kalyan singh

Inspirational

4.2  

kalyan singh

Inspirational

हक़ ! चार आने का

हक़ ! चार आने का

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आज बहुत दिनों बाद अपने परम मित्र से मिलने जाने का उत्साह मुझे मन ही मन बहुत व्याकुल किये जा रहा था। 

कब जल्दी पहुँचूँ  ... कब उससे गले मिलूँ  और अपने दिल की किताब उसके सामने खोलूँ। 

 

बंशी काका के खेत से ऊख चुराना, गुल्ली - डण्डा खेलते हुए हमेशा निशाना पप्पू चाचा के आमों पर मारना, गर्मी के महीने में मड़ई पर तासों का वो खेल ! जिसकी जीत पर हर बार दो रुपये का पारले जी आना, भैंस चराते हुए उसकी पीठ पर बैठकर गड़ही में जाकर नहलवाना। बचपन की शरारतें मन में संजोए हुए ना जाने कितनी बातें याद आये जा रही थी।


इतने में ! 

चलिए चाचा ! आ गया आपका हनुमान चौराहा  - बस का कंडक्टर मेरे को देखकर बोलने लगा। 

बस से नीचे उतरकर इधर - उधर देखते हुए, यहां तो कोई चौराहा दिखाई नहीं दे रहा। बस का कंडक्टर बाबू तो यही कहकर उतारा था। 

फिर जेब से तार एक हाथ में लेते हुए और दूसरे हाथ से चश्मा पहनते ही पूरी नज़र उसपे गड़ाते हुए। ईश्वर चंद्र के पत्र में तो यही लिखा था। हनुमान चौराहा से रिक्शा लेते हुए सीधे लाल नगर पुलिया आकर, फिर वहां से दो सौ मीटर आगे आने पर  पहली बाएं गली से मुड़ते हुए कुछ सौ  मीटर आने पर श्यामू परचून की दुकान के पास  ...  वहां किसी से भी हमारा नाम पूछेंगे तो सीधे घर पर ही पहुँचायेगा।

  

तभी पास में जा रहे एक बच्चे को देखकर - ऐ बच्चे ! यहाँ हनुमान चौराहा कहाँ  है ?

हनुमान चौराहा ? - उसने मुझे ऐसे विस्मय भरी नज़रों से उपर से नीचे देखा जैसे कि मैं सर्कस से निकला कोई जोकर हूँ।जो यहाँ पर सर्कस दिखाने आया है। 

हां हनुमान चौराहा !

ये हनुमान चौराहा नहीं, सरस्वती रोड है। 

सरस्वती रोड ? कंडक्टर तो बोला यही है।

नहीं, हनुमान चौराहा यहां से दस किमी और दूर  है। 

बुद्धू बना दिया कंडक्टर ने ...  इतना बोलते हुए अपने आप ना जाने कितनी गाली मुंह से  निकली ये या तो मैं जानता हूँ या वहां मौजूद वो लड़का। 

कोई नहीं ज्यादा परेशान मत होइये। वो देखिये गणेश आ रही है। 

इस पर बैठ जाइए,  सीधे आपको हनुमान चौराहा  उतार देगी - इतना बोलते हुए वो निकल गया। 

दरअसल गणेश एक अलग किस्म की ऑटो है जो कि उस समय की बहुत मशहूर थी। जिसमें ड्राइवर के ख़ास अनुभव की बदौलत बिना किसी झंझट के बारह सीट के स्थान पर पच्चीस से तीस यात्री और उसके पीछे, ऊपर  और  दोनों तरफ हमेशा साइकिल, दूध का बल्टा, राशन से लदा बोरा , ट्रैक्टर का टायर  और कभी कभी तो भेड़ - बकरी भी लदे मिलते थे । उसका इंजन स्टार्ट करना भी एक कला थी जिसको एक रस्सी की सहायता से स्टार्ट करने में तक़रीबन तीस मिनट से एक घण्टे तक लग जाते थे। इसीलिए ड्राइवर एक बार इंजन स्टार्ट करके फिर सभी सवारी को छोड़ने के बाद ही बंद करते थे। उसमें गेयर, स्टेयरिंग के बगल में ड्राइवर सीट के सामने होता है। जबकि आज की गाड़ियों में ड्राइवर सीट के बगल में होता है।

इधर मैं भी तक़रीबन तीस मिनट में गणेश की सवारी करते हुए हनुमान चौराहा पहुंच गया। 

फिर पास में खड़े एक रिक्शे वाले के पास जाकर - लाल नगर पुलिया  चलोगे ? 

