एक राष्ट्र एक चुनाव
एक राष्ट्र एक चुनाव
भारत एक संसदीय लोकतांत्रिक देश है जहां नियमित समय पर चुनाव होते हैं। यहां शासन का विभाजन स्थानीय, राज्य व केंद्र तीन स्तरों पर है।भारत में प्रथम आम चुनाव से लेकर 1967 के आम चुनावों तक केंद्र व राज्य के चुनाव एक साथ होते थे, इसका मुख्य कारण यह था कि केंद्र और राज्यों में एक मात्र राजनीतिक दल कांग्रेस था, परन्तु 1967 में पहली बार 9 राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें बनी, ये सरकारें अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी, इस वजह से उन राज्यों में पुन: चुनाव करवाने पड़े और यहीं से केंद्र व राज्यों के चुनाव अलग अलग समयों पर होने लगे और अब भारत में हर वर्ष औसतन 5 चुनाव होते है। इन चुनावों में भारी मात्रा में धन खर्च किया जाता है।
अभी हाल ही में भ्रष्टाचार पर नजर रखने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था " ट्रांसपेरेंसी इंटनेशनल " के अनुसार एशिया में रिश्वतखोरी के मामले में भारत सर्वोच्च स्थान पर है। यहां 46 प्रतिशत लोग इसलिए रिश्वत देते है, क्यूंकि उनसे रिश्वत मांगी जाती है, 32 प्रतिशत लोगों के व्यक्तिगत संबंध होते है अन्यथा उनका काम भी पूरा ना हो पाए। 63 प्रतिशत लोगों को कहना है कि यदि वे रिश्वतखोरी की शिकायत करे तो उन्हे समस्यायों का सामना करना पड़ता है। इस शोर गुल के माहौल में प्रधानमंत्री मोदी जी ने एक बार फिर ' एक राष्ट्र एक चुनाव ' का जिक्र करते हुए कहा है कि ये आज के समय की ज़रूरत है। और एक राष्ट्र एक चुनाव कोई नई मांग नहीं है, इसे इतिहास में हम देख सकते है कि कई बार उठाया गया है, परन्तु लागू करने में असफल रहे है, जैसे 1983 में चुनाव आयोग की वार्षिक रिपोर्ट में एक देश ,एक चुनाव का विचार रखा गया
इसके बाद 1999 में अटल बिहारी वाजपेई जी के कार्यकाल में विधि आयोग ने अपनी 177 वीं रिपोर्ट में लोकसभा व विधानसभा के चुनाव एक साथ करवाने का विचार रखा।भारतीय जनता पार्टी ने 2014 के आम चुनावों में अपने घोषणा पत्र में एक देश एक चुनाव के विचार को स्थान दिया था।जनवरी 2017 में नीति आयोग ने एक पेपर " एनालिसिस ऑफ साईमालतेनियस इलेक्शन : द व्हाट, व्हाय एंड हाऊ " में एक देश एक चुनाव से होने वाले फायदों पर प्रकाश डाला ।
2018 में विधि आयोग ने एक बार फिर इस विचार को दोहराया और स्वीडन, दक्षिण अफ्रीका व बेलिजियम के चुनावी मॉडल पर चुनाव करवाने की सिफारिश पेश करी। और कहा की इस लागू करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 83, 85, 172, 174, 356 में संशोधन करना पड़ेगा, अर्थात पांच संवैधानिक संशोधनों से एक राष्ट्र एक चुनाव योजना को लागू किया जा सकता है।
सरकार को चुनाव में होने वाले खर्च पर पाबंदी लगानी चाहिए और उस पर नजर रखनी चाहिए।
राजनीतिक सुधार पहले हो उसके बाद चुनावी सुधार संभव है। आचार संहिता का प्रभाव दूसरे राज्यों पर ना पड़े इसके लिए सरकार को कोई उचित रास्ता निकालना चाहिए, और पड़ोसी राज्य से कम से कम प्रशासकों को चुनावों में बुलाना चाहिए।
जो केंद्र या राज्य सरकार ने मंत्री है , उन्हें हर राज्य के चुनावों में प्रचार के लिए जाने से रोका जाना चाहिए , ताकि वो अपने मंत्रालय का काम अच्छे से कर पाए।
भारतीय प्रधानमंत्री मोदी जी ने चुनावों में होने वाले भारी खर्च और विकास कार्यों में लगने वाले ब्रेक को देखते हुए इस विचार को ज्यादा महत्व देने कि बात कही है, ताकि धन और समय की बचत की जा सके और भारत को विकास की राहों पर आगे ले जाया जा सके।
