Turn the Page, Turn the Life | A Writer’s Battle for Survival | Help Her Win
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Satyam Pandit

Drama

4  

Satyam Pandit

Drama

इंतज़ार अपने क्लाइमैक्स का

इंतज़ार अपने क्लाइमैक्स का

18 mins
339


"तुम्हारा नाम आयुष है ना ?"

समय रुक सा गया। ट्यूशन को सिर्फ चार महीने बचे थे और स्नेहा ने आज खुद बात की, कोई छोटी बात थोड़े ही है।

"हाँ" इससे ज़्यादा क्या ही जवाब देता मैं। फिर स्नेहा ने कहा,

"अभी तक कोई नहीं आया, अमित सर भी नहीं आये"

"शायद बारिश में ही फ़स गए होंगे"

मैं बातें खत्म नहीं करना चाहता था इसलिए फ़ट से पूछ लिया

"तुम शिवानी की फ्रेंड हो ना ?"

"हाँ, क्यों ?"

"बस ऐसे ही"

वो चुपचाप खड़ी हो गयी। मैं खुद को कोसने लगा कि ये भी कोई सवाल होता है भला “शिवानी की फ्रेंड हो ना”

शाम के साढ़े चार बज रहे थे और आज वो ट्यूशन जल्दी आ गयी थी। मैं भी किसी सनक में घर से जल्दी चल दिया था। जब मैं पहुंचा तो देखा स्नेहा अकेली खड़ी थी। बारिश की वजह से स्नेहा वहाँ एक छज्जे के नीचे खड़ी हो गयी थी। वहाँ दूसरा छज्जा भी नहीं था तो मैं भी हक़ से उसी छज्जे की नीचे खड़ा हो गया था। स्नेहा ने सफ़ेद और गुलाबी रंग की कुर्ती, नीले रंग की जीन्स पहनी थी और उसके लंबे बाल उसके कंधो पर गिरे हुए थे और उसके यौवन को छुपा लेने की बेकार कोशिश कर रहे थे। धूम फ़िल्म के अली का किरदार याद है ना आपको, मैं अली माफ़िक उसके साथ गर्लफ्रैंड, वाइफ़ और बच्चे, कुछ ही सेकंड के ड्रीम सीक्वेंस में सब सोच लिए। बस मैं भगवान को शुक्रिया बोल रहा था इस "बारिश" के लिए।

लेकिन अब आगे बात भी क्या करूँ। एक तो कॉन्फिडेंट लड़कियों से डर ही लगता है, ना जाने कौन सी बात बुरी लग जाये।

दीवाल पर शुक्रवार को रिलीज़ होने वाली फिल्मों के पोस्टर देख कर स्नेहा ने कहा, "तुम फिल्में देखते हो”?

“और क्या, फिल्में बहुत पसंद है मुझे। वैसे तुम्हारी फ़ेवरेट कौन सी है”

“ये जवानी है दीवानी", रणवीर क्या सही लगता है यार” बताते हुए वो बारिश की फुहारों से बचने थोड़ा और करीब खड़ी हो गयी। 

मैं हंसने लगा और बोला, “मूवी भी पसंद है या सिर्फ रणवीर”। वो भी हंसने लगी। कुछ देर में हमारे बीच “बनी और नैना” की सोच के ऊपर बहस होने लगी। उसे "बनी" सही लगता था। दुनिया घूमना, अलग अलग लोगों से मिलना, नई-नई जगहें देखना। वो किसी के लिए अपनी ज़िंदगी रोकना नहीं चाहती थी। मुझे "नैना" की बातें ज़्यादा तर्कसंगत लगती थी। “जितना भी ट्राई करो, कुछ ना कुछ तो छूटेगा ही इसीलिए यहीं इस पल का मज़ा लो”। 

स्नेहा को मैं मन ही मन पसंद करता था लेकिन वह इतनी खूबसूरत थी कि दिमाग समझा देता था, बेटा तुम्हारे बस की नहीं है, सोचो भी नहीं।