क्यों नहीं चलेंगे साहब ? - इतना बोलते हुए अपने गमछे से सीट को पोंछने लगा। 

कितना लोगे ?

साहब ! बारह आना लगता है। 

चलो ठीक है।

इतना सुनते ही वो मेरा सामान रिक्शे पर रखने लगा। फिर हैंडल पर लगे माँ लक्ष्मी की फोटो से आशीर्वाद लेते हुए अपना पहला पैर पैडल पर रखते हुए।  

चल मेरी संगिनी ... बोलते ही हमारी सवारी चल दी। 

संगिनी ! सुनना उस समय मुझे थोड़ा सा अजीब सा लगा। ये तो लोग अपनी पत्नी को बोलते है। मैं इतना सोच ही रहा था कि मेरी नज़र हैंडल पर बने डोलची पर गयी। जिसमें पॉलीथिन में कुछ रखा हुआ था।दरअसल रिक्शों  में डोलची होना कुछ अलग सा लगा, क्योंकि ये लोग अपना  सामान रखने के लिए सीट के नीचे की  जगह का  इस्तेमाल करते है।

क्या भाई ! रिक्शे में डोलची ?


साहब ! डोलची नहीं मेरी गृहस्थी का सहारा बोलिये। 

गृहस्थी ? - एकदम से मेरी आवाज़ निकल गयी।  

साहब ! अब गृहस्थी बनाने के लिए रोटी, कपड़ा और मकान चाहिए। 

अब देखिये ना ! 

मकान मेरा ये रिक्शा है, कपड़ा इस डोलची और सीट के नीचे है। 

और रोटी इसका पैडल है जो जितना चलेगा उतना पेट भरेगा। 


साहब ! हम तो अपनी गृहस्थी  साथ में लेकर चलते है। जहाँ कहीं भी रात गुजारने का आश्रय मिल जाता है वही अपनी गृहस्थी फैला लेते है। 


 परिवार कहाँ रहता है ? - इधर से मैंने पूछ लिया। 

साहब ! अब ये रिक्शा मेरी संगिनी है और यही मेरा परिवार भी है। ये तो मेरी बात भी सुनती है ! मुझे जितने भी पैसों की आवश्यकता होती है। बस इसको बोलता हूँ और ये मुझसे उतने पैंडल चलवा देती है। 

मैं मन ही मन ये कैसी पागलों की तरह बात कर रहा है। भला कोई निर्जीव चीज़ किसी की बात सुन कैसे सकती है।   


साहब ! मुझे पता है। आप यही सोच रहे होंगे कि कैसी ये पागलों की तरह बात कर रहा है ? लेकिन ये बिलकुल सच है। आज सुबह ही  मैंने इससे कहा कि इतनी सवारी दे देना जिससे कि मैं अपना और कल के मंदिर में मिले एक बुज़ुर्ग जो देख नहीं सकते हैं। दोनों लोग का पेट भर सकूँ। बस चार आने कम पड़ रहे है। और मुझे पूरा यकीन है कि आपको छोड़ने के बाद एक और सवारी मिल जायेगी। 

इसका कितना बड़ा दिल है। इतनी मेहनत इसलिए कर रहा है कि उसका पेट भर सके जोकि इसका कुछ नहीं लगता है।

इतने में बोल पड़ा - साहब ! जिसका कोई नहीं , उसका भगवान है।

 साहब ! मैं तो अपनी इस गृहस्थी में बहुत खुश हूँ। बस  भगवान से  एक ही प्रार्थना है कि जब तक जान रहे तब तक ये पैडल भी चलती रही।ताकि किसी पर बोझ ना बनकर लोगों का पेट भरता रहूँ। मैं तो जितनी छोटी गृहस्थी उतना ज्यादा सुख में विश्वास रखता हूँ।  


सही बात कही इसने !  लोग इस गृहस्थी के चक्कर में  ना जाने कितने झूठ , ना जाने कितने लोगो को  दुःख देते चले आ रहे है। चाहे वो त्रेता युग में कैकेयी हो,चाहे वो  द्वापर युग में दुर्योधन हो, या आज के कल युग में भाई - भाई से, बाप- बेटे से  ...  ये प्रथा तो  युगों - युगों से चली आ रही है। 