एक साथ चुनाव करवाने से चुनावों पर होने वाले खर्च में भारी बचत होएगी। गत वर्षो में चुनावी लागत आसमान छूने लगी है। यदि हम देखे 1952 के आम चुनावों में 10 करोड़ रुपए खर्च हुए वहीं 1980 के आम चुनावों में यह खर्च बढ़ कर 23 करोड़ पर पहुंच गया। और 2014 के आम चुनावों में यह खर्च 4000 करोड़ रुपए था। यदि हम बिहार विधान सभा के अभी हाल ही में संपन्न हुए चुनावों को देखे तो उसमे 725 करोड़ रुपए खर्च किए गए। एक राज्य के चुनाव में इतने पैसे खर्च किए जा रहे है तो हम आसानी से समझ सकते है कि हर वर्ष औसतन 5 चुनाव होते है तो उनमें कितना धन खर्च किया जा रहा है। करदाताओं की खून पसीने की कमाई को अविवेकपूर्ण ढंग से खर्च किया जा रहा है। नीति आयोग का कहना है कि यदि विधानसभा और लोकसभा के चुनाव एक साथ हो तो लगभग 4000 करोड़ रुपए सलाना बचाए जा सकते है।
आज हमारे देश में हर वर्ष औसतन पांच चुनाव होते है, सारे वर्ष देश चुनावी मोड पर रहता है, आचार संहिता की वजह से योजनाएं लागू नहीं हो पाती, क्यूंकि सरा प्रशासन चुनावी प्रक्रिया में सलिंप्त रहता है, जिस से विकास कार्यों की गति धीमी रहती है।
एक साथ चुनाव होने से एक ही चुनाव प्रचार से लोकसभा, विधानसभा, और पंचायतों के उम्मीदवारों का प्रचार हो सकेगा।
नीति आयोग ने कहा है कि पिछले 30 वर्षों से भारत में हर वर्ष कई चुनाव होते है, और हर चुनाव में धार्मिक, भाषाई, जातीय गोलबंदी होती है, जिस से समाज में खटास पैदा होती है, और यह खटास व दरार दिनों दिन और गहरी होती जा रही है। धार्मिक व जातीय दंगे भी अक्सर चुनावों के समय ज्यादा पनपते है, इसलिए नीति आयोग का मानना है कि भारत को बार बार होने वाले चुनावों से बचना चाहिए और इस से भारतीय भाईचारे व बंधुता को बचाया जा सकता है।
केंद्रीय बजट निर्धारण में उस वर्ष होने वाले राज्य के चुनाव का असर रहता है, बजट में उस राज्य का खास ख्याल रखा जाता है, इस से अन्य
राज्य अपने आप को अपेक्षित महसूस करते है।
एक देश एक चुनाव से सरकार को स्थिरता मिलेगी और विकास कार्यों को गति मिलेगी। केंद्र व राज्य सरकारों को देश में सुशासन उपलब्ध करवाने में मदद मिलेगी। नेताओ को आम आदमी से जुड़ी जनोन्मुखी योजनाओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त समय मिलेगा।
हर चुनाव में भारी मात्रा में धन की ज़रूरत होती है, उस धन को एकत्रित करने के लिए जो तरीके अपनाए जाते है, उनसे बहुत ज्यादा भ्रष्टाचार होता है और यह भ्रष्टाचार अन्य सभी भ्रष्टाचारों को प्रेरित करता है।
फिल्म अभिनेता राजकुमार राव की फिल्म ' न्यूटन ' में हमने देखा कि नक्सल प्रभावित क्षेत्र में एक बूथ पर चुनाव करवाने में भारतीय निर्वाचन आयोग को कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। भारतीय निर्वाचन आयोग का कहना है कि भारत में ऐसे बूथों की संख्या 50000 से ज्यादा है, यदि सभी चुनाव एक साथ करवाए जाए तो भारतीय निर्वाचन आयोग की इन मुश्किलों से बार बार नहीं जूझना पड़ेगा और बार बार अपने अधिकारियों की जान का रिस्क नहीं लेना पड़ेगा।
कई अन्य कारण भी है ,जैसे एक राज्य के चुनाव का प्रभाव पूरे देश पर पड़ता है, इसलिए भारत सरकार का मानना है कि एक देश एक चुनाव को फिर से अपनाया जाना चाहिए ताकि उपरोक्त नुकसानों से बचा जा सके और भारत को विकास के रास्तों पर आगे ले जाया जा सके। एक देश एक चुनाव समय की ज़रूरत है और ये परीक्षण भारत में सफल भी है , यदि हम अभी हाल ही में लोकसभा चुनाव 2019 को देखे तो उसके साथ भारत में आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और ओडिशा के चुनाव हुए और दोनों स्तर के चुनावों में मतदाताओं ने राष्ट्रीय व क्षत्रिय मुद्दों को पहचानते हुए बड़ी सूझ बुझ से मतदान किया, इसी के आधार पर पूरे भारत में एक सारे चुनाव एक साथ होने चाहिए ताकि भारत के विकास कार्यों को गति प्रदान की जा सके।
