“उसकी मेहंदी”
“उसकी मेहंदी”
"मम्मी मुझे मेहंदी लगा दो" स्निग्धा ने अपनी छोटी गोरी हथेलियाँ हिमानी के आगे फैला दीं।
"क्या बेहूदगी है" अपने कॉलेज के लेक्चर के लिए नोट्स तैयार कर रही हिमानी झुँझला उठी।
"मेहंदी, ऊहँ ! चिकनी-चिकनी, गोबर का आभास देती मेहंदी छी। जैसे सड़क के किसी गंदले हिस्से में छितराया, सडांध मारता गोबर सचमुच ही हिमानी ने स्निग्धा की हथेलियों में देख लिया हो। वितृष्णा की गहरी लकीरें उसके चेहरे पर उतर आयीं।
"क्या करोगी मेहंदी लगा कर। कितनी गंदी होती है। सारे कपड़े गंदे कर लोगी फिर मुँह पर या इधर-उधर लगा लोगी तो रंग चढ़ जाएगा" हिमानी ने कहा।
"प्लीज़ मम्मी! लगा दो ना। देखो ना मेरी सभी सहेलियाँ मेहंदी लगाती हैं। कितनी सुंदर" स्निग्धा ने भोलेपन से कहा।
"ओफ्फो, इस लड़की के भी शौक़ अज़ीब से हैं। अभी से ही चूड़ी, झुमका, बिंदी। उस पर यह बेहूदी मेहंदी। पता नहीं क्या करेगी आगे। छम्मक-छल्लो बनेगी" और हिमानी के आगे अपने कॉलेज की उन तमाम लड़कियों के चेहरे घूम गए जो आँखों में काजल लगाए, कानो में में बड़ी-बड़ी लटकने, हाथों में ढेरों चूड़ियाँ पहने और माथे पर चमकीली बिंदिया सजाए इधर-उधर डोलती फिरती थीं। मानो उनकी सी रूप की रानी कोई दूसरी ना हो। तीज-त्यौहारों पर उनका यह बनाव श्रृंगार, मेहंदी रची हथेलियाँ और चेहरे पर छाए सस्तेपन को देखकर हिमानी नफ़रत से भर उठती थी।
हिमानी जिसकी नस-नस में केमिस्ट्री लैब के रसायनों की मिश्रित गंध कहीं गहरे तक समायी हुई थी। कोमल-स्निग्ध,दीप्तिमान चेहरे पर छाई विनम्र कठोरता, धवल रंग से धुली देह की कान्ति और शरीर का कसा आनुपातिक आकर्षण उसे लाखों की भीड़ से अलग करता है। नारी सुलभ इच्छाओं, आकांक्षाओं से मुक्त उसका ध्येय केमेस्ट्री में अपने शोध को पूरा कर प्रोफ़ेसर पद की गरिमा पाना था। यह क़ामयाबी उसे हासिल भी हुई। आज वह देवी अहिल्या साइंस कॉलेज के अग्रिम प्रोफ़ेसर्स में से एक है। लड़कियों में अति लोकप्रिय और कॉलेज परिसर में अपने स्वभाव की शुष्कता के लिए मशहूर भी। उसके पति सुहास डॉक्टर हैं और छह वर्षीय स्निग्धा...