कुछ ही समय में आगे की चढ़ाई पर वो नीचे उतरकर  पैदल ही रिक्शा खींचने लगा। 

अरे ! मैं उतर जाता हूँ। - इतना बोलते ही मैं नीचे उतरने लगा। 

अरे नहीं साहब ! आपको  रिक्शे पर बैठाकर गंतव्य स्थान पर पहुँचाना ही  मेरा कर्म है , और आप इसके लिए मेरे को बारह आने दें रहे है ।भगवान सब कुछ देख रहा है। जो जैसा कर्म करेगा। वो उसको उसी हिसाब से फल देगा। 

यहाँ मैं अपने आप को एक शिष्य सा अनुभव करते हुए उपदेश सुन रहा था।ठीक जैसा कि महाभारत में  कैसे कृष्ण भगवान सारथी बनकर अर्जुन को गीता का उपदेश दे रहे थे। 

इसके विचारों के प्रकाश के सामने मेरे किताबों द्वारा अर्जित ज्ञान की ज्योति कही छुप सी  गयी थी । 


इतने में ये लीजिये साहब ! आपका लाल नगर पुलिया आ गया।  

अरे ! यहाँ से दो सौ मीटर और आगे जाना है फिर वहां से पहली बाएं गली ! 

मगर साहब ! आप तो कहे थे कि लाल नगर पुलिया जाना है तो मैंने बारह आना बोल दिया। 

अरे कोई नहीं !  चार आने और ले लेना। भगवान ने तुम्हारी सुन ली। अब तुमको दूसरी सवारी की जरूरत नहीं पड़ेगी।  

हां साहब ! - बोलते ही उसके चेहरे पर आ रही मुस्कान से साफ़ - साफ़ पता चल  रहा था। 

 कि अंधा क्या चाहे दो आंखें !  मन ही मन भगवान को धन्यवाद देने लगा। आज आपकी  कृपा से हम दोनों के खाने का इंतज़ाम हो गया।अब और उत्साह के साथ पैडल मारने लगा। 

इतने में हम तार पर लिखे पते के ठीक सामने पहुंचे।  इधर मैं कुछ देख ही रहा था कि ...


ईश्वरचंद्र के बच्चों ने देखते ही मेरे पर आक्रमण कर दिया। लगता है कि ये लोग मेरी बाट जोह रहे थे। मैं भी  पूरी तरह से तैयार अपने जेब से लेमन चूस उनके हाथों में देते हुए आक्रमण को जीत में बदल दिया। फिर उनकी एक्सप्रेस हल्ला करते हुए निकल गयी।  

आइये भाई साहब ! - मेरा सामान अपने नौकर के हाथ में रखते हुए  ईश्वरचंद्र बोलने लगे। 

जेब में हाथ डालते हुए मैं जैसे ही पैसा निकालने लगा तभी सामने से ! - अरे  भाई साहब ! आप हमारे अतिथि हैं।

अतिथि देवो भव : 

अर्थात अतिथि देवता स्वरूप होता हैं। देवता को लोग कुछ न कुछ अर्पण करते हैं। ना कि उनसे कुछ ग्रहण ! इतना बड़ा पाप मुझसे ना करवाइये - बोलते हुए जेब से पैसा निकालने लगे। 

चलिए आप घर पर आराम करिये मैं बस अभी आता हूँ। 

ये छोटा सा सफर और आपके विचार मुझे हमेशा याद रहेंगे - रिक्शे वाले को  बोलते हुए मैं निकल लिया। 

फिर बारह आने रिक्शे वाले के हाथ में देते हुए भाई साहब भी जाने लगे। 

साहब ! ये तो बारह आने है ? बात तो सोलह की हुई थी। - पीछे से रिक्शे वाले ने अपने हाथ में बारह आने दिखाते हुए बोला। 

यहाँ नये आये हो क्या ? 

साहब ! मैं तो बहुत साल से चला रहा हूँ। 

तो क्या तुमको यहाँ का भाड़ा पता नहीं है ? बहुत साल से चला रहा है। बात करता है ... 

उनकी इस चिल्लाहट को सुनकर आस पास के कुछ लोग और आ गए। जिनका काम बस आग में घी डालकर उसकी ज्वाला में अपने हाथ सेंकने का होता  है।

साहब ! सवाल चार आने का नहीं है।  सवाल तो जुबान का है चार आने तो मैं अगले सवारी से कमा लूँगा। मगर ये जुबान कमाने में बहुत समय लगते है।  हर गलत जुबान के लिए हम सब को उपर बैठे सृष्टिकर्त्ता को जवाब देना पड़ता है।फिर अपनी हार मानते हुए चुपचाप वहां  से निकल जाना ही बेहतर समझा। 

काम है रिक्शा चलाना ! और बाते महात्माओं वाली। चलो निकलो - एकदम से कर्कश भरी आवाज़ में रिक्शे वाले पर भड़कते हुए बोले । 

क्या हुआ भाई साहब ! बाहर कुछ चिल्लाने की आवाज़ आ रही थी। - उनके कमरे में घुसते ही मैंने पूछा। 

अरे ! कुछ नहीं आपका रिक्शे वाला मुझे महात्माओं के उपदेश सुना रहा था। 

हां, मुझे उसके विचार बहुत अच्छे  लगे। 

दूसरों को ठगना ! यही उसके विचार है ? 