मैं स्नेहा से बातें करने लगा और मन में खुशी इतनी की पूछो ना। यूँ समझिये की ये सब कैमरे के वाइड शॉट में चल रहा था, हम दोनों एक छज्जे के नीचे खड़े थे, बारिश की फुहार हम दोनों पर हल्की-हल्की आ रही थी, ठंडी-ठंडी हवा उसकी ज़ुल्फों वको परेशान करते हुए जा रही थी और साथ में सुनाई दे रहा था मुझे पापोन की आवाज़ में एक बैकग्राउंड म्यूजिक जो सिर्फ फ़िल्मो में होता है

"रिम झिम गिरे सावन, सुलग सुलग जाए मन

भीगे आज इस मौसम में, लगी कैसी ये लगन

रिम झिम गिरे सावन"

(छोटा सा फ़साना…)

अगले दिन स्नेहा कोचिंग में मेरे बगल आकर बैठ गयी और कल की बातचीत पर दोस्ती की मुहर लगा दी। क्लास में बैठे हम दोनों ऊब रहे थे। मैं इसलिए ऊब रहा था क्योंकि मुझे कंप्यूटर कोडिंग कुछ पल्ले ही नहीं पड़ रही थी और वो इसलिए क्योंकि वो पहले ही ये टॉपिक पढ़ चुकी थी। उसने मेरी कॉपी पर टिक टैक टो वाला खेल चालू कर दिया, ना समझ आया हो तो हमारी भाषा में कट्टम कुट्ट वाला खेल। अब तो बात इज़्ज़त पर आ गयी थी। पढ़ाई तो पढ़ाई, अगर इसमें भी वो जीत गयी तो बेइज्जती हो जाएगी। फिर क्या था, 15 में से 5 मैंने जीते 2 उसने और 8 ड्रा हो गया। 

क्लास ख़त्म होने के बाद उसने पूछा,

 “कहीं घूमने चलोगे” 

“कहाँ”

“बताओ तो सही, फिर बताती हूँ”

मैंने नज़र दौड़ाई, अनुराग और उसके साथ के 4 दोस्त हमें देख रहे थे, शालिनी और अंशिका कोचिंग गेट पर खड़े होकर स्थिति का अंदाज़ा लगा रही थी। मैंने इन सबको गॉसिप का टॉपिक देते हुए “हाँ” की और स्नेहा की स्कूटी पर बैठ गया। बैठते हुए मन दुविधा में थी कि हाथ कहाँ रखूं, उसके कंधों पर? नहीं नहीं, लड़कियों वाला पोज़ लगेगा। उसकी कमर पर? “अबे चाँटा पड़ेगा गाल पर”। फ़िर मैंने तुर्रम खां बनने का विचार त्याग दिया और हाथ चुपचाप बैकरेस्ट पर रख दिये।

स्कूटी पर मैंने उससे एक फ़ासला रखा था, “दोस्ती का फासला” लेकिन इस फ़ासले को स्नेहा के गेसू नहीं समझ रहे थे, लहराने के बहाने मेरे के चेहरे को छू कर वो भी मुझसे दोस्ती करना चाह रहे थे और दोस्ती की रिश्वत थी उनसे आती भीनी-भीनी ख़ुश्बू।

आज पहली बार मैं किसी लड़की के साथ लखनऊ को देख रहा था और अंदाज़ा लगा रहा था कौन ज़्यादा सुंदर है, लखनऊ या स्नेहा ? 

( प्यार की कश्ती में….)

प्यार की सबसे खास बात ये होती है कि जब हम प्यार में होते हैं तो हमें छोटी-छोटी बातें भी खुशनुमा लगती हैं जैसे सड़कों पर टहलना, चिड़ियों का चहकना, हवाओं का बहना या तारों भरे आसमान को देखना। प्यार हमारी ज़िंदगी में शक्कर जैसा होता है, वह हमारी ज़िंदगी के हर एक पल में घुल जाता है और हमें हर एक लम्हा प्यारा लगने लगता है। प्यार हमें फिलॉस्फर बनने अच्छा मौका देता फ़िर उस फिलॉसफी की भाषा को सिर्फ प्यार करने वाले समझ पाते हैं। लेकिन असल मुद्दा है, प्यार होता कब है और कैसे माना जाए कि प्यार हो गया। फिलॉसफी से समझिए तो प्यार की कोई परिभाषा नहीं होती। प्यार के अनंत रूप होते हैं, बचपन का प्यार, जवानी का प्यार, स्कूल का प्यार, पड़ोस का प्यार, एकतरफ़ा प्यार, फेसबुक का प्यार, एक दिन का प्यार या एक घंटे का प्यार। इन बातों से कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि हमें कौन सा प्यार हुआ है, फ़र्क़ इतने से पड़ता है कि हमनें उन प्यार के लम्हों को कैसे जिया। स्नेहा मेरी ज़िंदगी में वही प्यार लायी थी जिसका हर एक लम्हा खुशनुमा था लेकिन प्यार में शायद घड़ी की सुइयों की रफ़्तार बढ़ जाती है और हमें पता भी नहीं चलता।

