monika kakodia

Inspirational

4.9  

monika kakodia

Inspirational

जिम्मेदारी

जिम्मेदारी

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अपनी किताब हाथ में लिए मैं बहुत देर से बस पन्ने ही पलटे जा रही थी। दो महीने बाद मेरी एम.बी.ए इन्टर्नस की परीक्षा होने वाली थी।कई दिनों की मशक्कत के बाद आज मैंने ये दृढ़ निश्चय किया कि मैं आज से जरूर पढूँगी।फिर भी जाने क्यों किताब में मेरा मन ही नही लग रहा था। जैसे तैसे मैनें कुछ लाइनें पढ़ी ही थी कि किसी ने दरवाजे की घण्टी बजाई । मुझे तो जैसे इसी पल का इंतजार था। मैंने झट से अपनी किताब बन्द की और सरपट दरवाज़े की ओर दौड़ी कि शायद कोई मेहमान आया हो, तब तो बहुत सारा काम होगा पहले चाय फिर नाश्ता और रात को कुछ बढ़िया पकवान बनाने की तैयारी होगी। अब ऐसे में मैं माँ पर सारे कामों का बोझ डाल क्या अपनी किताब लिए बैठी रहूं? ना...ना मैं इतनी स्वार्थी तो नहीं।मन ही मन ना पढ़ने के ढेरों बहाने मैंने ढूंढ लिए।

अपने सारे बहानो को सच करने के लिए मैने जल्दी से दरवाजा खोला लेकिन उसके बाद तो जैसे मेरी कुछ भी सोच समझ पाने की शक्ति जाती रही। एक मुस्कुराता हुआ व्यक्ति मेरे सामने खड़ा था , उसके चेहरे की झुर्रियों, सर व दाढ़ी के सफेद बालों व कुछ झुकी हुई कमर के कारण उनकी उम्र साठ साल से कम की नही लगती थी। उम्र में छोटे होने के लिहाज़ से मुझे उनसे अभिवादन करना चाहिए था ।लेकिन ऐसे किसी मेहमान को पहले अपने घर नहीं देखा था और ना ही ऐसी कोई उम्मीद थी,शायद इसी लिए मैं उन्हें बस देखती रह गयी

"नमस्ते बेटा ! कैसी हो ? पापा घर पर हैं ? "कहते हुए उन्होंने बड़े ही सहज भाव से हाथ जोड़ते हुए सारे सवाल एक ही स्वास में पूछ लिए।

मुझे जैसे ही अपनी भूल का एहसास हुआ मैनें अपने दोनों हाथ जोड़ते हुए कहा " नमस्ते अंकल ,मैं ठीक हूँ! आप आइये ना प्लीज़ , पापा घर पर ही हैं।"

एक नज़र उन्होंने अपने जूतो पर डाली और दूसरी नज़र फर्श पर फिर जरा पीछे मुड़ अपने जूते बाहर ही उतारने लगे " जूते गन्दे हो रहें हैं बेटा कमरा गन्दा हो जाएगा" जैसे कि वो स्वयं को ही समझा रहें हों।मुस्कुराते हुए अंदर आकर वो कमरे में एक ओर ही खड़े हो गए। एक बार फिर से वो पास ही बिछे हुए सोफे ओर अपने कपड़ों को देखते हुए गहरी सोच में डूब गए ।

"आप बैठिए अंकल , मैं आपके लिए पानी लाती हूँ " मैंने उनके संकोच को कुछ सहज करने का प्रयास किया।

मेरी यह बात उनके चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट ले आयी। उनकी इस मुस्कान ने उनके चेहरे की झुर्रियों को ओर बढ़ा दिया।

"कौन आया है बेटा ? अरे गोपी ...? "उन्हें देखते ही पापा की आवाज़ में उछाल आ गया ,उनकी ख़ुशी का ठिकाना नही था और बिना कुछ सोचे पापा ने उन्हें गले लगा लिया।

"बेटा अंकल के लिए कुछ खाने को लाओ ,ये मेरे बचपन का दोस्त है ,हम गांव में एक ही स्कूल में पढ़ा करते थे ।" ये सब कहते हुए पापा की ऑंखें नम हो गयी।

"मुझे तो लगा शायद तू मुझे पहचानेगा भी नहीं, बरसों बाद जो मिल रहें हैं, कितना कुछ बदल गया है" गोपी अंकल ने पापा का हाथ थामते हुए कहा।

"अरे पहचानता कैसे नहीं , ये तेरी ही बदौलत है कि मैं आज इस मुकाम पर पहुंच पाया हूँ " कहते हुए पापा ने अपना दूसरा हाथ अंकल के हाथ मे रख दिया।

"आज मैं तुझसे कुछ माँगने आया हूँ दोस्त , मुझे तुम्हारी मदद की जरूरत है" गोपी अंकल ने पापा की आँखों मे उम्मीद से देखते हुए कहा।

"माँगना कैसा मेरे भाई , सब तेरा ही दिया हुआ है, कहने भर की देर है" पापा ने जैसे उनका सारा दर्द पहचान लिया।

"मुझे एक लाख रुपये चाहिए, मैं जल्द ही लौटा दूँगा, ब्याज भी दे दूँगा, बस मेरी मदद कर दो ।दिन रात की मेहनत के बाद बेटी का डॉक्टरी में दाखिला हुआ, फीस और होस्टल के लिए पैसों की जरूरत है, घर की जिम्मेदारियों में पहले ही सब बिक चुका है, अब ना कुछ गिरवी रखने को बचा है, ना बेचने को ,बस तुमसे ही उम्मीद लेकर आया हूँ।"ये कहते हुए वे अपने दोनों हाथ जोड़ने लगे।

