गाँव - 1.13

गाँव - 1.13

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तीखन इल्यिच ने ज़ोर से खाँसकर दरवाज़ा खोला। मेज़ के पीछधुँआ छोड़ते लैम्प के पास,जिसका चटका हुआ काँच एक ओर से काले हो रहे कागज़ से चिपकाया गया थ, सिर झुकाए, चेहरे पर गीले बाल बिखेरे रसोइन बैठी थी। वह लकड़ी की कंघी से बाल काढ़ रही थी और बालों के बीच से कंघी को रोशनी में देखती जा रही थी। ओस्का होठों में सिगरेट दबाए ठहाका लगा रहा था, पीछे की ओर झुककर, फूस के बुने हुए जूते हिलाते हुए। भट्ठी के पास, आधे-अँधेरे में लाल-लाल आग दिखाई दे रही थी – यह पाइप था। जब तीखन इल्यिच दरवाज़े को धकेलकर देहलीज़ पर प्रकट ह, तो ठहाके एकदम बंद हो गए, पाइप पीता हुआ व्यक्ति सकुचाते हुए अपनी जगह से उठा, उसे मुँह से निकाला और जेब में घुसा दिया।हाँ, झ्मीख ! मगर, जैसे सुबह कुछ हुआ ही न हो, ऐसे तीखन इल्यिच जोश से, दोस्ताना अंदाज़ में चीख़ा:

“बच्चों दाना-पानी देना है।”

मवेशीख़ाने में मशाल लेकर घूमते रहे,कड़ी हो चुकी खा, बिखरी हुई घास-फूस, दाना देने की नाँद, खम्भे प्रकाशित करते हुए, भीमकाय परछाइयाँ डालते हुए, छप्पर के नीचे डंडों पर सो रही मुर्गियों को जगाते हुए। मुर्गियाँ नीचे की ओर उड़ने लगीं, गिरने लगीं और आगे की ओर झुकते हुए, ऊँघते-ऊँघते तितर-बितर भागने लगीं। रोशनी की ओर मुँह घुमाए घोड़ों की बड़ी-बड़ी बैंगनी आँखें अजीब तरह, शानदार ढंग से चमकते हुए देख रही थीं। साँस छोड़ते समय भाप उठ रही थी,जैसे सब सिगरेट पी रहे हों। और जब तीखन इल्यिच ने लालटेन नीचे करके नज़रें ऊपर उठाईं तो उसने बड़ी प्रसन्नता से आँगन के ऊपर के चौकोर गहरे साफ़ आसमान पर दम, रंग-बिरंगे तारे देखे।

बर्फीली ताज़गी से सराबोर उत्तरी हवा झिरी से अन्दर की ओर बह रही थी और छत पर उसकी सूखी सरसराहट सुनाई दे रही थी।शुक्र है तेरा,ख़ुद, सर्दियाँ आ गईं !”

वहाँ से हटकर और समोवार का हुक्म देकर तीखन इल्यिच लालटेन लिए ठण्डी, गंधाती दुकान में गया, उसने अच्छी किस्म की नमकीन मछली चुनी : चाय से पहले थोड़ा नमकीन लेना बुरा नहीं है,और चाय के समय उसे खाया, पीली-लाल ब्रॅण्डी के कुछ कड़वे-मीठे जाम पिये, प्याले में चाय डाली, जेब से देनिस्का का ख़त निकाला और उसके कीड़े-मकोड़ों के समझने की कोशिश करने लगा।

“देन्या को मिले चालीस रूबल पैसे फेरे चीज़ें समेटीं।”

“चालीस !” तीखन इल्यिच ने सोचा।, तू भूखा, नंगा, आवारा।”

“गया देन्या तूला स्टेशन और उसको लूट लिया, आख़िरी कोपेक तक छीन लिया,सिर छुपाने को जगह नहीं, और उसे ग़म ने दबोच लिया।”

इस बकवास को समझना कठिन और उकताहटभरा काम था, मगर शाम इतनी लम्बी थी, करने को कुछ नहीं था।समोवार जल्दी-जल्दी बज रहा था, मन्द प्रकाश में लैम्प जल रहा था, और इस शाम की इस ख़ामोशी और शान्ति में दुःख था। खिड़कियों के नीचे चौकीदार का डण्डा एक लय में घूम रहा , बर्फीली हवा में खनखनाती आवाज़ कर रहा था,नृत्य-संगीत जैसी।

“फिर मुझे घर की याद सताने लगी, बाप भी राक्षस।”

“बेवकूफ़ ही तो ह, माफ़ करना ख़ुदा !” तीखन इल्यिच ने सोचा। “यह सेरी और राक्षस !”

“जाऊँगा ऊँघते जंगल में ऊँचे से ऊँचा देवदार का पेड़ ढूढूँगा और शकर के तिकोने से रस्सी लेकर उस पर अपनी ज़िन्दगी हमेशा के लिए टाँग दूँगा नई पतलून में मगर बिन जूतों के।”

“बिन जूतों के तो नहीं ?” तीखन इल्यिच ने थकी हुई आँखों के सामने से कागज़ हटाते हुए कह, “बस, जो सच है, वह सच है।”