ट्यूशन खत्म होने को थे और इसके बाद स्नेहा को अपनी आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली जाना था। इन चार महीनों में मुझमें उसे प्रपोज़ करने का साहस नहीं हुआ। 7 अप्रैल को आखिरी एग्जाम था और उसी शाम को उसकी दिल्ली की ट्रेन। “वो हमेशा के लिए चली जाएगी” इस ख़याल से मैं हमेशा भागता रहा क्योंकि मैं पहली बार किसी के इतना करीब आया था, डर लगता थ ये सोच के कि जिससे हम प्यार करें और वो हमें हमेशा लिए छोड़ के चला जाए तो कैसी हो जाती होगी जिंदगी। ट्यूशन के ये आखिर चार महीने एक म्यूज़िकल फ़िल्म जैसे बीत रहे थे। एक दूसरे से बातें ना हों तो हम बेचैन हो जाते, उसका मुझे मुस्कुरा के देखना, ट्यूशन में पूरा दिन बातें करना, चैटिंग करना, फ़ोन पर बातें करना और कभी कभी तो उसकी स्कूटी के पीछे बैठना, ये सब मेरे लिए एक सपने से कम नहीं था। स्नेहा को केके के गाने बहुत पसंद थे । कभी कभी तो वह गा के भी सुनाती थी। पढ़ाई के साथ-साथ उसे डांस भी बहुत पसंद था और गुस्सा तो पूछो मत, क्या मज़ाल सड़क पर कोई मनचला छेड़खानी कर दे, वहीं उसकी शामत आ जाये। धीरे-धीरे हम एक दूसरे को जानने लगे थे। स्नेहा के साथ ने मुझे यह समझाया कि टॉपर लड़कियों की ज़िंदगी में सिर्फ किताबें नहीं होती, उनमें हर वह बात होती है जो हम एक लड़की की आदतों में ढूंढ़ते हैं। एक बार तो अपने बचपन की बात बताते बताते स्नेहा मुझसे लग कर रोने लगी। जिस लड़की से एक बार बात हो जाये वह भी मेरे लिए एक सपना था, अब वह अपने सारे डर सारी आशंकाएँ मुझसे बतला रही है। यूँ समझिये यह सब चल रहा था एक प्यारी धुन के साथ

“अभी कुछ दिनों से लगे मेरा दिल, धुत हो जैसे नशे में

क्यूँ लड़खड़ाए ये बहके गाये है तेरे हर रास्ते में

है दिल पे शक मेरा

इसे प्यार हो गया……”

 (ख्वाब हो तुम या कोई हकीक़त…..)

लखनऊ में मेरी सबसे पसंदीदा जगहों में से एक है “गोमती रिवरफ्रंट”। अक्सर मैं और स्नेहा यहां आया करते थे। कभी घर से झूठ बोल के तो कभी कोचिंग छोड़ के। कुछ लोग तो हमें वहाँ “कपल” समझते थे। स्नेहा वहाँ मुझसे घंटों बातें करती थी जैसे क्यों उसे नॉनवेज खाना नहीं पसन्द, क्लास की संध्या उससे इतना जलती क्यों है, माँ हमेशा छोटे भाई की तरफ़दारी क्यों करती हैं, सपने सच क्यों नहीं होते या वह भगवान होती तो क्या क्या करती। बातें बातें और सिर्फ बातें। इन बातों में स्नेहा फ़ोकस में होती और रिवर फ्रंट की हवा स्नेहा के चेहरे मख़मल सरीके स्पर्श करती थी, हवाओं से उसके गेसू ऐसे लहराते मानों अभी अभी नींद से उठें हों और अंगड़ाइयां ले रहे हों जिन्हें वह बीच बीच में अपनी उंगलियों से सुलाने की असफ़ल कोशिश करती थी। ये सब एक रोमैंटिक मूवी के सीन से कम नहीं था।

