचैनी ने उसके पूरे वजूद पर अपना क़ब्ज़ा जमा लिया था। पूरा बदन पसीने से भीग गया था। एकदम असहाय और अशक्त महसूस कर रहा था वह ख़ुद को। लग रहा था जैसे अभी चकरा के गिर पड़ेगा। ....और विलुप्त होती चेतना के साथ अनायास ही एक घुटी घुटी चीख़ उसके मुँह से निकल गयी।

क्षण भर को गयी चेतना जब लौटी तो उसने स्वयं को दफ़्तर के साथी कर्मियों से घिरा पाया। “आर यू ऑल राइट” पूछा था किसी ने। “यस” के संक्षिप्त जवाब के साथ वह फिर अपने काम में जुट गया। बाक़ी सब लोग भी अपनी-अपनी सीट पर लौट गए। जानते थे कि अपनी परेशानी वह किसी के साथ नहीं बाँटता।आख़िर किसी को वह कुछ बताता भी तो क्या ? वह ख़ुद भी तो नहीं जानता कि ऐसा उसके साथ क्यूँ होता है ? दफ़्तर की फ़ाइलें निपटाते-निपटाते क्यूँ अंधेरे का ये अहसास एक ख़्वाब की शक्ल में धीरे से उसे आ दबोचता है। चाहकर भी वह उससे छुटकारा नहीं पा सका है। हर वक़्त यह ख़्वाब एक हक़ीक़त की तरह दफ़्तर के हर कोने में उसे बिखरा दिखाई देता है। दफ़्तर के चपरासी से लेकर हेड क्लर्क तक छोटे-मोटे अफ़सरों से लेकर उस तक। अपने ख़्वाब के उस अंधेरे को उसने ऊपर तक की हर जगह पर जाकर बँटते देखा है। अनचाहे ही उसे भी उसमें से अपना हिस्सा बाँटना पड़ा है। कई बार लौटाया भी उसने उसे उजाले की हसरत में।....लेकिन उस अंधकार ने हर बार उस पर अपनी पकड़ और मज़बूत की थी।


ज़मीर वालों के साथ ऐसा ही होता है। वे किसी अंधेरे को अपना साथी नहीं बनाना चाहते।...मगर वह और गहराई के साथ उनपर चस्पाँ हो जाता है। ये सारा “सिस्टम” ही ऐसा है।....और वह, इस सिस्टम के बीच की मात्र एक कड़ी। एक ऐसी कड़ी जिसके हाथ में कुछ भी नहीं होता। इससे आख़िर वह बच भी कैसे सकता है। नीचे के आवेगों और ऊपर के दबावों के बीच ही काम करना होता है उसे। इन दबावों के चलते जाने कितनी ही फ़ाइलों पर उसे अपनी मोहर लगानी पड़ती है जिन्हें वह “क्लीयर” करने लायक़ नहीं समझता। फिर भी वह यह सब करता है क्यूँकि इस सच से वह अच्छी तरह वाक़िफ़ है कि ऐसा ना करने पर यह “सिस्टम” उसे जीने नहीं देगा। अपने जीवन की गाड़ी उसे भी खींचनी है। औरों की तरह बिन बाधा बिन रुकावट के।

इसलिए ....।

फिर भी ऐसा करते उसकी यह आत्मा क्यूँ हर पल कचोटती है उसे ? क्यूँ अपने दफ़्तर के अंधेरे को उखाड़ फेंकने के लिए उसे बार-बार उकसाती है ? “तुम नहीं हो इसके, नहीं हो ....नहीं हो । तुम......तुम सिर्फ़ रौशनी के साथी हो।” क्यूँ अंतरात्मा की यह चीख़ उस पर किसी हथौड़े की तरह बरसती है ? अपना सर पकड़ बस कसमसाकर रह जाता है वह। नहीं झेल पाता आत्मा के इस स्पंदन को। क्यूँ सुनता है आख़िर वह उसकी आवाज़ ? क्यूँ ...क्यूँ ? दूसरों की तरह वह भी क्यूँ नहीं सुला देता अपनी बेचैन रूह को बेशर्म खाल के कफ़न में जहाँ से वह बिलकुल फड़फड़ा न सके। आख़िर वह भी तो वही कर रहा है जो अपनी खाल में सीलबंद रूहों को लिए फिरने वाले करते है। फिर वह क्यूँ नहीं ....?

बहुत खोजने पर भी अपने इन प्रश्नों का कोई उत्तर उसे आज तक नहीं मिला है। मिले भी तो कैसे ? उसके ख़्वाबों में दिखने वाला वह अंधेरा इतना विशाल हो गया है की उसने हर उस चेहरे को अपने से ढँक लिया है,जहाँ से ज़िन्दगी झाँकती है। ... अपने कई रूप, कई रंगों के साथ। इस तमाम विस्तार में उजाले को खोजना उसके बस की बात नहीं। यह बात उसे कौन समझाए कि उसके अहसासों में लिपटे उस अंधेरे को मिटाए नहीं मिटाया जा सकता। पूरब से पश्चिम तक, उत्तर से दक्षिण तक, इस जगत के असीम विस्तार में वह एक स्थायी जगह बना चुका है जहाँ से उसे डिगाना अब मुश्किल है। फिर भी वह नादान आदमी रोशनी के लिए तड़पता और छटपटाता है। क्या करे ? आख़िर वह “ज़मीरवाला आदमी है।”


                                                


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