हमारे त्यौहार और संस्कार

हमारे त्यौहार और संस्कार

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रोहन बड़े दिनों बाद शहर से परिवार सहित अपने गांव आया था, मानो इस तंग जीवन से खुशियों के चार पल चुराने आया हो। उन बड़ी- बड़ी इमारतों के बीच प्रतिदिन की आपधापी, ऑफिस से घर, घर से ऑफिस। खुद तो ठीक है, पर परिवार के प्रति भी तो वही जवाबदार था न। यूँ कहें कि खुद के लिए कम बच्चों के लिए ज्यादा फिक्रमंद था वो, जैसे- पत्नी का दिन भर चाय, नाश्ता, टिफिन, साथ ही घर का सारा काम। सूरज पूरब से पश्चिम कब आ जाता है पता ही नहीं चलता। शायद इन ऊँची इमारतों और उनसे ऊँची ख्वाहिशों के तले जैसे खुशियों का आश्मां कहीं दब सा गया है, बच्चों का स्कूल, स्कूल से घर, वही किताबी दुनिया किताबी ज्ञान....

इन सब से दूर रोहन आ गया था एक खुली सी बहती हुई हवा के बीच, जहाँ कितनी भी साँस लो कम नहीं होगी, यहाँ की हवा मुक्त है, उन चिमनियों के धुओं से, मानो अभी- अभी ताजा- ताजा छोड़ी गई थी पेड़ों द्वारा खास रोहन और उसके परिवार के लिए, जैसे कोई घर आए मेहमान के लिए ठंडा जल लेकर दौड़ा आया हो। 

"हाँ! याद आया यहाँ का जल एकदम साफ होता है", इसे किसी प्यूरीफायर की जरुरत नहीं पड़ती, तभी तो यहीं से जाते हैं बड़े बड़े खिलाडी अपने देश का नाम रोशन करने और बन जाते है चैंपियन। 

रोहन महसूस कर रहा था कि, जैसे कुछ ऐसा नहीं हो रहा जो होता है हर रोज, "अरे हाँ! वो गाड़ियों की आवाजाही, पी -पी करता हॉर्न और धमाचौकड़ी, कुछ शांति सी महसूस हो रही थी, दूर दूर तक हरे भरे खेत खलिहान और उनके बाद मानो ऊँचे ऊँचे पहाड़ थामे हुए है नीले नीले गगन को। 

रोहन खुशी से आगे बढ़ा ही था कि, सहसा रुक गया "हाँ! यही तो है वह मंदिर वाला, वर्षों पुराना इमली का वृक्ष, जिसके नीचे हम गर्मियों की छुट्टियों में खेला करते थे, उफ़! कहाँ गए वो दिन राजन, आजाद, ललन,संतोष, बिजेंद्र, पंकज, इंद्रकुमार, मनोज, दीनू, लक्ष्मीकांत और ढेर सारे दोस्त, मानो ये पेड सारे दोस्तों की कहानी सुना रहा था, ये जानता जो है सबकी पोल पट्टी। रोहन मुस्कुराता हुआ आगे बढ़ गया मानो आज न उसे ऑफिस की जल्दी है, न ऑफिस के काम की टेंशन। 

शाम को घरों में मिठाइयां बांटी जा रहीं हैं, पड़ोस के लोग घर आ रहे हैं, छोटे बड़े आपस में गले मिल रहे हैं, छोटे-बड़ों के पैर छू रहे है और कहीं दूर किनारे में खड़ा रोहन का बेटा चुपचाप सब देख रहा है, मानो संस्कार नाम की किसी नई पुस्तक का बिलकुल नया पाठ पढ़ रहा हो। 

दीपक जल उठे थे, नई नई रोशनी से मानो झिलमिला गया था सारा गांव और रोहन समझ रहा था, जैसे उसके गांव आने से ये रौशनी आई थी। सच में, रोहन सही सोच रहा था।ये रौशनी रोहन के आने से आई थी या नहीं ये तो नहीं पता, पर रोहन के परिवार में, उसके माँ बाबा के चेहरे पर खुशियां जरूर आईं थी, छोटे भाई बहन के चेहरे जरूर खिल गए थे मानो रोहन रूपी सूरज के प्रकाश से ये उपग्रह चमकने लगे हों। रोहन की पत्नी ऐसे लग रही थी जैसे आकाशगंगा निकल आई हो, अपने पथ से बाहर और रोहन के बच्चे उछल कूद करते हुए धूमकेतु और उल्कापिंड की भाँति मानो खेलते ही खेलते यहाँ से वहां कब गायब हो जाते हैं पता ही नहीं चलता।

इस प्रकार जैसे जगमग हो गया सारा घर जैसे सौरमंडल और चमक गया हो ये गांव रूपी सारा ब्रम्हांड।


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