सादगी भरे सौंदर्य की उपासिक या यूँ कहें अपने सौंदर्य की सादगी के अभिमान से भरी हिमानी के लिए बेटी स्निग्धा की मेहंदी लगाने की याचना आश्चर्यजनक थी। क्या उसकी अपनी बेटी उन आम लड़कियों में से एक होगी, जिनके श्रृंगार की सस्ती चमक से उसे घृणा थी। इस आशंका और बेटी के भविष्य की सोचकर वह चिन्तित हो उठी। उससे भी कही ज़्यादा अपने आदर्श और उसूलों की प्रत्यक्ष हार देखना उसके लिए असह्य हो उठा। इधर स्निग्धा लगातार उसका आँचल खींचे जा रही थी।
"लगा दो ना मम्मी ! प्लीज़, लगा दो ना"
"कोई मेहंदी-वेंहदी नहीं। जाओ यहाँ से देखो ना इस वक़्त मैं काम कर रही हूँ" हिमानी बेतरह खीज उठी थी। उधर स्निग्धा ने भी मानो ज़िद पकड़ ली थी।
"नहीं, मैं तो मेहंदी लगाऊँगी अभी इसी समय" वह मचलने लगी। जाने वह क्या था ? स्वयं से पराजित होने की पीड़ा या कुछ और हिमानी ने कसकर एक चाँटा स्निग्धा के गाल पर जड़ दिया, जो एक झन्नाटे के साथ उसके गाल पर एक गहरा लाल निशान छोड़ गया। स्निग्धा ने निरीह दृष्टि से माँ की ओर देखा। आँसू सहम गए। माँ की और से ऐसे व्यवहार का शायद यह उसका पहला अनुभव था। अब तक जिसे प्यार से सहलाया जाता रहा था ; उसी गाल पर पड़े इस आघात से वह अंदर तक आहत हुयी थी।
स्वयं हिमानी भी हैरान थी अपने उस आक्रोश पर। बेटी की निरीह दृष्टि का सामना करने का सामर्थ्य उसमें ना था। अपने उस व्यवहार के लिए वह अपने आप को माफ़ नहीं कर पा रही थी, बेटी को पीड़ित करना.... महज़ मेहंदी के लिए। उसने झपट कर स्निग्धा को बाहों में भर लिया और बेतहाशा कई चुम्बन उसके गाल पर अंकित करते हुए कहा- "आई एम सॉरी बेटे। मैं तुम्हें ज़रूर-ज़रूर मेहंदी लगा दूँगी। अच्छा चलो अब हँस दो"
उस क्षणिक आक्रोश से उत्पन्न पीड़ा को तुरंत बिसरा स्निग्धा खिलखिला उठी। "मम्मी, देखो तो मैंने पहले से ही मेहंदी तैयार करके रखी है। जैसे नीटू दीदी करती हैं"
वह दौड़कर तुरंत रसोईघर से एक छोटी कटोरी उठा लायी जिसमें मेहंदी घुली हुई थी। बेटी का उत्साह और खिले चेहरे को देख हिमानी की आँखें नम हो आयीं। नाहक ही मार बैठी। मासूम उम्र के मासूम शौक़, मासूम ज़िद .....।
बड़े दुलार से उसने बेटी को पास बिठाया और उसकी छोटी गोरी हथेलियों पर मेहंदी से आड़ी-तिरछी रेखाएँ खींचने लगी। स्निग्धा भी पूरी तन्मयता से मेहंदी लगवा रही थी। उसकी उनींदी आँखों में सुबह मेहंदी के सुर्ख़ रंग से दो-चार होने का स्वप्न था।
सुबह होते ही जब स्निग्धा की मीठी नींद टूटी तो सबसे पहले उसने अपनी हथेलियों पर निगाह डाली। मेहंदी सूख कर जगह-जगह से उखड़ी हुई थी। उसके पीछे छिपा गहरा पीला रंग बाहर आने को आतुर था। तमाम कपड़ों और बिस्तर पर मेहंदी के दाग़ थे। दौड़कर वॉशबेसिन में जाकर हाथ धोए और किलकारियाँ भरते माँ के पास पहुँची।