आज 6 अप्रैल था, शाम के 5 बज रहे थे। मैं रिवरफ्रंट पर अकेला बैठा अधूरेपन को महसूस कर रहा था। “स्नेहा के बिना कितना अधूरा है सब, कितना अधूरा हूँ मैं, कितना अधूरा है ये रिवरफ्रंट, कितनी अधूरी होगी ये कहानी उसके बिना। आज आखिरी दिन था इस अधूरेपन को भरने का। मैंने उसे फ़ोन मिलाया,

“अजीब दास्ताँ है ये

कहाँ शुरू कहाँ खतम”

बड़ी दिलचस्प कॉलरट्यून थी उसकी, हर बार इस गाने को सुन कर मैं खुश हो जाता फ़िर एहसास होता ये एक सैड सॉन्ग है।

“हाँ आयुष”

“स्नेहा, मिलने आ सकती हो अभी रिवरफ्रंट ?”

“कल एग्जाम है और तुम वहाँ क्या कर रहे हो?”

“ऐसे ही, घर पर मन नहीं लग रहा था इसीलिए”

वह कुछ पल शांत रही, फ़िर बोली

“कुछ बात है क्या?” उसकी आवाज़ से लगा जैसे पता हो उसे कि क्या कहना चाहता हूँ मैं।

मैंने एक गहरी सांस ली लेकिन कोई वाजिफ़ जवाब नहीं सूझा और सुझा जो, वो बोलने की हिम्मत नहीं हुई

“नहीं बस ऐसे ही”

“अच्छा रुको 15 मिनट, आती हूँ”

उसको आना ही था और क्यों नहीं आती, आज शायद हमारी साथ में आखिरी शाम थी।

मैं बैठ कर उसका इंतज़ार करने लगा। शाम का सूरज अपने सुर्ख लाल रंग से पूरे आसमान को लाल किए हुए था। उसका धीमे धीमे ढलना मानों एक संकेत हो कि कुछ समाप्त होने वाला है।

मैं ढलते सूरज को देखते-देखते ये सोचने लगा, “स्नेहा कितनी इंटेलिजेंट है। चाहे पढ़ाई हो या कुछ और, वह बहुत अच्छी है। मैं तो टिकता भी नहीं उसके सामने फ़िर भी मेरे प्रति उसका व्यवहार ऐसा है जैसे वह भी अधूरी हो मेरे बिना।

मुझे एक-एक करके हमारी सारी बातें फ़्लैशबैक में याद आने लगी। घंटों बातें करना, हंसना, रूठ जाना फिर एक-दूसरे को मनाना। मेरे बर्थडे पर पहली बार किसी लड़की ने 12:00 बजे फोन करके विश किया था, वह स्नेहा ही तो थी। स्नेहा की तबीयत खराब हो जाने पर कैसे मैं बेचैन हो जाता और उसके पल-पल का हिसाब रखता और तो और एग्जाम के लिए स्नेहा समय निकाल कर मुझे पढ़ाती भी थी वह बात अलग है कि मैंने पढ़ाई से ज़्यादा स्नेहा पर ही ध्यान देता था।

“याद है हम पहली बार यहीं मिले थे”

मैं उसके बारे में सोच ही रहा था कि ये आवाज़ पीछे से आयी। मैंने पलट कर देखा, स्नेहा पीछे खड़ी थी।

“अरे कब से खड़ी हो यहाँ”

वो मुझे देख कर एकदम से हँस दी और बगल में बैठते हुए बोली,  

“जनाब जब आप किसी गहन चिंतन में लीन थे”