ठगना ! मैं कुछ समझा नहीं ?

बारह आने के बजाय सोलह आने मांग रहा था। सब समझता हूँ। कोई परदेसी देखा नहीं कि इनके भाड़े का मीटर आसमान से बातें करता है। 

लेकिन मैंने तो सोलह आने पर तय किया था। 

अरे आप नये है इसलिए आप को पता नहीं है कि बारह आनें ही लगते है।


अरे  भाई साहब ! बेचारा गरीब था।

मैं मन ही मन अपने को कोसने लगा कि क्यों नहीं वहां रुक गया । इस चार आने का ज़िम्मेदार मैं हूँ।मेरी वजह से वो अपने दृश्यहीन बुजुर्ग  को खाना नहीं खिला पायेगा। हे भगवान ! उसको एक और सवारी दिलवा दो। और मुझे मेरे मित्र को माफ़ कर दो। 

गरीब - वरीब कुछ नहीं था। इन लोग के बारें में सब पता है। यहाँ हमसे ज्यादा पैसे लेते हैं  और वहां दारु की भट्टी पर लैला मजनूँ शराब के साथ एक और ... एक और ...  बोलते हुए नज़र आते है। - मुझपे झेपते हुए बोले। 

किसी एक के कर लेने से आप सभी पर आरोप नहीं लगा सकते। 

फिर कुछ समय बाद, शुरू हुई हमारी बहस भी, बिना किसी नतीजे के  खत्म हो गयी । इस तरह मेरे सारे अरमान मन में ही धरे के धरे रह गये।जो मैंने यात्रा शुरू होने के पहले संजोए थे।

 

पापा  ...  पापा  ...  मुन्नू  ! - बड़े बेटे ने एकदम से हाँफते - हाँफते बोला। 

क्या  हुआ मुन्नू को ?

अब थोड़ा सा साँस दबाते हुए  -  वो खेलते - खेलते एक रिक्शे से लड़ गया। 

कहाँ है वो अभी ? 

नीचे है। 

हम दोनों जल्दी - जल्दी में नीचे पहुंचे तो पता चला कि पास के डॉक्टर के यहाँ  उसकी मरहम पट्टी हो रही थी। 

भाई साहब ने आव न देखा ताव रिक्शे वाले को चार थप्पड़ जड़ते हुए बोले -  करे ! दिखात नाही रहा का ?

साहब ! बाबू हरेन हमार रिक्शवा के समनवा आई गयेन। - इतना बोलते ही उसके आँख से आंसू आ गए। 

अब ये आंसू मार के है या गरीबी के ! ये तो रिक्शे वाला ही जाने।

 हमारी दुनिया का हमेशा से ये दस्तूर रहा है कि गलती कोई भी करे लेकिन हमेशा गरीब को ही ज़िल्लत सहनी पड़ती है। 

पापा ! आप इनको क्यों मार रहे है यही तो इसको यहाँ पहुँचाये हैं। - बड़े बेटे ने पापा को रोकने के इरादे से बोला। 

पापा  नहीं ...  पापा नहीं  ... -  एकदम से  चीख के साथ  उस चार साल  के छोटे से बच्चे के अंदर  की  इंसानियत भी जाग उठी । लेकिन चालीस  साल का अनुभव भी आज चार साल के सामने कमज़ोर  साबित हो रहा था। 

पापा ! इनकी कोई गलती नहीं है। मैं ही गलती से सामने आ गया था। बल्कि ये तो सवारी उतारकर अपने गोद में लेकर मुझे यहाँ लाये है। 

आज गरीब की मानवता उसकी गरीबी  पर भारी पड़  रही थी। जबकि अमीर की मानवता उसकी अमीरी पर कमज़ोर साबित हो रही थी। 


और मन ही मन - 

गरीब के चार आने के हक़ मारने की सजा इस चार साल के बच्चे को चुकानी पड़ी।अब इस बेक़सूर को  थप्पड़ मारने  की सजा कब और कैसे मिलेगी ये तो वक़्त आने पर ही पता चलेगा ?


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