हिम स्पर्श - 21

हिम स्पर्श - 21

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चाँदनी के प्रकाश में वफ़ाई मार्ग पर बढ़े जा रही थी। मार्ग शांत और निर्जन था। केवल चलती जीप का ध्वनि ही वहाँ था। यह कैसी मरुभूमि थी जहां दिवस के प्रकाश में भी मनुष्य नहीं मिलता और रात्रि अधिक निर्जन हो जाती है।

ना रात्रि थी ना दिवस था। रात्रि अपने अंतिम क्षणों में थी तो दिवस अभी नींद से जागा नहीं था। जीप धीरे धीरे चल रही थी। अश्रु भी वफ़ाई की आँखों से गालों तक की यात्रा धीरे धीरे कर रहे थे। जीप अविरत चल रही थी किन्तु अश्रु रुक रुक कर बह रहे थे।

वफ़ाई जीत को छोड़ कर भाग चुकी थी। दूर, अधिक दूर जा रही थी। उसका शरीर अवश्य ही जीत से दूर जा रहा था किन्तु मन और हृदय जीत के समीप, अधिक समीप जा रहा था। उसके विचारों मे जीत ही जीत छाया हुआ था। वफ़ाई अपने मन से, हृदय से जीत के साथ बीते क्षणों को मिटा देना चाहती थी किन्तु वह सफल नहीं हुई।

जीत के साथ बीते सभी क्षणों ने वफ़ाई के मन को घेर लिया। ‘वह प्रथम क्षण जब चित्राधार गिर गया था और जीत गिरे हुए सामान को उठा रहा था, मैंने जीत की तस्वीरें ली थी, जीत ने क्रोध किया था। जीत ने अभी अभी तो जीप की चाबी दी थी, हँसते हँसते।‘

‘हाँ, चाबी देते हुए वह स्मित कर रहा था। उसके मुख पर कोई क्रोध नहीं था। वह शांत था, स्वस्थ भी था। उसके मुख पर कोई प्रश्न नहीं था। उसके मन में प्रश्न अवश्य होंगे। फिर भी वह स्वस्थ था। उसने स्वयमेव मुझे भाग जाने की अनुमति दी थी।‘

‘यह जानते हुए कि मैंने उसके लेपटोप से सारी तस्वीरें चुरा ली थी, मैं उसे इस मरुभूमि में फिर से अकेला छोड़कर भाग रही थी, फिर भी, फिर भी जीत स्वस्थ था, सहज था, शांत था, स्वाभाविक था।’

‘मेरे इस कार्य से वह जरा सा भी विचलित नहीं था। कोई इतना स्वस्थ और शांत कैसे रह सकता है। क्या कारण होगा ?’

‘मैं नहीं जानती।‘

अश्रु की कुछ बूंदें आँखों से गिरकर जीप चला रही वफ़ाई के हाथों पर गिरी। उसने गहरी सांस ली। अनायास ही उसके पैरों ने जीप को रोक दिया। एक झटके के साथ जीप रुक गई। तीव्र चित्कार ने मरुभूमि की शांति को भंग कर दिया। उसने जीप बंद कर दी। वह बैठी रही, रोती रही।

वह अपने विचारों से संघर्ष करने लगी। एक तरफ वह जीत से दूर भाग जाना चाहती थी और उसमें सफल भी हो गई थी तो दूसरी तरफ ऐसे चोरों की भांति भाग जाने से उसका मन उसे दोषित मान रहा था। अपने ही विरोधी विचारों के बीच वह फंस गई। वह जीप चलाने लगी।

वफ़ाई के मोबाइल पर तीन चार संदेश आए। मोबाइल प्रकाशित हो उठा। वफ़ाई जीप चलाते चलाते ही उन संदेशों को पढ़ने लगी। सभी संदेश वफ़ाई के पति बशीर के थे। वह मन ही मन आनंदित हो गई। उसने उत्साह और अधीरता से संदेश पढ़ें। संदेश पढ़ते ही वफ़ाई क्षुब्ध हो गई। वफ़ाई ने तीव्रता से जीप की ब्रेक दबा दी। जीप रुक गई।

वफ़ाई ने बशीर के संदेशों को पुन: पढ़ा। उस के मन में अब कोई संदेह नहीं रहा। सभी बातें स्पष्ट हो गई।

गहरी सांसें लेने लगाई, वफ़ाई। बशीर के घात से आहत हो गई थी वफ़ाई। वह रोने लगी। कुछ क्षण तक अनराधार रोती रही। अनेक विचारों में स्वयं को खोती रही।

समय के कुछ टुकड़े व्यतीत हो गए, साथ में अश्रु की कई धाराएँ भी। धीरे धीरे वफ़ाई स्वस्थ होने लगी। उसे कुछ भी नहीं सुझा तो जीप चलाने लगी। जीप किसी अज्ञमैं कहाँ जा रही हूँ? क्यों जा रही

वफ़ाई, तुम अपने घर जा रही हो। हिम से आच्छादित पहाड़ों पर बसे तुम्हारे नगर जा रही हो। वही पहाड़, वही घाटियां, वही झरने, वही हिम, वही मौन, वही निर्जनता, वही लोग, वही बशीर..बशीर ?