वह मेरे बगल बैठी लेकिन एक ‘दोस्ती का फ़ासला’ रख कर। जब मैं पहली बार स्नेहा की स्कूटी के पीछे बैठा था तब भी ‘दोस्ती का फ़ासला’ था और शायद थोड़ा ज्यादा था लेकिन उसके इतने करीब आकर भी मैं खुश था फिर क्यों आज यही फ़ासला मुझे इतना चुभ रहा था। क्या कह दूं उसे कि कितना प्यार करता हूँ तुम्हें मैं स्नेहा, क्या थाम लूं उसका हाथ और बता दूं उसे कि दोस्त के साथ साथ उसका बॉयफ्रेंड भी बनना चाहता हूँ मैं, और नज़ारा भी कितना सिनेमैटिक है, ढलता सूरज और ये गोमती नदी लेकिन कहीं दोस्ती टूट गयी तो ? इस डर ने कितनी ही मोहब्बत को इज़हार ही नहीं होने दिया। स्नेहा ने नज़रें मेरी तरफ़ की और पूछा,

“क्या हुआ, उदास लग रहे हो”

“तुम दिल्ली जाना कैंसिल नहीं कर सकती क्या”

स्नेहा ने नज़रें नीची कर ली जैसे कह रही हो “काश कर पाती”।

मैं चुपचाप नदी को देखने लगा। स्नेहा उस लम्हे की उदासी भांप गयी और मज़ाकिया अंदाज़ में बोली

“ बेटा तुम उस शालनी पर बहुत लाइन मारते हो ना, देखा है मैंने तुम्हें अक्सर उसके आगे पीछे मंडराते”

“अरे रे रे, तुमने ये सी.आई डी वाला काम कब से चालू कर दिया”

“उस शालिनी के चक्कर में मुझे भूल नहीं जाना”

“आएं, भूल नहीं जाना, अरे याद कौन रखने वाला है ये सब, इतनी दोस्ती कब हुई हमारी”

उस मज़ाक पर वह ज़ोर से हंस पड़ी। हम दोनों कुछ देर बातें करते रहे जिसका संबंध साथ में गुज़ारे 4 महीनों से था। फिर बातों बातों में स्नेहा ने सूरज को अंतिम विदाई देते हुए कहा

“यार तुम्हारे आने के बाद पता ही नहीं चले ये 4 महीने। कभी-कभी तो लगता है वह कोचिंग की बारिश कल ही की बात है, जैसे लग रहा है कोई सपना टूटने वाला है। कितना कम समय है ना हमारे पास जितना जीना है जी लो ताकि जब सपना टूटे तो कोई पछतावा ना रह जाए”

फ़िर एक पल को वो शांत होकर बोली

“काश हम समय समय में पीछे आ सकते और उनके साथ रह सकते जिनको हमें चाहे-अनचाहे छोड़ कर जाना पड़ता है। या फ़िर काश हम समय रोक सकते। ये सूरज जो ढल जाने की धमकी दे रहा है,काश इस सूरज को हाथ से पकड़ के ढलने से रोक लेते। ये सरसराती हवाएं, इनमें हम सब की बातचीत रिकॉर्ड होती है, काश इन रिकॉर्डिंग को एक सी.डी. में लोड कर लेते। ये नदियाँ, इनमें वह लम्हे बहते जा रहें हैं जिन्हें हम सँजो के रखना चाहते हैं, काश इन पर एक बांध बनाते और इन गुज़रते लम्हों को कैद कर लेते लेकिन समय पर किसका बांध

काश, ये सारे काश सच हो जाते”

वह चुप हो गयी थी, सूरज ढल चुका था, रिवरफ्रंट की भीड़ लगभग जा चुकी थी। अब साथ था गोमती नदी से आता मैंलेंकॉली म्युज़िक, रोशनी को मात देता अंधेरा और बहती हुई सरसराती हवा। हमारे बीच एक शांति तैर गयी थी क्योंकि इसके आगे की बातचीत के लिए अभी हमने शब्द ही नहीं बनाए हैं।

वह खड़ी हुई और चुप्पी तोड़ते हुए बोली

“बाईपास चलें”

“हां क्यों नहीं, वैसे भी यहां से सब जा ही रहे हैं

अक्सर हम दोनों उसकी स्कूटी पर बाईपास घूमने जाते थे। दोनों तरफ़ पेड़ और स्ट्रीट लाइट्स शहर के ट्रैफिक के शोर से दूर। आज शायद आखरी बार हो इसलिए स्नेहा उन सब जगहों पर जाना चाहती थी जहां जहां हमारी यादें हैं।