एक राष्ट्र एक चुनाव के विपक्ष में तर्क:-
सारे चुनाव एक साथ हो इस विचार पर तो चर्चा है, परन्तु सारे चुनाव एक साथ क्यों नहीं हो रहे इस बात पर चर्चा नहीं है। 1967 के बाद चुनाव अलग अलग क्यों होने लगे, क्या परिस्थितियां आई जिनसे चुनावों के समय में अंतर आया, क्या वही परिस्थितियां दोबारा पनप सकती है, यदि हां तो फिर उनका क्या समाधान है? जब तक सरकार के पास मजबूत समाधान नहीं होगा तब तक इसे लागू नहीं किया जा सकता।
कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह विचार कल्पना मात्र है, इसे लागू नहीं किया जा सकता ,क्यूंकि भारत एक संघीय व्यवस्था वाला देश है, और संघीय व्यवस्था भारतीय संविधान का मूल आधारभूत गुण ( बेसिक स्ट्रक्चर फीचर) है, और इसमें संशोधन नहीं किया जा सकता।
1952-67 तक केंद्र व राज्यों में एकमात्र दल कांग्रेस था, इसलिए एक साथ चुनाव करवाने आसान थे, अब विभिन्न जातीय, धार्मिक व अन्य दलों की उपस्थिति में इसे फिर से लागू नहीं किया जा सकता।
लोकसभा का चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों के आधार पर, विधान सभा का चुनाव क्षत्रिय मुद्दों के आधार पर वहीं पंचायतों के चुनावों में स्थानीय मुद्दे महत्वपूर्ण होते है। सभी चुनाव एक साथ करवाने से स्थानीय व क्षत्रिय मुद्दे राष्ट्रीय मुद्दों के सामने फीके नजर आएंगे, और राष्ट्रीय मुद्दे हावी रहेंगे। इस प्रकार स्थानीय व क्षत्रिय मुद्दों का गायब हो जाना लोकतंत्र के विकास के लिए खतरा है।
स्थानीय चुनावों में राजनीतिक दलों का घुस जाना भी भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरा है।
दल बदल एक भयंकर समस्या है, दलबदल कानून बनने के बावजूद राजनीतिक दलों में निरन्तर फूट देखने को मिल रही है, जब तक डाल बदल पर रोक नहीं लगेगी तब तक एक देश एक चुनाव नहीं हो सकता।
हर राज्य के चुनाव कई चरणों में होते है, जब सरकार के पास एक राज्य में एक साथ चुनाव करवाने के संसाधन व मशीनरी नहीं है तो फिर पूरे राष्ट्र में सभी स्तरों के चुनाव एक साथ कैसे करवाए जा सकते है।
यदि केवल लोकसभा चुनाव की बात करे तो ये 2 से 3 महीने तक चलता है वहीं यदि विधान सभा और पंचायत के चुनाव भी साथ करवाने शुरू किए तो इसमें लगभग 7 से 8 महीनों का समय लगेगा, इतने लंबे समय तक पूरे देश मे आचार संहिता लागू रहेगी और कोई भी विकास कार्य नहीं हो पाएगा और साथ में देश इतना लम्बा समय बिना शासक के रहेगा, जिससे भारत को हर तरफ नुकसान भुगतना पड़ेगा।
यदि किसी राज्य में मार्च में चुनाव हो गए तो उसे अपने परिणाम के लिए 7- 8 महीने इंतजार करना पड़ेगा, क्या इतने लंबे समय तक कोई भी संवैधानिक पद खाली रखा जाना उचित है। जब 7-8 महीने सरपंच, विधायक , सांसद नहीं होएंगे तो जनता की समस्यायों व विकास कार्यों को कों देखेगा ? इस पर सभी मौन है।
उपरोक्त विवरण के आधार पर हम कह सकते है कि एक राष्ट्र एक चुनाव विचार एक ' मरिग्मरिचका ' की तरह है जिसे सोचा तो जा सकता है परन्तु लागू नहीं किया सकता ।और सरकार को ये ध्यान में रखना चाहिए कि जिस खर्च को बचाने की बात हो रही है उस से कहीं ज्यादा मात्रा में संसाधन खरीदने में खर्च होएगा।और जब तक उपरोक्त समस्याओं को मजबूत हलनहीं मिलता तब तक देश को इसमें नहीं धकेलना चाहिए, इसके परिणाम कल्पना अनुसार नहीं आएंगे।सरकार को चाहिए कि धीरे धीरे उपरोक्त चिंताओं को दूर करे और फिर आगामी समय में इस विचार को लागू करे।