वो रूखे रूखे पन्नों वाली किताब
वो रूखे रूखे पन्नों वाली किताब
पिछले डेढ़ साल से मैं दिल्ली में हूं। भाषा भी बदल गयी है, 'हमारे तुम्हारे' की जगह 'मैं तू' करने लगा हूं, कभी-कभी तो मराठी एक्सेंट में भी बोलता हूं ( संजय ने सिखायी, क्रेडिट नही लूंगा) ।
अभी परसों ही तुषार को फोन किया, कुछ लैपटॉप में दिक्कत आ रही थी। आसान भाषा में समझाने के लिए तुषार ने मुझसे कहा
"ऐसा समझो कि रैम सब कुछ सरिया के रखता है"
"सरिया के" !
बहुत दिन बाद सुना, सरिया के
एकदम से याद आया कि हम तो बस्ता "सरिया के" ले जाते बचपन मे एंट्री हो गयी -
एक बार सुबह सुबह हम अपना बस्ता सरिया ही रहे थे कि देखा मेरे मामा जो कल रात ही हमारे घर आए थे, बैठकर एक उपन्यास "जाल" पढ़ रहे थे।
(अरे वही जो गैंग्स ऑफ वासेपुर फिल्म में फैजल की बीवी मोहसिना पढ़ रही थी)
स्कूल से घर वापस आकर देखा तो किताब मेज पर रखी हुई थी, मोटी सी किताब, रूखे रूखे पन्ने और एक कहानी की खुशबू ( जो अन सी आर टी की किताबों से कभी नही आयी)।
दिल्ली के दरियागंज में-
आज बहुत दिन बाद ऐसी किताबें मार्केट में मिली तो लग रहा था जैसे
उन पुराने रूखे रूखे पन्नो वाली किताबों की पिक्चर लेकर एडिटिंग सॉफ्टवेयर में स्ट्रक्चर और टेम्परेचर बढ़ा दिया गया हो।
ना जाने क्यों इन रंगीन किताबों में रंग और खुशबू दोनों नहीं रह गए थे