“स्कूटी आज तुम चलाओ, बस गिरा ना देना” हंसते हुए उसने मुझे चाभी पकड़ाई

मैं बस मुस्कुरा दिया और स्कूटी स्टार्ट करने लगा। आज पहली बार मैं उसे बैठा के स्कूटी चलाऊंगा वरना हमेशा मैं पीछे वाली सीट पर ही बैठता था।

लखनऊ की मदहोश हवा हम दोनों के चेहरे को स्पर्श करते हुए जा रही थी। स्नेहा के दोनों हाथ मेरे कंधों पर थे। हम शहीद पथ पर थोड़ी ही दूर आए होंगे तभी स्नेहा ने कहा 

“थोड़ा धीमे चलो ना”

मैं तो पहले ही धीमे चला रहा था, पलट कर कहा

“तुम लेट हो जाओगी घर पर और वैसे भी…….”

स्नेहा मेरी बात के बीच में ही थोड़ा आगे खिसक आयी, अपने दोनों हाथों को मेरे कमर के बगल से घुमा कर फिंगर क्रॉस कर दी और अपने चेहरे को मेरे कंधे पर रख दिया। 

आज मैं अपने प्यार को इतने करीब से महसूस कर रहा था, उसकी सांसो की गर्माहट को, उसकी उंगलियों को जिसने मुझे बांध रखा था, उसके गालों को जो मेरे कंधे पर आराम कर रहे थे, उसके भरोसे को जिसने कोई फ़ासला नहीं रखा था। मैं कुछ बोल कर इस लम्हे को खोना नहीं चाहता था इसीलिए हम चुप रहे। मुझे लगा घड़ी स्लो-मो में चलने लगी और इस बार बैकग्राउंड ट्रैक था निदा फ़ाज़िल का लिखा हुआ

“चुप तुम रहो, चुप हम रहें

ख़ामोशी को ख़ामोशी से….. बात करने दो”

(बांवरा मन देखने चला एक सपना…)

स्कूटी मेरे घर के करीब पहुँच गयी। मैंने आहिस्ता से ब्रेक लगाई, वो अभी भी ऐसे ही मुझे फिंगरक्रॉस करके बैठी थी। शायद वो भूल गयी थी कि जिन सपनों को वो मेरे कंधे पर देख रही है वो टूटने वाला है। शायद वो भूल गयी थी कि कल वो मुझे छोड़ के हमेशा के लिए जा रही है।

“स्नेहा” मैंने पुकारा, वो कुछ नहीं बोली बस ऐसे ही बैठी रही

“स्नेहा” मैंने दुबारा पुकारा इस आस से की ऐसे ही वो मेरी पुकार अनगिनत बार अनसुनी कर दे और यूँही मुझसे लग के बैठी रहे।

“हाँ” उसने जवाब दिया, थोड़ा असहज हुई फ़िर नीचे उतरने लगी।

आखरी बार मैंने उसे खुद के इतना करीब महसूस किया फ़िर मैं भी स्कूटी स्टैंड पर लगा दी। उसने स्कूटी स्टार्ट की, एक बार को मुझे देखा और आज बिना अलविदा कहे चली गयी।

वो रात मेरी सपनों में नहीं सिर्फ़ खयालों में कट रही थी और खयाल ऐसे कि कैसे इस कहानी को परफ़ेक्ट क्लाइमैक्स दूँ जिसमें वो मेरी हो जाए।

“कल दिन में मौसम ठंडा रहेगा और हवायें चलती रहेंगी ताकि हम दोनों के बाल हवा में आहिस्ता-आहिस्ता लहराते रहें। कल स्नेहा एग्जाम सेन्टर जल्दी पहुँच जाएगी ताकि आखिरी दिन का हर एक सेकंड वो मेरे साथ गुज़ारे। हमेशा लड़कियाँ भाव खाती हैं, लड़के नहीं खा सकते क्या? मैं थोड़ा देर से जाऊँगा और पूरे समय उसपे ध्यान ना देने की एक्टिंग करूँगा। परीक्षा खत्म होते ही वो मेरे पास आकर कहेगी

“गुस्सा हो क्या आयुष”

“गुस्सा, नहीं तो, मैं तो एकदम ठीक हूँ, कोई बात है क्या”

“तुम्हें पता है तुम बिल्कुल ठीक नहीं हो, पूरे पागल हो। तुममें ज़रा सी भी समझ होती तो जान लेते की सुबह से मैं तुमसे बात करना चाहती हूँ और तुम सिर्फ अपने दोस्तों के साथ लगे हो।

“दोस्तों के साथ नहीं तो किसके साथ रहूं”

“तो क्या मैं दोस्त नहीं हूँ तुम्हारी ?”

