गरीबों के स्कूल

गरीबों के स्कूल

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विद्यालय में बच्चों की चहल-पहल की आशा की जाती है परन्तु यह विद्यालय बहुत विचित्र था। न यहां बच्चों का शोर-शराबा था और न ही विद्यालय सरीखी कोई व्यवस्था। यकायक इस सन्नाटे को चीरती एक आवाज़ ने मानो सबमें चेतना संचरित कर दी। सब इधर-उधर दौड़ लगाने लगे।

बीएसए साहब आ गए। बीएसए साहब आ गए।

अध्यापक कक्ष में विराजमान शिक्षक शीघ्रता से बीएसए साहब के स्वागत के लिए ऐसे तैयार खड़े हो गए मानो लड़की के ससुराल वाले आ गए हों।

आइए सर, आइए बैठिए। कुछ चाय-पानी...

पानी लाओ ज़रा सर के....

रहने दीजिए। विद्यालय के रजिस्टर दिखाइए। अध्यापक-छात्र उपस्थिति रजिस्टर और मिड-डे मील का रजिस्टर दिखाइए।

सर लीजिए। ये मैडम कहाँ है?

सर आज उनके बच्चे की तबियत ख़राब हो गयी थी इसलिए वे अवकाश पर हैं।

उनकी सूचना है? कोई प्रार्थना-पत्र?

सर फ़ोन द्वारा सूचना प्राप्त हुई।

विद्यालय मंे कितने बच्चे हैं?

सर बावन नामांकित हैं।

और आज आए कितने हैं?

सर चार..

चार. सिर्फ़ चार। बाकी बच्चे कहाँ हैं? विद्यालय क्यों नहीं आए? और आप चार बच्चों पर यहाँ चार शिक्षक तैनात हैं। क्या कर रहे हैं आप सभी यहाँ? बच्चे क्यों नहीं लाते? बच्चांे को विद्यालय लाने के लिए आपने क्या प्रयास किए? आप में से कोई जवाब क्यों नही दे रहा? प्रधानाध्यापक कौन हैं यहाँ?

सर वे गाँव में बच्चों को बुलाने गए हैं।

और दूसरे अध्यापक?

सर वे कक्षा में बच्चों को पढ़ा रहे हैं।

सभी को बुलाइए यहाँ।

(सभी को बुलाया जाता है।)

हम्म्म्म्म्म....आपके विद्यालय की इस अनियमितता के लिए आपमें से किसी के भी पास कोई स्पष्टीकरण है? मैंने आज जितने भी विद्यालय देखे उन सभी में बच्चों की अनुपस्थिति की समस्या समान है। अभी तक मैं प्रत्येक विद्यालय के शिक्षकों को निलंबित करता हुआ आ रहा हूँ परन्तु यह कोई समाधान नहीं है। मैं समस्या का मूल कारण जानना चाहता हूँ। क्या आपमें से कोई मुझे समस्या के मूल कारण से अवगत कराएगा?

(सभी चुप रहते हैं।)

देखिए! चुप रहकर समस्या का हल नहीं निकला जा सकता। आप सभी मुझे अपनी समस्याओं से अवगत कराइए। शायद मैं आपकी कुछ सहायता कर सकूँ।

सर! बहुत कठिन है इन समस्याओं का हल निकालना। ‘जाके पैर न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई।’ हमारी समस्याएँ सबको नाटक लगता है।

