गाँव - 1.1

गाँव - 1.1

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लेखक : इवान बूनिन

अनुवाद : आ. चारुमति रामदास


क्रासव भाइयों के परदादा को जो नौकर-चाकरों के बीच बंजारा कहलाता था, ज़मींदार दुर्नोवो ने कुत्तों से मरवा डाला। बंजारा अपने मालिक की प्रेमिका को भगा ले गया था। दुर्नोवो ने बंजारे को दुर्नोव्का पार के खेतों में लाने और बिठाने का हुक्म दिया। ख़ुद कुत्तों के झुण्ड को खुला छोड़ते हुए चिल्लाया, “मार डालो उसे!” जंजीरों से जकड़े बंजारे ने छिटककर भागने की कोशिश की। मगर खूँखार कुत्तों से कोई कितना दूर भाग सकता था!

क्रासव भाइयों का दादा आज़ाद होने में कामयाब होने पर अपने परिवार के साथ शहर चला गया और जल्द ही मशहूर हो गया : एक जाने-माने चोर के रूप में। काली बस्ती में बीबी के लिए एक झोंपड़ा किराए पर लिया और लेस बुनकर बेचने के लिए बिठा दिया। ख़ुद एक आवारा किस्म के आदमी बेलाकपीतव के साथ प्रान्त में गिरजाघरों को लूटने निकल पड़ा। जब उसे पकड़ा गया तो उसने ऐसा नाटक किया कि पूरे जिले में काफ़ी दिनों तक आकर्षण का केन्द्र बना रहा : मखमल का अंगरखा और बकरी की खाल के जूते पहने खड़ा रहता, गालों की उभरी हुई हड्डियों और आँखों को धृष्ठतापूर्वक घुमाता और अत्यंत विनयपूर्वक अपने छोटे-से-छोटे गुनाह को भी कबूल कर लेता:

“ठीक कहा आपने। एकदम ठीक!”

और क्रासव भाइयों का बाप एक टुटपुंजिया था। वह जिले में घूमता रहता, एक बार तो अपनी जन्मभूमि दुर्नोव्का में भी रहा, वहाँ एक छोटी-सी दुकान भी लगाई थी शायद, मगर दिवालिया हो गया, शराब में धुत्त रहने लगा, शहर वापस आ गया और मर गया। दुकानों पर काम करते-करते उसके बेटे तीखन और कुज़्मा भी व्यापार करना सीख गए थे। एक गाड़ी में बक्सा रखकर गाँव-गाँव घूमते और उदासीभरी आवाज़ में चिल्लाते, “लुगाइयों S S S मा S S ल ले लो! लुगाइयों S S मा S S ल!   

माल – छोटे छोटे आईने, साबुन, अँगूठियाँ, सूत, रूमाल, सुइयाँ, गाँठवाले बिस्कुट – संदूक में रखा रहता और गाड़ी में होता था वह सब कुछ जो माल के बदले में मिलता था : मरी हुई बिल्लियाँ, अण्डे, कपड़े, चीथड़े।

मगर कुछ साल साथ-साथ घूमने के बाद भाइयों ने एक दूसरे पर चाकू तान लिए - और अलग हो गए। कुज़्मा गड़रिए के यहाँ नौकर हो गया, तीखन ने दुर्नोव्का से पाँच मील दूर वर्गोल स्टेशन के पास वाले राजमार्ग पर एक सराय किराए पर ले ली, जिसमें शराबख़ाना और चाय, शक्कर, तम्बाकू, सिगरेट और अन्य चीज़ों की ‘काली’ दुकान खोल ली।

चालीस का होते-होते तीखन की दाढ़ी कहीं-कहीं से सफ़ेद होने लगी। मगर था वह पहले जैसा ही सुन्दर, ऊँचा, हट्टा-कट्टा – चेहरा कठोर, साँवला, कुछ-कुछ चेचकरू, कन्धे चौड़े, सूखे; बातचीत में तीखापन और स्वामित्व का भाव, फुर्तीला और तेज़; भौंहे पहले की अपेक्षा कुछ अधिक नाचने लगी थीं और आँख़ें कुछ और तीखी हो गई थीं।