“शायद नहीं”…और ये शायद नहीं बोलने के लिए मुझे बहुत प्रैक्टिस करना पड़ेगा।

उसकी सारे सपने टूट जाएंगे जो उसने कल स्कूटी पर मेरे करीब आकर देखे थे। वो एक गहरी सांस लेगी अपने आँखों में कुछ आंसू लिए मुझसे कहेगी, “थैंक्स”। तभी बैकग्राउंड म्युज़िक चलेगा, वो कुछ कदम जाएगी ही और मैं उसे पीछे से आवाज़ दूंगा, 

“आई लव यू स्नेहा”

वो ठहर जाएगी और कुछ पल यह सोचेगी कि क्या जो उसने सुना वो सच है, वह पीछे मुड़ेगी और आकर लिपट जाएगी मेरे सीने से। उसकी आंखें मेरी कमीज़ को भिगाने की पूरी कोशिश करेंगी फिर कानों में वो धीमें से बोलेगी, 

“लव यू टू आयुष”

ऐसे बुना मैंने अपनी कहानी का क्लाइमैक्स। रात के 4 बज गए। ख़याल सपने की शक्ल ले चुके थे। 


(सुनी-सुनी सी दास्तां…)

सुबह उठते ही पहला ख्याल दिमाग में आया, स्नेहा। मैं तैयार होके एग्जाम सेंटर थोड़ा जल्दी ही पहुँच गया और इंतजार कर रहा था कि कब स्नेहा आए और मैं उसे नजरअंदाज करना चालू करूँ। दोस्तों से बातें करते हुए मेरी आंखें उसके इंतजार में बार-बार सड़क पर मुड़ जा रही थी और इंतजार इंतजार में मुझसे पूछतीं “क्यों भाई, कहाँ है तुम्हारी हीरोइन”। वो एग्जाम टाइम से सिर्फ 5 मिनट पहले पहुंची।

“सफेद-गुलाबी रंग की कुर्ती और नीले रंग की जीन्स, वो बिल्कुल वैसी लग रही थी जब उससे पहली बार बात की थी उस बारिश में। आंखों ने कहा “लो भाई, आ गयी तुम्हारी हीरोइन”। उसने स्कूटी पार्क की और मेरी तरफ़ आने लगी। मुस्कुराते हुए मेरे पास आई और बोली

“अरे यार, वो स्कूटी की चाभी नहीं मिल रही थी इसलिए थोड़ा देर हो गयी। तुम कब आये?”

“बस आधे घंटे पहले” कहते हुए मैं उसके साथ क्लासरूम में जाने लगा।

“बड़ी जल्दी आ गए। सब तैयार कर लिया क्या एग्जाम का”

“अरे कहाँ, हाँ लेकिन पास तो ज़रूर हो जाऊंगा”

वो हंस पड़ी और फिर बोली, “पास नहीं हुए तो अगले साल से दीदी बुलाना शुरू कर देना। सीनियर हो जाउंगी तुम्हारी।“

कुछ वैसा नहीं हो रहा था जैसा मैंने सोचा था। स्नेहा कल की बात से कुछ परेशान नहीं लग रही थी। वो वैसे ही बातें कर रही थी जैसे करती थी। कल की बात उसनें एक यादें बना के रख भर ली थी और जिसे मैं प्यार समझ रहा था शायद वो एक गुडबाय बोलने का तरीका था जिसमें हम सिर्फ़ प्यारी यादें रखते हैं।

इसी बीच घण्टी बजी, सब अपनी जगह पर बैठने लगे और परीक्षा चालू हो गयी। पूरी परीक्षा मैं उसे बार बार देख रहा था कि शायद वो भी मुझे देख रही हो और एक अच्छा आई-कांटेक्ट हो लेकिन उसने बस एक दो बार देखा और मुस्कुरा दी। बहुत हल्की मुस्कान, ज़बरदस्ती की मुस्कान, अनचाही मुस्कान।