"मम्मी ....मम्मी देखो कैसा रंग आया है" हिमानी उसकी हथेलियों पर बने गड्डमगड्ड आकर को देखकर कुछ झिझकी ; फिर उसकी हथेलियों को चूम लिया।
"पापा.... पापा देखो। डॉक्टर सुहास चाय की चुस्कियाँ के साथ अख़बार में उलझे हुए थे। स्निग्धा की आवाज़ से ध्वनित ख़ुशी के आवेग को सुनकर चौंके। आख़िर माज़रा क्या है ? अख़बार को एक ओर पटक बिटिया को अंक में समेट लिया। स्निग्धा ने अपनी मेहंदी रची हथेलियाँ आगे कर दीं। "वाह, बहुत सुंदर"
डॉक्टर सुहास ने कहा और स्निग्धा निहाल हो गयी। "अच्छा अब जल्दी तैयार हो लो"
मम्मी का आदेश मिलते ही स्निग्धा तुरंत तैयार होने चल दी। आज की ख़ुशी सहेलियों के साथ भी तो बाँटनी थी।
और स्कूल में सभी सखियों को अपना हाथ दिखाकर फूली नहीं समा रही थी स्निग्धा, सभी उसकी ख़ुशी बढा रहे थे। मगर निन्नी और टीना ने रंग में भंग डाल दिया। "भला ये भी कोई मेहंदी हुई, जैसे चिड़िया ने बीट कर दी हो। हमारी मेहंदी देखो,मम्मी ने लगायी है"
सुगढ़ता से गढ़ी उनकी मेहंदी देखकर स्निग्धा शर्म से जैसे गड़ सी गयी। अपने हाथ फ़्रॉक के पीछे कर लिए। मम्मी पर बहुत ग़ुस्सा आया। सहेलियों ने उसका मज़ाक उड़ाया था। अब वह स्कूल नहीं आएगी, जब तक कि मम्मी अच्छी मेहंदी नहीं लगा देतीं। नन्हें से दिल का मन छलनी-छलनी हो गया था।
स्कूल से घर लौटते ही बस्ता एक ओर पटक मुँह फुलाकर बैठ गयी। हिमानी अभी-अभी कॉलेज से लौटी थी। बेटी का उतरा चेहरा देखकर पूछा "क्या हुआ", लेकिन जवाब नहीं मिला। शाम तक मनुहार करती रही, लेकिन स्निग्धा बिना खाए पिये चुपचाप बैठी रही। शाम को डॉक्टर सुहास जब लौटे तो बेटी के तेवर मालूम हुए; ख़ुद भी बहुत मिज़ाजपुर्सी की, पर वह टस से मस न हुई।
रात खाने की मेज़ पर भी बड़ी मिन्नते की मगर स्निग्धा चुप। खाना खाते बेटी को गहरी नज़र से ताकते डॉक्टर सुहास यूँ ही पूछ बैठे, "भई बात क्या है, कुछ तो कहो, सहेलियों से कुछ झगड़ा हुआ है क्या ?"
बस, स्निग्धा उबल पड़ी- "देखो ना पापा, मम्मी ने कितनी गंदी मेहंदी लगाई। मेरी सहेलियों ने मेरा मज़ाक उड़ाया। वो निन्नी और टीना है ना, कह रही थी मेरी मेहंदी चिड़िया की बीट जैसी है"
और वो रुआँसी हो आयी। पापा ने उसे दुलारा और हिमानी को नाटकीय डाँट पिलाई- "क्यों भाई, हमारी बेटी को तुमने इतनी गंदी मेहंदी क्यों लगायी। सॉरी बोलो। अब की अच्छी मेहंदी लगाना समझी"
पति के फुसलाने पर बेटी के चेहरे से अलोप होती रूठने वाली रेखा को देख हिमानी भी चुप लगा गयी और स्नेह भरी मुस्कान ओढ़े उसे खाना खिलाने लगी। अंतर बेटी की सखियों के आक्षेप से दहक रहा था। उन छोटी से बालाओं ने उसके सौंदर्यबोध का उपहास उड़ाया था। उसकी सौंदर्य गर्विता यकायक ज़मीन पर आ गिरी थी।