हाँ, बशीर वहाँ है। तुम वहीं तो जा रही थी। बशीर को मिलने।

नहीं, नहीं। अब बशीर वह बशीर नहीं रहा। मैं बशीर से नहीं मिलना चाहती, कभी नहीं। मैं मेरे घर लौटना नहीं चाहती।

वफ़ाई, कब तक नहीं जाओगी तुम अपने घर ? मनुष्य सारा संसार घूम ले किन्तु लौट कर तो घर ही जाता है। तुम्हें भी तो घर...घर ? कौन सा घर ? मेरा वहाँ अब कोई घर नहीं है। मैं वहाँ नहीं जाना चाहती।

तो तुम कहाँ जाओगी? कहीं ना कहीं तो जाना ही होगा। अथवा सारा जीवन इस जीप को चलाती रहोगी, इसी तरह किसी अज्ञात मार्गों पर, अकेली।

मैं नहीं जानती। किन्तु मैं घर नहीं जाना चाहती।

तो कहाँ जाओगी ?

तुम ही बताओ न, मैं कहाँ जाऊं ?

मैं बताऊँ ?

और नहीं तो क्या ? तुम्हें ही बताना होगा। कहो।

मैं बता तो दूँ किन्तु तुम मानोगी नहीं।

तुम बताओ तो सही। मैं मान लूँगी।

तो तुम जीत के पास लौट जाओ।

तुम मूर्ख जैसी बात कर रही हो।

तो तुम जानो तुम्हें क्या करना है। मैं अब तुम्हारी कोई सहायता नहीं कर सकती।

किन्तु मैं तो जीत को छोड़कर चोरों की भांति भाग आई हूँ। तो ?

कितनी कुरूप शर्त थी जीत की ? मेरी ही तस्वीरों को जो उसने छिन ली थी जिसे लेने के लिए मुझे चित्र कला सिखनी होगी ! मुझे आदेश देने वाला वह होता कौन है ?

वह जीत, तुम्हारा मित्र जो है, वफ़ाई। बड़ा खराब मित्र था वह। मैंने भाग कर ठीक ही किया। उसे यह दंड मिलना ही चाहिए।

जब हम किसी को अपने व्यवहार से दंडित करते हैं तब वास्तव में हम स्वयं को ही दंड देते हैं।

नहीं, ऐसा नहीं है। जीत को ही दंड दिया है मैंने।

क्या जीत दंडित हुआ है ? अथवा तुम स्वयं को दंडित कर रही हो ? तुम्हारे आने से पहले ही वह इस मरुभूमि में रह रहा है, अकेला ही। और तुम्हारे जाने के पश्चात भी वह यहीं रहेगा, अकेला। उसे कहाँ कोई दंड मिला ? वफ़ाई, वास्तव में तुम ही दंडित हो गई हो, तुम्हारे इस कार्य से। मैं कैसे दंडित हुई ? मेरे पास खोने को कुछ भी नहीं था। वास्तव में जीत ने मुझे खो दिया है। तो दंड तो उसे ही मिला ना ?

वफ़ाई, मरुभूमि के पास खोने को कुछ नहीं होता। हिम ही सदैव खोता रहता है।क्या तात्पर्य है तुम्हारा ?

मरुभूमि के पास केवल रेत ही होती है, और कुछ नहीं। जब कि हिम की परत के नीचे पानी होता है। हिम इस पानी को सदैव खोता रहता है, अपनी शीतलता को खोता है और अपने अस्तित्व को भी खो देता है। तूफान से पहले और तूफान के पश्चात भी रेत वैसी की वैसी ही रहती है।

मैं हिम सुंदरी हूँ अर्थात मैं ही पराजित होती रहती हूँ, यही तात्पर्य है ना तुम्हारा ?’

‘हाँ तुम पराजिता हो, तुम पराजिता हो... वफ़ाई के कानों में शब्द गूँजते रहे। उसने अपने दोनों कानों पर हाथ रख दिये और अपने ही शब्दों की प्रतिध्वनि को अनसुना करने लगी, विफल हो गई।

उसने आँखें बंद कर ली, गरदन को पीछे की तरफ झुकाया और जीप की कुर्सी पर लेट गई। कुछ ही क्षणों में वह गहरी निद्रा में खो गई।

वफ़ाई जब जागी तब दिवस की आयु तीन घंटा हो चुकी थी। उसने अपने आप को मार्ग के एक कोने में पाया। सदा की भांति मार्ग निर्जन था। कल रात्रि जो हुआ और वह यहाँ तक कैसे आ गई वह सब घटनाएँ वफ़ाई याद करने लगी।

वफ़ाई पुन: रोने लगी। वह मन भर रोती रही। वह रुदन स्वाभाविक था, सहज था, शुध्ध था।

जब उसका रुदन सम्पन्न हुआ तब सब कुछ स्पष्ट था, उसके विचार भी।

वफ़ाई ने गहरी सांस ली, जीप चालू की और चल पड़ी। जीप सही मार्ग पर जा रही थी। वफ़ाई उस मार्ग को जानती थी।

वफ़ाई स्मित करने लगी, गीत गाने लगी। उसने जीप के काँच खोल दिये। नई हवा जीप के अंदर प्रवेश कर गई। उसे लगा की पर्वत की हवा उसके साथ हो गई है और जीप मे साथ साथ यात्रा कर रही है। वह जीप चलाती रही, तेज गति से। उसे कहीं पहुँचने की शीघ्रता थी। निर्जन मार्ग अब व्यतीत हुए क्षणों से भरपूर था, किसी के साथ होने की अनुभूति से भरा था।


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