ख़त को तसले में डालकर लैम्प की ओर ताकते हुए उसने कुहनियाँ मेज़ पर टिका दीं।अजीब लोग हैं हम ! रंग-बिरंगी आत्माएँ ! कभी आदमी एकदम कुत्ते जैसाकभी दुःखी हो जाता है, दयनीय, असहाय लगता है, प्यार जताता है, स्वयम् अपने आप पर रोता है, जैसे कि यह देनिस्का, या स्वयम् वह, तीखन इल्यिच।शीशों पर नमी छा गई, चौकीदार का डण्डा कुछ अच्छी-सी बात कह रहा था, स्पष्ट और सजीवता से, सर्दियों वाले अन्दाज़ मे, आह, अगर बच्चे होते ! अगर, ख़ैर,होती एक प्रेमिका, कोई अच्छी-सी, इस थुलथुल बुढ़िया के बदल, जिसने सिर्फ किसी राजकुमारी और किसी सच्चरित्र संतान पलिकार्प्रिया, जिसे शहर में पलुकार्प्रिया कहते हैं, की कहानियाँ सुना-सुनाकर उसे बुरी तरह परेशान कर दिया था, हाँ, देर हो चुकी है, बहुत देर।

कुर्ते की सिली हुई कॉलर खोलकर तीखन इल्यिच ने कटु मुस्कान से अपनी गर्दन, गर्दन पर कानों के पीछे बन गए गढ़ों को छुआ।ये गढ़े पहली निशानी हैं बुढ़ापे की। घोड़े जैसा बन जाता है सिर ! हाँ,बाकी सब तो इतना बुरा नहीं था। उसने सिर झुकाया, दाढ़ी पर उँगलियाँ फेरींऔर दाढ़ी सफ़ेद, सूखी, उलझी हुई। नहीं, बस हो चुका, बस हो गया, तीखन इल्यिच !

वह पीता रहा, नशे में झूमता रहा, जबड़ों को कसकर भींचता रहा,आँखें सिकोड़े एकटक देखता रहा स्थिरता से जलती लैम्प की बत्ती को।आप सोचो ज़रा : अपने सगे भाई के पास नहीं जा सकता, सुअर के पिल्ले नहीं छोड़ते,सुअर कहीं के ! और अगर छोड़ भी देत, तो ख़ुशी कम ही है। कुज़्मा उसे भाषण देता, होंठ भींचे, पलकें झुकाए दुल्हन खड़ी रहती।आ, सिर्फ इन झुकी हुई पलकों से ही दूर भाग जाता !

दिल में हूक उठा, सिर धुँधला गया।कहाँ सुना था उसने यह गीत ?

आई उकताहटभरी शाम,

न जानूँ करूँ क्या,

आया मेरा प्यारा मेहमान,

लगा मुझे वह करने प्यार।

आह, हाँ, लेबेधान में, सराय में। सर्दियों की शाम को लेस बुनने वाली लड़कियाँ बैठकर गाती रहती हैं।बैठती हैं,बुनती हैं और बिना पलकें उठाए, खनखनाती गहरी आवाज़ों में कहती हैं:चूमता है, भरता है बाँहों में,

बिदा लेता है वह मुझसे।

सिर धुँधला रहा था, कभी यूँ लगता जैसे अभी सब कुछ सामने है, ख़ुशी और आज़ा, बेफ़िक्री,कभी दिल में निराशा से टीस उठती। कभी वह जोश में आ जाता :

“जेब में पैसा हो, तो चाची भी व्यापार कर ले !:

कभी वह कड़वाहट से लैम्प की ओर देखता और भाई की कल्पना करके बड़बड़ाता :

“मास्टर ! सीख देने वाला ! मेहेरबान फिलारेट।आवारा, चीथड़े पहना शैतान !”

उसने शराब की बोतल ख़त्म की, इतनी सिगरेटें पीं, कि अँधेरा छा गया।लड़खड़ाते कदमों से ऊबड़-खाबड़ फ़र्श पर चलते , सिर्फ एक कोट पहने वह अँधेरी ड्योढ़ी में आया,हवा की ज़बर्दस्त ताज़गी , घास और कुत्ते की ख़ुशबू को महसूस करता रहा,दो हरी बत्तियों को देखा जो देहलीज़ पर टिमटिमा रही थीं।

“बुयान !” उसने आवाज़ दी।

पूरी ताकत से उसने बुयान के सिर पर जूता मारा और दहलीज़ पर पेशाब करने लगा।

सितारों की रोशनी में धीरे-धीरे काली हो रही धरती पर मौत का-सा सन्नाटा छाया था। रंग-बिरंगे सितारों के झुण्ड चमक रहे थे। झुटपुटे में डूबता हुआ मुख्य मार्ग मरियल-सा सफ़ेद लग रहा था। दूर एक, जैसे धरती के नीचे से, क्रमशः तेज़ होती हुई गड़गड़ाहट सुनाई दी जो अचानक बाहर फूट पड़ी और चारों दिशाएँ गूँज उठीं : बिजली की रोशनी से आलोकित खिड़कियों की कतार के सफ़ेद रंग से चमकती, उड़ती हुई चुडैल के,नीचे से लाल रंग से चमकते धुँए जैसे बालों को बिखेरे मुख्यमार्ग को पार करती हुई दक्षिण-पूर्व एक्सप्रेस गुज़री।

“यह दुर्नोव्का के निकट से जा रही है।” तीखन इल्यिच ने हिचकियाँ लेते हुए कमरे में वापस लौटते हुए कहा।

ऊँघती हुई रसोइन टिमटिमाते लैम्प की मद्धिम रोशनी से प्रकाशित, तम्बाकू की दुर्गन्ध से भरे कमरे में चिकनाई और धुँए से काले हो चुके कपड़े से पकड़कर चिकने, गन्दे बर्तन में गोभी का शोरवा लाई। तीखन इल्यिच ने उस पर तिरछी नज़र डाली और बोला:

“फ़ौरन बाहर भाग जा !”

रसोइन मुड़ी, उसने दरवाज़े को पैर से धक्का दिया और छिप गई।

बिस्तर में दुबकने का मन हो रहा था, मगर वह बड़ी देर तक बैठा रहा, मायूसी से मेज़ की ओर देखते हुए।


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