एक प्रेम ऐसा भी
एक प्रेम ऐसा भी
2015 की बात है। एक प्रेम अपने चार साल के सफ़र को पार करते हुए शादी के बंधन में बंध चूका था। यह कहानी है बुद्ध और गुड्डू की। उनके बीच प्यार का सफरनामा बहुत ही बढ़िया से गुजर रहा था। भोपाल के हसीन-वादियों में वे एक साथ अपनी रोजमर्रा की जिंदगी पर निकल जाते थे। ऑफिस से कभी-कभार जल्दी छुट्टी होने पर वे साथ कहीं दूर सफ़र पर घूम आते। भोपाल शहर में वे तरह-तरह के स्वादिष्ट भोजन का आनंद साथ मिलकर लेते। गुड्डू को कचौरी, छोले और पनीर कुलचा खूब पसंद था। यह सिलसिला उनके बीच चलता रहा। नई-नई शादी में बंधे बुद्ध और गुड्डू की जोड़ी खूब जम रही थी, निखर रही थी।
शादी के छः महीने बीतते बुद्ध और गुड्डू की बीच एक नई दुनिया की खुशखबरी मिली। इस खबर से गुड्डू बहुत खुश थी। बच्चे आने की ख़ुशी में वे आपस में मिलकर हर दिन नये-नये सपने संजोने लगे। अब जैसे जैसे सर्दी का मौसम बढ़ रहा था गुड्डू की ख़ुशी भी उतनी ही तेजी से बढ़ती जा रही थी। लेकिन अचानक एक दिन यह ख़ुशी गम में तबदील हो गई। जिस ख़ुशी के लिए बुद्ध और गुड्डू तमाम सपने संजोय थे वह अब शायद खोने वाली थी। पाँचवें महीने में जाँच से पता चला कि ‘भ्रूण असामान्य था, मस्तिष्क का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था, जिस कारण वार्मिस अभी तक विकसित नहीं हुआ था। बयां गुर्दा छोटे आकार और मूत्र गठन की थोड़ी मात्रा के साथ ओलिगो किडनी था।’ भोपाल में स्त्री रोग विशेषज्ञों के अनुसार जहाँ गुड्डू का नियमित जाँच हो रहा था, वहाँ के विशेषज्ञों ने बताया कि ‘अगर हम 20 सप्ताह तक प्रतीक्षा करेंगे तो वार्मिस भाग का विकास पूरा नहीं होगा। क्योंकि गर्भस्थ शिशु के मस्तिष्क का विकास केवल 19 सप्ताह के गर्भकाल तक ही होता है। उसकी अवधी उससे अधिक नहीं होनी चाहिए। चिकित्सा विज्ञान में इसे ‘डंडी-वाकर सिंड्रोम’ के नाम से जाना जाता है। भोपाल के अन्य दो स्त्री विशेषज्ञों ने जाँच के दौरान बताया कि ‘यह बच्चा अधिक समय तक जीवित भी नहीं रह सकता। बच्चे का अगर जन्म होता है तो वह असामान्य ही पैदा होगा।’ अगर किसी तरह उसे बचा भी लिया जाए तो विशेषज्ञों के मुताबिक वह 5-6 वर्ष से अधिक जीवित नहीं रह सकेगा।
इस तमाम तरह के चिकित्सा और विशेषज्ञों के परामर्श से गुड्डू टूटते जा रही थी। टूटे भी क्यों न एक बच्चे का दर्द का अंदाजा माँ ही तो होती है जो लगा सकती है। अब गुड्डू के तमाम सपने एक-एक करके टूटने लगे थे। वह अपने जीवन से कभी निराश और हताश रहने लगी। वह किसी भी कीमत पर अपनी प्यार की पहली निशानी को खोना नहीं चाहती थी। अब गुड्डू का मन किसी भी उमंगों में नहीं रचता था। खाना-पीना भी वे अब धीरे-धीरे कम कर दी थी। वे देर रात तक सर्द मौसम में भी अकेले छत पर बैठ कर अपना समय गुजारती।
गुड्डू चाहती थी कि कम से कम एक बार उसे दिल्ली भ्रूण निदान केंद्र पर भी दिखा आना चाहिए। लेकिन वे अकेली थी पति और ससुराल वालों ने भी अब उसका साथ पहले जैसे नहीं दिया। इस तरह जिस इंसान के लिए गुड्डू अपना सब कुछ पीछे छोड़ आई थी, जिसके साथ जीवन के हर सुख-दुःख में साथ बनी रहना चाहती थी, उस व्यक्ति ने ही उसके साथ छल कर दिया। गुड्डू को बिना कुछ बताये बुद्ध ने उसे पास के ही हॉस्पिटल में एडमिट करा दिया और बच्चे का अबोर्शन करा दिया। जब गुड्डू ने होश संभाला तो उसके सारे सपने चूर हो चुके थे। वे अपनी नन्ही सी दुनिया को खो चुकी थी। यह पीड़ा उस अबोर्शन की दर्द की पीड़ा से कई गुनी बड़ी पीड़ा थी। बुद्ध को देखकर लगा कि उसे अपनी नई दुनिया ‘उदित’ जिसका नाम गुड्डू पहले ही रख चुकी थी से बिलकुल लगाव नहीं था। उदित का अंतिम संस्कार के बाद जब बुद्ध घर वापस आया तो वह जरा भी गमगीन नहीं दिखा। हमेशा की तरह चावल के साथ मांस-मछली खाया। गुड्डू यह देख सोच में पड़ गई कि एक पिता ऐसे कैसे कर सकता है..?