आप हमें बताएं।

सर कहाँ से शुरू करें? ये वे बच्चे हैं, जो बेहद गरीब परिवारों से हैं। जिनके पास खाने के लिए दो वक्त की रोटी तक नही है। मार्च-अप्रैल और अक्टूबर-नवंबर के महीने खेती-बाड़ी के होते हैं। ये सभी बच्चे विशेषतः इन महीनों में खेतों में जाकर पैसा कमाते हैं। स्कूल में इन्हें एक वक्त का मिड-डे मील मिलता है, तो खेतों में एक दिन के दो सौ-तीन सौ। यहाँ तक कि कई बार पाँच सौ रूपए तक मिल जाते हैं, जो इनकी व इनके परिवार की ‘आज’ की जरूरत पूरी करते हैं। खाली पेट तो भजन भी नही होता सर। और यही इन बच्चों की समस्या है। एक समय के खाने के लिए ये अपने 500 रूपए नहीं छोड़ सकते। कई बच्चे तो अक्सर मिड-डे मील के समय आते हैं और खाना खाकर चले जाते हैं। सर गरीबी ने इनकी प्राथमिकताएँ परिवर्तित कर दी हैं। हमने कई बार समझाया। आज भी हमारे प्रधानाध्यापक गए हुए थे, बच्चों की पढ़ाई के लिए ही समझाने। हम उन्हें कहते तो हैं सर परन्तु मन ही मन उनकी बात वास्तव में कचोटती भी है कि यदि हम भूखे मर जाएंगे तो काहें की पढ़ाई, जब करने वाला ही भूखा मर जावेगा?

सर हम अपवादों का सामान्यीकरण नहीं कर सकते कि एक गरीब आइएएस बन गया तो प्रत्येक गरीब बने। यही स्थिति इन गरीबों की है। हम इनसे क्या किसी से भी दृढ इच्छाशक्ति की आशा नहीं कर सकते। गरीबी इन बच्चों के विकास में बाधा की मूल कड़ी है।

तो आप ये बताएं, ‘‘सरकारी विद्यालयों के पास खुले ये प्राइवेट स्कूलों में विद्यार्थियों की संख्या इतनी अधिक कैसे है? ये भी बच्चे इसी गाँव के हैं।’’

सही कहा आपने सर। ये इसी गाँव के बच्चे हैं। इसके कई कारण हैं। इन विद्यालयों में जाने वाले बच्चे सरकारी विद्यालयों में आने वाले बच्चों के स्तर से थोड़े से ऊपर हैं। यह भी सच है कि सरकारी विद्यालयों के शिक्षक, प्राइवेट विद्यालयों के शिक्षकों से कहीं अधिक योग्य व शिक्षित हैं। फिर भी बच्चे इन प्राइवेट विद्यालयों में जाना अधिक पसंद करते हैं। इसका पहला कारण विद्यालय में निःशुल्क दिये जाने वाले बैग, जूते-मौजे, पुस्तकें व भोजन इत्यादि। गांव में प्राइवेट स्कूल स्टेट्स सिंबल बन चुके हैं। सरकारी स्कूलों को ‘गरीबों का स्कूल’ कहा जाता है। यहां पढ़ने वाले बच्चों पर विशेष अभद्र टिप्पणी तक की जाती हैं। इन सुविधाओं के वितरण ने बच्चों को ‘भिखारी’ की उपाधी दे दी है। लोग अपने बच्चों को ऐसे स्कूलों में नहीं भेजना चाहते। सरकार जिन्हें सुविधा समझ रही है, वे ही बच्चों को शर्मिंदा कर रही हैं। दूसरा कारण, ‘बिना गुरू दक्षिणा के ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता’। यह पंक्ति मेरे एक गुरू ने मुझे कही थी सर। इन सरकारी स्कूलों की फीस चाहे नाममात्र ही की जाती, परन्तु कुछ न कुछ फीस अवश्य होनी चाहिए थी। इससे बच्चों व परिजनों का स्वाभिमान भी बना रहता और बच्चों व अभिभावकों को अपने दिए हुए पैसों के प्रति चिंता भी होती। दी हुई फीस के लिए वे बच्चों को प्रतिदिन स्कूल अवश्य भेजते और बच्चे भी ये सोचकर विद्यालय आते कि कहीं हमारे पैसे बर्बाद न हो जाए। अभी निःशुल्क मिली शिक्षा का मोल ये नहीं समझते।

लेकिन ये गरीब पैसे कैसे दे सकते हैं मास्टर जी?