पापा ने बिना एक पल की देरी किये उन्हें हाथ जोड़ने से रोक लिया और कहा "मुझे माफ़ करना गोपी! मैं अपनी उचाइयां चढ़ने में इतना व्यस्त हो गया कि तुमने जो पहली सीढ़ी रखी उसे ही भूल गया...तुम अब बिल्कुल फ़िक्र मत करो अब सब ठीक हो जाएगा।"कहते हुए पापा ने तुरंत अलमारी से चैक बुक निकनी और एक लाख का चैक गोपी अंकल को दिया।

बहुत देर तक अंकल बस उस चैक को देखते रहे एक हल्की सी मुस्कान और कुछ आँसुओ के साथ पापा को कहने लगे हाँ ...अब सब ठीक हो जाएगा....!

अपने बचपन के बहुत से किस्से एक दूसरे को याद दिलाने में पापा और अंकल घण्टो तक व्यस्त रहे । तभी शाम चार बजे बजने वाले सायरन ने उनकी बातों पर थोड़ा विराम लगा दिया। गोपी अंकल को याद आया कि गांव के लिए उनकी बस पांच बजे है।

"अच्छा दोस्त ...अब आज्ञा तो मैं चलता हूँ.. वरना बस निकल जायेगी" गोपी अंकल ने दीवार पर लगी घड़ी को देखते हुए कहा।

"अभी तो हमने ठीक से बातें भी नहीं की हैं और तुम जा रहे हो। कम से कम आज तो रुको कल चले जाना ..पापा ने फिर से अंकल का हाथ थाम लिया।

"नहीं भाई ...आज तो नहीं रुक पाउँगा ,कल बेटी की फीस भरनी है, हां लेकिन जल्द ही दोबारा आऊँगा " कहते हुए अंकल ने विदा ली।

उनके जाने के बाद मैंने पापा से पूछा "पापा आपने बिना सोचे समझे उन्हें चैक क्यों दे दिया , उनकी हालत से क्या आपको लगता है कि वो पैसे लौटा पाएँगे और वो आप क्या कह रहे थे उनकी बदौलत आप आज इस मुकाम पर हैं .. मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा पापा...!

"बेटा एक बार उसने अपनी ज़िम्मेदारी निभायी थी और आज मैंने अपनी ज़िम्मेदारी निभायी है, "मेरे सर पर हाथ रखते हुए पाप ने कहा

मतलब..? मेरे पास जैसे ढेरों सवाल थे।

"बात तब की है बेटा जब हम गांव में रहा करते थे, खेती के अलावा कोई आजीविका नहीं थी।जैसे तैसे गुज़र बसर होता था। दो वक्त पेट भरने तक के लाले पड़ गए थे ऐसे में पढ़ने लिखने के बारे में तो सोचना भी मुश्किल था। गाँव के एक सरकारी स्कूल में सब कुछ मुफ़्त दिया जाता था इसीलिए आठवीं तक कि पढ़ाई तो जैसे तैसे पूरी हुई । मगर आगे की पढ़ाई के लिए शहर आना था । जिसके लिए हमारे पास बिल्कुल पैसे नहीं थे। मेरी पढ़ने की ललक को देख कहीं से कर्जा लेकर पिता जी ने शहर के एक प्राइवेट स्कूल में दाखिला तो करवा दिया लेकिन स्कूल ड्रेस और किताबो के लिए पैसे नहीं जुटा पाए। उस समय गोपी के परिवार के हालात अच्छे थे तो उसने शहर के स्कूल में दाखिला ले लिया और वहीं होस्टल में रहने लगा।मगर वक्त कब कौनसी करवट ले ले क्या पता...!" पापा ने एक गहरी सांस लेते हुए अपनी बात जारी रखी

 "अचानक एक दुर्घटना में गोपी के पिता का देहांत हो गया और घर परिवार, खेत खलिहान की सारी जिम्मेदारी गोपी के कन्धों पर आगई।ऐसे में घर की जिम्मेदारी को निभाने के लिए गोपी ने अपनी पढ़ाई छोड़ गाँव मे रह कर खेत खलिहान और अपने परिवार को संभालने का फैसला किया।मेरे हाल से भी अनजान नहीं था। एक शाम वो घर आया ,अपनी सारी किताबें और स्कूल ड्रेस लेकर, और कहने लगा "

"मैं नहीं पढ़ पाया तो क्या हुआ तू तो पढ़ लिख कर बड़ा आदमी बन ....तुझमे और मुझमें भला फ़र्क ही क्या है ...फिर जब भी कोई मुश्किल होगी ..तू रहेगा मेरी मदद करने को...और फिर सब ठीक हो जायेगा..."

पापा अब अपने आँसुओ को रोक नही पाए "काश मुझे अपनी जिम्मेदारी याद रही होती तो आज गोपी को यूं हाथ ना जोड़ने पड़ते " कहते हुए पापा अपने कमरे में चले गए

ये सब सुनने और समझने के बाद मुझे एहसास हुआ कि शायद मुझे सब कुछ बहुत आसानी से मिल गया इसीलिए मैं अपनी ज़िम्मेदारीयों को समझ नहीं पायी ।और उसी क्षण से मैं अपनी परीक्षा की तैयारी में पूरी ईमानदारी से जुट गई।


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