शिशिर के निश्चल, पतझड़ के मौसम में, जब टैक्स वसूले जाते हैं और गाँव में एक के बाद एक नीलामियाँ होती हैं, वह पुलिस अफ़सरों के पीछे अथक दौड़ता रहता। बिना थके ज़मीन्दारों से खड़ी फ़सल ख़रीदता, मिट्टी के मोल ज़मीन ख़रीदता। काफ़ी समय तक वह एक गूँगी रसोइन के साथ रहा, “कोई बात नहीं, ज़रा भी बकबक नहीं करेगी,” वह लोगों से कहा करता। उससे एक बच्चा हुआ, जो नींद में उसके नीचे दब गया। फिर बुढ़िया राजकुमारी शाख़वा की अधेड़ उम्र की नौकरानी से ब्याह रचाया और ब्याह करने और दहेज़ लेने के बाद, निर्धन हो चुके दुर्नोवो के थुलथुल, प्यारे से वंशज का, जो पच्चीसवें साल में ही गंजा हो चुका था, “काम तमाम कर दिया”। मगर उसकी अखरोट के रंग की दाढ़ी बड़ी शानदार थी। किसान गर्व से वाह-वाह कर उठे जब उसने दुर्नोवो की जागीर हथियाई : क्योंकि लगभग पूरा गाँव ही क्रासवों के नाते-रिश्तेदारों से भरा था।

अचरज उन्हें इस बात पर भी होता था कि कितनी चालाकी से वह एक साथ हर जगह पहुँच जाया करता था : कारोबार करने, कुछ ख़रीदने, हर रोज़ जागीर जाया करता, बाज़ की पैनी नज़र से ज़मीन के हर टुकड़े पर नज़र रखता। किसान तारीफ़ करते और कहते, “खूँखार! तभी तो मालिक बना है"

ख़ुद तीखन इल्यिच भी उन्हें इस बात का यकीन दिलाता। अक्सर सीख दिया करता, “जीते हैं लेकिन फ़िज़ूलखर्ची नहीं करते, पकड़े जाते हैं पर पीछे नहीं हटते। सब कुछ – उसूल से। मैं, भई, हूँ रूसी आदमी। मुझे मुफ़्त में तुम्हारा कुछ नहीं चाहिए, मगर याद रखना : अपना भी मैं तुम्हें बिल्कुल नहीं दूँगा। लाड़ – बिल्कुल नहीं, याद रखो, लाड़ नहीं करूँगा!”

और नस्तास्या पित्रोव्ना (पीली, फूली-फूली, हल्के, सफ़ेद बालों वाली – जो हमेशा मृत बालिकाओं के प्रसव से समाप्त होने वाली अविराम गर्भावस्था के कारण बत्तख़ की तरह, पंजे अन्दर को मोड़े, डोलते-डोलते चला करती) सुनते हुए कराहती :

“ओह, बड़े सीधे ही तो हो, देख रही हूँ तुमको! क्यों बेवकूफ़ों के पीछे मेहनत कर रहे हो? तुम उसे अक्लमन्दी सिखा रहे हो, मगर उसके पास अपने ही ग़म बहुत हैं। बड़े पैर फैलाए खड़े हो, जैसे बुखारा के अमीर हों"

शिशिर में सराय के निकट, जिसकी एक बाज़ू राजमार्ग की ओर तथा दूसरी स्टेशन और एलिवेटर की तरफ़ थी, पहिये कराहते हुए चर्र-चूँ करते : गेहूँ के गद्दे ऊपर नीचे होते रहते। और हर पल शराबखाने के दरवाज़े का हत्था, जहाँ नस्तास्या पित्रोव्ना बिक्री सँभाला करती, या साबुन, नमकीन मछली, तम्बाकू, पिपरमिन्ट के बिस्कुट, मिट्टी के तेल से गंधाती अन्धेरी, गंदी दुकान के दरवाज़े का हत्था चरमराता। और हर घड़ी आवाज़ें आतीं:

“ऊ...ऊह! बढ़िया है तेरी वोद्का, पित्रोव्ना! सीधे सिर में चढ़ गई!”

“तेरे मुँह में शक्कर, प्यारे!”

“क्या तूने यह नसवार से बनाई है?”

“लो, ये और आया एक बेवकूफ़!”

दुकान में तो और भी ज़्यादा चहल-पहल होती थी।

“इल्यिच, एक पौण्ड हैम दोगे?”

“हैम तो मेरे पास, भाई, ऊपर वाले की मेहेरबानी से इतना है, इतना है, कि पूछो मत"

“कितने का है?”

“सस्ता है!”

“मालिक, अच्छी वाली राल है तुम्हारे पास?”

“इतनी अच्छी राल तो प्यारे, तेरी दादी की शादी में भी नहीं थी"

“कैसे दोगे?”

