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Mohd Ibrar

Drama Thriller Children

4  

Mohd Ibrar

Drama Thriller Children

एक दोस्त

एक दोस्त

4 mins
7

यह कहानी पूर्णतः काल्पनिक है। किसी भी समानता को मात्र संयोग समझें।"


गाँव कुसमी और एक अकेला लड़का

उत्तर प्रदेश के एक छोटे-से गाँव कुसमी में एक सीधा-सादा लेकिन दिल का बेहद बड़ा लड़का रहता था – इब्रार। उसकी उम्र कोई 13 साल रही होगी, पर सोच और समझदारी उम्र से कहीं आगे।

उसके अब्बू और अम्मी दोनों खेतों में मेहनत-मजदूरी करते थे। घर में और कोई नहीं था। स्कूल से लौटकर इब्रार ज़्यादातर समय अकेले बिताता – कभी खेत में बैठा आकाश को देखता, कभी गाँव की गलियों में चुपचाप घूमता। किसी से ज्यादा बोलता नहीं था, पर अंदर ही अंदर कुछ तलाश रहा था — शायद एक दोस्त, एक साथी।

बचपन की पहली दोस्ती – एक बकरा

एक दिन दोपहर में खेत से लौटते वक्त, पगडंडी के किनारे झाड़ियों में उसे एक दुबला-पतला, भूखा-प्यासा सफेद बकरा दिखा। उसकी आँखों में डर था, शरीर काँप रहा था और पैर थरथरा रहे थे।

इब्रार पास गया, बकरे ने कोई विरोध नहीं किया — बस चुपचाप उसे देखने लगा। शायद पहली बार किसी ने उसके लिए हाथ बढ़ाया था।

इब्रार ने बिना कोई सवाल किए उसे गोद में उठाया और घर ले आया।

अम्मी ने पूछा –

बेटा, कहाँ से लाए ये बकरा?”

इब्रार ने मुस्कराते हुए जवाब दिया –

अम्मी, ये अब अकेला नहीं रहेगा। इसका नाम है चीकू। ये मेरा दोस्त है।”

इब्रार और चीकू की दुनिया

समय बीतता गया। इब्रार और चीकू की दोस्ती गाँव की चर्चा बन गई।

सुबह जब इब्रार स्कूल जाता, चीकू उसके पीछे-पीछे चलता।

स्कूल के बच्चे पहले उसे छेड़ते थे, लेकिन जब उन्होंने चीकू को क्लास के बाहर घंटों इंतज़ार करते देखा — तो सब हैरान रह गए।

गाँव के मेले में, खेत की मेड़ पर, तालाब के किनारे – हर जगह ये जोड़ी साथ दिखती।


गाँव के बड़े-बूढ़े कहते:

इब्रार का बकरा कोई जानवर नहीं, उसका साया है।”



चीकू अब सिर्फ एक बकरा नहीं था — वो इब्रार की तन्हाई का जवाब, उसकी हँसी की वजह और उसका सबसे बड़ा दोस्त बन गया था।

त्योहार की आहट और आँसू की शुरुआत

एक दिन इब्रार स्कूल से लौटा तो देखा कि अब्बू कुछ मेहमानों के साथ बातें कर रहे हैं। बातचीत हो रही थी ईद की कुर्बानी की तैयारी की। एक बुज़ुर्ग ने कहा:

“भाईजान, इस बार कुर्बानी के लिए आपका बकरा बड़ा ही अच्छा लग रहा है।”



अब्बू मुस्कराए और सिर हिला दिया।

इब्रार की रूह काँप गई।
चीकू? कुर्बानी?

वो रात इब्रार की ज़िंदगी की सबसे लंबी रात बन गई।
वो चीकू के पास बैठा रहा। उसके कान सहलाए, आँखों में देखा और बोला:

“चीकू, मैं तुझे कुछ नहीं होने दूँगा।”

फैसला – दोस्त को बचाना है

अगली सुबह चीकू को लेकर बात पक्की हो चुकी थी।
लोग कह रहे थे:

“बकरीद का पहला जानवर इब्रार का चीकू होगा!”