रात का खाना खा चुकने के बाद स्निग्धा ने ऐलान कर दिया - "जब तक उसकी मम्मी उसकी सहेलियों के जैसी ही सुंदर -सुंदर मेहंदी नहीं लगा देगी, तब तक वह स्कूल नहीं जाएगी"
उसके इस ऐलान से हिमानी और सुहास हतप्रभ रह गए। भला इतनी सी बात के लिए स्कूल छोड़ा जाता है। दोनो ने समझाया जब पहली मेहंदी का रंग छूट जाएगा तब दूसरी लगा देंगे। मगर स्निग्धा अपनी ज़िद पर अडिग रही। स्कूल गयी तो सहेलियाँ उसका मज़ाक उड़ाएँगी।
समझाना, ज़ोर-आज़माइश, सज़ा-दुलार सभी नाकाम रहे। हिमानी और सुहास के वो दो-चार दिन बड़ी परेशानी में बीते, बाल हठ के आगे वो झुकने को मजबूर ही गए। उधर हिमानी ने भी लोगों से पूछ-पूछकर घासलेट नीबू रगड़कर उसकी हथेलियों की मेहंदी का रंग फीका करने की कोशिश की और मेहंदी की बारीकियों को समझा भी। चौथे दिन उसने सबेरे-सबेरे जतन से मेहंदी को छाना और एक छोटे कटोरे में शक्कर नींबू के रस के साथ घोलकर रख दिया। कॉलेज की लैब में रसायनों को मिलाते, स्पिरिट लैम्प की शिखा पर टेस्टट्यूबों में घुले रसायनों के उठते बुलबुलों के बीच जीने वाली हिमानी के लिए यह सब किसी अजूबे से कम ना था। ब्याह हुआ तब भी बड़े बेमन से सखियों से मेहंदी लगवाई थी। सगुनो के मामले में बड़े-बूढ़े समझौता जो नहीं करते, इसलिए मजबूरी थी वरना ......। मगर ब्याह की मेहंदी के उस गहरे सुर्ख़ रंग, ख़ूबसूरत बेल-बूटों, फूलों,और पत्तियों पर उसकी नज़र गयी तो एक अज़ीब सी मिठास उसके मन के अंदर घुल-घुल आयी थी। उस अहसास को वो आज तक भुला नहीं पाई थी। क्या वह एक सहज अनुभूति थी, उन्माद या कुछ और ?
दोपहर होते ही हिमानी स्निग्धा का हाथ लिए मेहंदी लगाने बैठ गयी। बिटिया की सखियों से उसके सौंदर्यबोध पर मिले आक्षेपों को मेहंदी की सुगढ़ लकीरों से ढक देना था। बड़े ध्यान से स्निग्धा की हथेली पर वह एक आकार बनाने में जुट गयी। ज्यों-ज्यों आकार स्पष्ट होने लगा स्निग्धा के चेहरे पर जमे रंग भी आकार बदलने लगे। "ओफ़्फ़ो मम्मी, ये तो बिलकुल भी अच्छी नहीं। देखो ना, लाइनें कितनी मोटी हैं"
हिमानी ने ध्यान से देखा सचमुच लाइनें कुछ मोटी और भद्दी मालूम दे रही थीं। उसने पास रखे कपड़े से झटपट उसका हाथ पोछा और दूसरा आकार देने में जुट गयी। अबकी बार पत्तियाँ कुछ यहाँ -वहाँ फैल गयीं। स्निग्धा कुछ चिड़चिड़ा गयी -"ये क्या, पत्तियाँ क्या ऐसी होती हैं"