सर पैसे न देकर भी ये विद्यालय नहीं आ रहे। आप देखिएगा बच्चों की संख्या उतनी ही रहेगी। अन्तर सिर्फ़ इतना होगा कि वे जो बच्चे विद्यालय आएंगे वे एवं उनके माता-पिता पढ़ाई के प्रति गंभीर होंगे। वे एक दिन विद्यालय आकर कई-कई दिनों के लिए नानी-खाला के घर नहीं जाएंगे। पढ़ाई की गुणवता में सुधार होगा। आप ही बताइए यदि आप आज कक्षा में गिनती सिखा रहे हैं और बच्चा अभी गिनती पूरी सीख भी नहीं पाया हो और वह एक महीने के लिए नानी के घर चला जाता है। एक महीने बाद जब वह आता है, तब कक्षा में पहाड़े सिखा दिए गए होते हैं। अब वह बच्चा कक्षा में इसलिए नहीं आता क्योंकि मास्टर जी का पढ़ाया उसे कुछ समझ नहीं आता और मास्टर जी अच्छा नहीं पढाते। ऐसे बच्चों की संख्या प्रत्येक कक्षा में 85ः से भी अधिक होती है। वे किसी न किसी कारण से कक्षा से अनुपस्थित रहते हैं। ऐसी परिस्थिति में सर आप कक्षा से पहाड़े सुने और वे न सुना पाएं तो आप ही बताएं शिक्षक की क्या गलती है? प्राइवेट स्कूल में अनुपस्थित रहने पर फाइन लगता है और सरकारी में??? इन्हीं कारणों से किसी भी विषय की पूरी पुस्तक कभी नहीं पढ़ाई जा पाती जिससे शिक्षक का अपना अभ्यास भी कम हो जाता है और उसका अपने ज्ञान का स्तर भी गिरने लगता है। प्राइवेट स्कूूलों में अध्यापक-छात्र गुणवता के लिए विशेष सेमिनार-वर्कशॉप इत्यादि आयोजित किए जाते हैं। सरकारी में भी होते हैं परन्तु सरकारी मास्टर का आधा समय तो शिक्षण के अतिरिक्त दिए गए कार्य कहीं चुनाव ड्यूटी, बीएलओ ड्यूटी, जनगणना, पल्स पोलियो, रैपिड सर्वे, एमडीएम, यहां तक कि यदि कोई खुले में शौच जाएगा तो शिक्षक को सुबह पांच बजे गांव में घूम-घूमकर उस पर टॉर्च की लाइट मारने की ड्यूटी जैसे अनगिनत कार्य दिए जाते हैं। चाहे उसके पश्चात् उस शिक्षक के साथ कोई भी दुर्घटना घट जाए! क्या प्राइवेट स्कूलों के शिक्षकों को विद्यालय के अतिरिक्त इस प्रकार के कार्य करते कभी देखा गया है?

हमारे बच्चे प्राइवेट स्कूलों में पढ़ते हैं। आप और हम बहुत अच्छे से जानते हैं कि वहां के शिक्षकांे की अपेक्षा हम कहीं अधिक मेहनत से पढ़ाते हैं। हमारे बच्चों के स्कूल से आए एक नोटिस पर हमें दौड़कर बच्चे के स्कूल जाना होता है। कभी पीटीएम कभी कोई नोटिस कभी कोई। बच्चों के सारे कार्यों व परीक्षा की तैयारी तक की जिम्मेदारी हमारी अपनी होती है। परन्तु आप ये बताएं क्या सरकारी विद्यालयों के बच्चों के अभिभावकों को ये भी पता होता है कि उनके बच्चे किस कक्षा में पढ़ रहे हैं? यहां तक कि वे ये तक नहीं जानते होते कि घर से निकलकर उनके बच्चे विद्यालय गए हैं या कहीं दोस्तों के साथ खेलकर घर वापस आ गए। हम जानते हैं कि वे अभिभावक अशिक्षित हैं परन्तु प्रत्येक बच्चे को घर से विद्यालय तक लाने के लिए प्रतिदिन शिक्षक तो नहीं जा सकता। कम से कम वे विद्यालय आकर अपने बच्चे के विषय में जानकारी तो ले सकते हैं! परन्तु उनकी प्रमुखताओं में बच्चों की पढ़ाई है ही नहीं सर। इसलिए इन बच्चों एवं सरकारी विद्यालयों की विकट परिस्थितियों की तुलना प्राइवेट विद्यालयों से नहीं की जा सकती।