बच्चे होने की आशा का टूट जाना और शराबखानों का बंद होना तीखन इल्यिच के जीवन की बड़ी घटनाएँ थीं। जब इस बात में संदेह ही न रहा कि वह बाप नहीं बन सकता, तो वह सचमुच में बूढ़ा हो गया। पहले तो वह मज़ाक में कहा करता था:

“ न S S हीं, मैं तो अपनी ख़्वाहिश पूरी करके रहूँगा – बिना बच्चों के इन्सान – इन्सान नहीं होता – ठूँठ की तरह, बंजर जंगल की तरह होता है"

फिर तो उस पर डर हावी होने लगा: यह क्या बात हुई – एक से बच्चा दब गया, दूसरी बस मरे हुओं को ही जने जाती है। नस्तास्या पित्रोव्ना की पिछली गर्भावस्था का समय ख़ासतौर से कठिन था। तीखन इल्यिच तड़प रहा था, दाँत पीस रहा था; नस्तास्या पितोव्ना छुप-छुपकर प्रार्थना करती, छिपकर रोती और बड़ी दयनीय लगती, जब हौले से रातों को लैम्प की रोशनी में पलंग से नीचे उतरती, यह सोचते हुए कि पति सो रहा है, और बड़ी मुश्किल से घुटनों के बल खड़ी होकर फुसफुसाते हुए फर्श पर झुकती, दर्द से देवचित्रों को निहारती और बूढ़ों की तरह पीड़ा से घुटनों से ऊपर उठती। बचपन से ही। ख़ुद भी इस बात को स्वीकार न करते हुए, तीखन इल्यिच को लैम्प से, उसकी धुँधली, टिमटिमाती, गिरजेघर जैसी रोशनी से नफ़रत थी : जीवन-भर के लिए याद रह गई थी नवम्बर की वह रात, जब काली बस्ती वाली टेढ़ी-मेढ़ी झोंपड़ी में भी लैम्प जल रहा था – इतनी शांति और दु:खभरे प्यार से, उसकी जंजीरों की परछाइयाँ काली हुई जा रही थीं, मौत की-सी ख़ामोशी छाई थी; बेंच पर, देवचित्रों के नीचे, निश्चल पड़ा था बाप, आँखें बंद किए, तीखी नाक ऊपर को उठाए, सीने पर मोम जैसे सफ़ेद हाथ रखे, और उसके पास लाल चीथड़ा टँगी खिड़की के पीछे, तीव्र दुःखभरे गाने गाते, कराहते, विलाप करते, बेसुरेपन से चीख़ते, हार्मोनियम लिए लोग गुज़र रहे थे। अब लैम्प सदा जलता रहता है।

सराय के आँगन में व्लादीमिर के व्यापारी घोड़ों को दाना-पानी दे रहे थे और घर में प्रकट हुआ एक “नया, सम्पूर्ण ज्योतिषी और जादूगर जो ताश के पत्तों, दानों की फ़लियों और कॉफी के माध्यम से पूछे गए सवालों के जवाब दिया करता"

नस्तास्या पित्रोव्ना शाम को चश्मा चढ़ा लेती, मोम की गेंद बनाती और उसे ज्योतिषी वाले गोल घेरे में फेंका करती, और तीखन इल्यिच कनखियों से देखा करता। मगर जो जवाब मिले वे सभी फूहड़, निरर्थक और बुरे थे।

“मेरा मर्द मुझे प्यार करता है?” नस्तास्या पित्रोव्ना ने पूछा।

और ज्योतिषी ने जवाब दिया:

“प्यार करता है, जैसे कुत्ता डण्डे से”

“कितने बच्चे होंगे मेरे?”

“किस्मत में तेरी लिखा है मरना, बीमार घास खेत से दफ़ा हो जा"

तब तीखन इल्यिच बोला:

“ला, मैं फेकूँगा...”

और उसने पूछा;

“क्या जान-पहचान की औरत से नज़दीकियाँ बढ़ाऊँगा?”

मगर उसे भी बेसिर-पैर का जवाब मिला :

“अपने मुँह के दाँत तो गिन ले!”

एक बार खाली रसोईघर में झाँकने पर तीखन इल्यिच ने पत्नी को रसोइन के बच्चे के झूले के पास पाया। रंगबिरंगा मुर्गी का बच्चा चूँ-चूँ करते हुए खिड़की की सिल पर, चोंच को काँच पर मारते हुए, मक्खियाँ पकड़ते हुए टहल रहा था, और वह बैठी थी खटिया पर, झूला हिलाती और दर्दभरी, कँपकँपाती आवाज़ में पुरानी लोरी गाते हुए :


कहाँ है सोया मेरा लाल?

कहाँ है उसका बिछौना?

वह तो है ऊँचे घर में,

रंग बिरंग़े झूले में।

कोई न आए पास हमारे,

धमधम करे न इस घर में।

सोया है वो आँख लगी है

गहरे पर्दों से है घिरा,

रंग बिरंगे परदों से।


और तीखन इल्यिच का चेहरा इस वक्त ऐसा बदल गया कि उसकी ओर देखकर नस्तास्या पित्रोव्ना न तो परेशान हुई, न ही घबराई, सिर्फ रो पड़ी और नाक सुड़कते हुए हौले से बोली:

“ख़ुदा के लिए, मुझे पादरी के पास ले चलो..."


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