हिमानी हँसकर फिर तीसरी बार काम में जुट गयी। इस बार फूलों में कसर थी। इस तरह कई बार स्निग्धा ने माँड़ने में कसर निकाल कर अपने हाथ पोछ डाले। हिमानी के सब्र का बाँध भी टूटने लगा। उसने एक आखिरी कोशिश की। अबकी एक सुंदर आकृति उभर कर आयी थी। स्निग्धा ने एक क्षण उसे बड़े ध्यान से निहारा मानो उसकी कारीगरी की गहरी नापतौल कर रही हो। हिमानी का दिल धड़क रहा था। कॉलेज में अक्सर लड़कियाँ उसके पीछे से कमेंट पास किया करती थीं-"यार,क्या लगती हैं मैडम। अगर ज़रा से शोख़ रंग पहने और ढीला जूड़ा बनायें, तो क़सम से क्या सुंदर दिखें। मगर यहाँ तो सावन कभी हरा होता ही नहीं। बस, सूखा ही सूखा रहता है"
"ये क्या मम्मी" हिमानी की तंद्रा टूटी।
"क्या ऐसे मेहंदी लगाते हैं, ये गोल चक्कर तो बीच में आने थे। ये आपने क्या कर दिया" उसने तुरंत अपनी हथेली पोछ डाली। हिमानी की सहनशक्ति जवाब दे गयी। इतनी मेहनत से तैयार की गयी कलाकृति एक क्षण में मिटा दी गयी थी। बरबस ही उसका हाथ उठ गया। वह समझ नहीं पा रही थी की कैसे अपनी बिटिया को संतुष्ट करे। उस असमंजस की स्थिति में कितनी बार उसका हाथ उठा इसका उसे ध्यान ही नहीं रहा। रोते-रोते स्निग्धा जब सो गयी तब उसे होश आया। मलिन मन लिए वह भी उसके पास लेट गयी।
शाम जब डॉक्टर सुहास घर आए तो घर में एक अज़ीब सी घुटी-घुटी चुप्पी थी। पत्नी के चेहरे पर उदासी और ग्लानि के भाव तुरंत पढ़ लिए। हिमानी ने सारी बात बतायी। "तुम भी हद करती हो मासूम सी बच्ची पर इतना अत्याचार। वह भी महज़ मेहंदी के लिए"
"मैंने तो लगाई थी पर उसने मिटा दी" हिमानी ने जवाब दिया।
"इतनी सी मेहंदी भी सलीक़े से नहीं लगा सकी" सुहास स्निग्धा को तुरंत गोद में उठा बाहर ले आए प्यार से उसे चूमा। माँ के व्यवहार के आतंक से डरी स्निग्धा को राहत मिली। वह कसकर पापा से चिपक गयी।
"लाओ भई, हम अपनी बेटी को मेहंदी लगाएँगे" सुनते ही स्निग्धा खिल उठी दौड़ कर मेहंदी की कटोरी उठा ले आयी। फिर डॉ सुहास भी उस कोशिश में लग गए जिसमें हिमानी असफल हो चुकी थी। अंत में वे भी असफल साबित हुए, बिटिया को एक ओर पटका और कमरे से बाहर हो लिए। मम्मी-पापा के व्यवहार से अचंभित स्निग्धा समझ नहीं पा रही थी, आख़िर क्यों कर वे इतने निर्दयी हो गए। मेहंदी ही तो लगानी थी सुंदर-सुंदर, जैसी निन्नी और टीना के हाथ में लगी है। अपनी पीड़ा वह किसे बताए। गंदी मेहंदी देख कर सहेलियाँ हँसेंगी। कुछ ऐसा ही सोचते-सोचते उसे नींद आ गयी। हिमानी ने खाना खिलाने के लिए उठाया भी, लेकिन वह ना उठी। बेटी के प्रति अपने पति और स्वयं के व्यवहार की शर्मिंदगी में डूबी उसके सिरहाने बैठकर उसके गालों पर हुए दुर्व्यवहार को सहलाती रही। फिर अचानक कुछ ध्यान आया। उठकर दूसरे कमरे से मेहंदी की कटोरी उठा ले आयी। फिर बड़ी