इब्रार ने ठान लिया — अब कुछ करना ही होगा।

उसी रात, बारिश होने लगी। बिजली चमक रही थी। लेकिन इब्रार ने हिम्मत दिखाई — चीकू को एक कपड़े में लपेटा, पीठ पर उठाया और घर से बाहर निकल गया।

काँपते पैरों से वह गाँव के बाहर जंगल की ओर बढ़ा। बारिश में भीगता हुआ, कीचड़ से भरे रास्तों पर फिसलता हुआ… लेकिन रुकना नहीं था। उसके लिए अब चीकू की जान बचाना सबसे बड़ी इबादत थी।

जंगल में बूढ़े फकीर से मुलाकात

जंगल में एक पुराना पीपल का पेड़ था, जिसके नीचे एक बुज़ुर्ग फकीर रहते थे।
इब्रार उनके पास पहुँचा, चीकू को नीचे उतारा और खुद भी बैठ गया।

आँखों में आँसू लिए बोला:

बाबा, इसे बचा लीजिए। ये मेरा दोस्त है। लोग इसे कुर्बान करना चाहते हैं। लेकिन मैं... मैं नहीं देख सकता…”

बाबा ने ध्यान से उसकी बातें सुनीं। फिर बोले:

बेटा, जब कोई इंसान किसी जानवर के लिए अपनी जान जोखिम में डाल दे, तो समझो कि उसने खुदा को पा लिया। तूने इस बकरे में दोस्त देखा, इसीलिए तू इंसान नहीं — इंसानियत है।”

सुबह – जब कुसमी थम गया

सुबह होते ही खबर फैल गई — "इब्रार और उसका बकरा गायब हैं!"
पूरा गाँव खोज में लग गया। कुछ लोग जंगल की ओर भी गए।

तभी देखा गया — इब्रार और चीकू वापस लौट रहे थे।
भीगे हुए, कीचड़ से लथपथ, लेकिन सिर ऊँचा था।

इब्रार गाँव के चौपाल पर खड़ा हुआ और बोला:

“अगर कुर्बानी देनी है तो मुझे दो… क्योंकि चीकू बकरा नहीं, मेरा भाई है।
आपने तो उसकी उम्र देखी, पर मैंने उसकी आँखों में प्यार देखा है।
आपने उसे मांस समझा, मैंने उसे अपनी आत्मा का हिस्सा माना है।”


गाँव में सन्नाटा छा गया।


गाँव की सोच में बदलाव

इब्रार के अब्बू चुपचाप आगे आए, चीकू के पास झुके और कहा:

माफ़ कर दो बेटा… हम भूल गए कि कुर्बानी का मतलब जान लेना नहीं, अपने स्वार्थ की कुर्बानी देना होता है।”

उस दिन से गाँव कुसमी में एक नई सोच जन्मी —

जानवरों से प्यार करना कमजोरी नहीं, सबसे बड़ी ताकत है।


अब हर ईद पर…

ईद आती है, कुर्बानियाँ होती हैं…
लेकिन इब्रार और चीकू की जोड़ी गाँव की सबसे प्यारी और सबसे ज़िंदा मिसाल बन चुकी है।

बच्चे उनकी कहानी सुनते हैं।
बुज़ुर्ग उसे "कुसमी का सच्चा हीरो" कहते हैं।
और हर त्योहार पर इब्रार और चीकू सबसे पहले मिठाई बाँटते हैं — बिना भेदभाव, बिना डर।


कहानी की अंतिम सीख:

सच्ची दोस्ती जात, धर्म, रूप या भाषा नहीं देखती —
वो सिर्फ दिल की आवाज़ सुनती है।
और जिसने जानवर को दोस्त बना लिया…
समझो उसने इंसानियत को अपना लिया।”


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