आपको गांव वालों की प्राथमिकताओं से अवगत यदि कराएंगे तो आप आश्चर्यचकित रह जाएंगे सर। विद्यालय की संपत्ति को नुकसान पहुंचाना, सामान की चोरी करना, विद्यालय को शौचालय की भांति प्रयोग करना इत्यादि, ये प्रतिदिन की समस्या है। शौचालय की टाइल्स तक चोरी हो जाती हैं। एक दिन हमारे मास्टर साहब की जान जाते-जाते बची। गांव में से किसी ने विद्यालय का बिजली का तार काट, चोरी कर, उसके एक सिरे को मुख्य द्वार पर बांध दिया। ईश्वर की कृपा से उस समय बिजली नहीं थी। बिजली विभाग को फ़ोन कर स्थिति सुधरवाई। उधर देखिए। वह टूटी गिरी हुई दीवार ट्रैक्टर की टक्क्र का परिणाम है। यदि विद्या के मंदिर में पूजा बड़ों के द्वारा इस प्रकार की जाएगी तो बच्चे क्यों पढ़ने आएंगे? सर ऐसी अनगिनत समस्याओं से हमें प्रतिदिन रूबरू होना पड़ता है परन्तु इन समस्याओं का हल कुछ नही है।

तो आप पुलिस-शिकायत क्यों नही करते?

करते थे सर। परिणाम यह हुआ कि गांव वालों का तो कुछ नही बिगड़ा वरन् चिड़कर गांव वालों ने विद्यालय संबंधी झूठी शिकायतें करनी आरंभ कर दी। महिला शिक्षिका को परेशान करना प्रारंभ कर दिया। बहरहाल जो जैसा चल रहा है हम उससे कोई बैर नही ले सकते। सौ बार बोला गया झूठ सच लगने लगता है। यदि गांव वाले सौ बार शिकायत करेंगे तो आपको भी उनकी बातों पर यकीन होने लगेगा। आपके आभारी हैं सर कि आप इतने धैर्यपूर्वक हमारी समस्याएं सुन रहे हैं। सामान्यतः तो हमें निलंबित करना अधिकारियों के लिए अधिक सरल है।

हम्म्म्म्म्म.. समस्याएं वास्तव में गंभीर हैं मास्टर साहब परन्तु हल भी हमें ही निकालना है। मेरा सुझाव आपको यही है कि आप निराश न हो और निष्ठापूर्वक अपना कार्य करते रहें। इन समस्त समस्याओं की चुनौतियों को साहसी हो स्वीकार करें। आप कर्म कीजिए। हम आपके साथ हैं।

(कहकर बीएसए साहब चले गए।)

मास्टर साहब आपके साहस की दाद देते हैं। आपने बीएसए सर को ही चुप कर दिया। परन्तु एक बात हमेशा याद रखिए, अधिकारी किसी का सगा नही होता। कल का समाचार-पत्र अवश्य पढिएगा।

अगले दिन विद्यालय में बच्चे न होने के कारण मास्टर साहब का निलंबन समाचार-पत्र में पढ़ने के लिए मिला। मास्टर साहब मन ही मन बुदबुदाने लगे कि बीएसए साहब हमारे विभाग के भ्रष्टाचार की पर्तों पर तो मैंने अभी चर्चा की ही नही थी। यदि करता तो शायद बखऱ्ास्त ही हो जाता।


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