सावधानी, एकाग्रता और ध्यान से एक-एक आकर को सुगढ़ता से गढ़ने लगी। इस बात का पूरा ध्यान रखा कि उसमें वो ऐब ना आने पायें जो उसकी पारखी बेटी ने गिनाए थे। सचमुच ही ख़ूबसूरत बेल-बूटों से रचित मांडने उसकी बिटिया की हथेलियों पर उसने उतार दिए। हर कोण से हथेलियों को घुमा-फिराकर देखा कहीं कोई ऐब नहीं। सुकून की छाया उसके चेहरे पर उतर आयी। आँखे उनींदी हो चलीं तो वहीं बिटिया के पास सो गयी।
सुबह उठते ही जब स्निग्धा की नज़र अपनी हथेलियों पर पड़ी तब वहाँ गहरे लाल रंग के सुंदर मांडने देख उसके चेहरे पर सैकड़ों गुलाब खिल आए। पास सोयी मम्मी को चूम लिया। हिमानी हड़बड़ा के उठ बैठी। बेटी के चेहरे पर आए बसंत को देखकर वह समझ गयी कि उसकी कलाकृति स्वीकार कर ली गयी है। उसकी आँखें ख़ुशी से छलछला आयीं। बिटिया के सौंदर्यबोध और उसकी पारखी दृष्टि पर वह कहीं गहरे तक अभिभूत थी। एक नारी के अंदर बसी सौंदर्य के प्रति सहज,स्वाभाविक नैसर्गिक भावना को उसने आज पहचाना था। उसके अंदर की नारी परिवर्तन की राह खोज रही थी।
अवसर था स्निग्धा के चाचा के विवाह का और सभी ने हिमानी को एक नए रूप में देखा। बारात में शामिल होने के लिए जैसे ही वह ज़ीने से नीचे उतरी लोग दंग रह गए। हमेशा कसा जूड़ा और गंभीर रंगों के परिधान में में लिपटी रहने वाली हिमानी अपने शादी के जोड़े में एकदम अलग दिखायी दे रही थी। ढीले जूड़े में गूथी वेणी, हाँथों में भरी-भरी चूड़ियाँ, माथे पर चमकती सिंदूरी बिंदिया, भरी माँग, गौरे-गौरे पाँवों से एकसार होती चाँदी की पाज़ेब और हाथों में रची सुर्ख़ लाल मेहंदी। उसके सादे सौंदर्य का कायाकल्प हो गया था। लोग अवाक-ठगे से बस उसे ही देखे जा रहे थे। डॉ सुहास स्वयं पत्नी के इस नए रूप को देखकर अचंभित से उसे ही देखे जा रहे थे। इससे पहले उन्होंने पत्नी का ऐसा रूप नहीं देखा था। उसका सादा रूप ही उनकी आँखों में रचा-बसा था। मगर पत्नी का ये नया रूप .......। वे मुग्ध दृष्टि से उसके इस नए रूप का पान करते रहे। तभी स्निग्धा दौड़कर मम्मी से आकर लिपट गयी। "मम्मी जल्दी करो, देर हो रही है। चाची को लाना है"
फिर यकायक माँ की नई सजधज पर उसका ध्यान गया। ठगी सी, अवाक विमुग्ध वह देर तक माँ के इस नए रूप को निहारती रही। फिर एकदम बोल उठी, "मम्मी आप सचमुच बहुत सुंदर हैं"
मम्मी के गालों पर एक स्नेहभरा चुंबन अंकित कर वह उनकी गोद में समा गयी। हिमानी उसे गोद में उठाए आगे बढ़ गयी। उसे अपनी नन्ही बिटिया के सौन्दर्यबोध पर नाज़ था। अपने इस नए परिवर्तन से वह ख़ुश थी। आज सालों बाद अपने अंदर छिपी नारी से उसका परिचय हुआ था। अपनी बेटी के हाथों में रची उसकी मेहंदी के माध्यम से।