एग्जाम खत्म हुआ वह मेरे पास आई और मजाक में कहा, “पास हो जाओगे या दीदी बोलने की प्रैक्टिस करनी है”।

“अभी इतने बुरे दिन भी नहीं आये की तुम्हें बहन बनाना पड़े”

“बेटा वो तो रिज़ल्ट आने पर पता चलेगा”

वो बार-बार मुझे स्नेहा दीदी-स्नेहा दीदी कह कर चिढ़ाने लगी लेकिन मुझे ये बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था। अभी मज़ाक क्यों कर रही है वो, अभी तो बिछड़ने की बातें करनी चाहिए ना, अभी तो प्यार की बातें करनी चाहिए। एक दूसरे के बिना हमारी जिंदगी कैसी होगी, वो बातें करनी चाहिए।

चलते चलते उसकी स्कूटी के पास पहूंचे। हम आखिरी बार एक दूसरे के सामने खड़े थे अलविदा कहने को, मुझे डर लग रहा था कि क्या ऐसे ही चली जायेगी स्नेहा, क्या ऐसे ही खत्म हो जाएगी ये कहानी। 

मैं उसे देख कर बोला “स्नेहा”

वो हल्के से मुस्कुराई लेकिन सच्ची मुस्कान, उम्मीद की मुस्कान, कुछ कहने की मुस्कान, “कोई बात है आयुष, कुछ कहना है?”

यही वो पल था जब मैं बता सकता था उसे कि कितना प्यार करता हूं उसे मैं, लेकिन उस पल मैंने खुद को बहुत कमज़ोर पाया, ना जाने कैसे आंसुओं का सोता फूटने को तैयार था। ये आँसू स्नेहा को ना दिख जाएं इसलिए मैं फ़ीते बांधने नीचे बैठ गया और आंखों को साफ़ करने की एक्टिंग करने लगा। फ़िर उठ कर बोला, “तो साथ में कौन जा रहा है दिल्ली”

“पापा हैं, पी.जी. में सामान रखवा के लौट आएंगे”

“ट्रेन कितनी देर में है फ़िर”

वो स्कूटी पर बैठी और बोली, “अभी 3 घंटे में ट्रेन है और पैकिंग भी करनी है वरना आज कहीं घूमने चलते”। मैंने कहा, “ कोई बात नहीं”। फ़िर स्कूटी स्टार्ट करते हुए उसने कहा, “ठीक है फिर, फ़ोन करते रहना, भूल ना जाना और एक ढंग की लड़की पटना, ये शालिनी वालिनी नहीं और रिज़ल्ट आते ही बताना।

“आई विल मिस यू” स्कूटी स्टार्ट करते हुए उसने कहा। उसने एक्सीलेटर घुमाया। मैं अपने क्लाइमैक्स का इंतज़ार कर रहा था, बैकग्राउंड म्युज़िक चलने का इंतज़ार कर रहा था, अपने आई लव यू बोलने का इंतज़ार कर रहा था, उसे सुन के उसके मुड़ जाने का इंतज़ार कर रहा था, आकर उसके गले लगाने का इंतज़ार कर रहा था।

मैं सड़क पर खड़ा था। ट्रैफ़िक का शोर कान के पर्दे फाड़ रहा था। चिलचिलाती धूप थी, सूरज एकदम सर पर। ऑटो वाला अपनी कर्कश आवाज़ में सवारियां बैठा रहा था। दो रिक्शे वाले आपस में झगड़ रहे थे, फेरी वाला चिल्ला-चिल्ला कर समान बेच रहा था और बाइक वाला पीछे मुझे हॉर्न दिए जा रहा था मानो कह रहा हो कि “साइड हटो यार अपनी कहानी लेकर”. 

यह जो सब मेरे आस-पास घट रहा था इसका इतना ही अर्थ था कि ज़िन्दगी में चीज़ें सिनेमैटिक नहीं होती। ना कोई कैमरा एंगल होता है ना कोई बैकग्राउंड म्यूजिक। ना अभी है ना तब था जब कोचिंग के बाहर बारिश हो रही थी, ना तब जब हम स्कूटी पर बैठे थे और ना तब जब हम गोमती ढलते सूरज को देख रहे थे। ये सब सोचते समझते देर हो चुकी थी। वो आंखों से ओझल हो चुकी थी।


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