धीरे-धीरे अब बुद्ध और गुड्डू के बीच तनाव बढ़ने लगा। बुद्ध अब उसके साथ सिर्फ प्रेम का नाटक करता था। गुड्डू के साथ हुए इस तरह के घटना से उसके घर वाले बहुत आहत हुए। समय-समय पर वे गुड्डू को समझाते थे। लेकिन गुड्डू टूटती जा रही थी। अपनी आंसुओं की धार लिए वे हमेशा सोचती थी कि ‘क्या दुःख का पहाड़ ईश्वर ने मेरे ही हिस्से में लिखा था। आखिर मैं किसका क्या बिगाड़ी हूँ। जिसकी सजा मैं भुगत रही हूँ।’
अपने प्यार को नई पहचान देने के लिए ही उसने अपने पहली निशानी का नाम ‘उदित’ रखा था। वह हमेशा से यही सोचती थी लड़का हो या लड़की मैं उसे खूब पढ़ूंगी डॉक्टर बनाऊंगी। वह अपने सारे ख्वाहिश अपने बच्चे पर कुर्बान कर देना चाहती थी। पर उसकी यह तमन्ना तमन्ना बनकर रह गयी। उदित के जाने के बाद उसको समाज-घर परिवार और पति बुद्ध के व्यवहार ने उसे पूरी तरह से तोड़ कर रख दिया था।
माँ हमेशा गुड्डू को समझाती थी कि अगर ‘उदित’ जिन्दा बच भी जाता तो हम सभी से उसका कष्ट देखा नहीं जा सकता। वह दर्द और बढ़ जाता जब वह दिन-रात आँखों के सामने तड़पता। गुड्डू को माँ समझाते हुए हिम्मत देती कि ‘बेटी तू समझ ले कि उस बच्चे को ईश्वर ने सिंड्रोम के प्रभाव की तड़प से मुक्त कर दिया। लेकिन गुड्डू कहाँ समझने को तैयार थी। वह तो उदित के ख्यालों में ही गमगीन रहने लगी।
धीरे-धीरे गुड्डू अब दिन गिनती और अब उस घटना के बीते पांच साल सात महीने हो चुके हैं। गुड्डू आज भी उस दर्द को लिए जी रही है और आज भी सोचती है कि काश बुद्ध ने एक बार दिल्ली में भ्रूण निदान पर चेक उप करा दिया होता तो शायद उदित आज जिन्दा होता, उदित मेरे जैसा दिखता। ऐसे कई सपनो को फिर से देखती है सोचती है और फिर उदास हो जाती है।
इतने सालों बाद जिस प्यार के लिए वे अपना सब कुछ पीछे छोड़ आई थी वह भी बदल चूका था। बुद्ध अब पहले वाला बुद्ध नहीं रहा था। वह गुड्डू के पास आता जब उसे मन होता उसके साथ बिस्तर पर सोता और प्यार का ढोंग करके चला जाता। इस तरह खूब ढेर सारे सपनों को लेकर शुरू हुई बुद्ध और गुड्डू की प्रेम कहानी धीरे-धीरे खत्मा की ओर चल दी। गुड्डू आज भी भविष्य में उम्मीद लिए अपने उदित और बुद्ध के यादों के सहारे जीवन काट रही है।
