कवि हरि शंकर गोयल

Drama Classics Fantasy

3.0  

कवि हरि शंकर गोयल

Drama Classics Fantasy

एक और पन्ना

एक और पन्ना

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दिलावर दोपहर का खाना खाकर अभी लेटा ही था कि जेल के एक प्रहरी ने उससे कहा कि उसे जेलर साहब बुला रहे हैं। दिलावर सोचने लगा कि ऐसी क्या बात है जो जेलर साहब ने उसे बुलवाया है। बहुत सोचने के बाद भी उसे कुछ याद नहीं आया। इतने में जेलर साहब का कमरा ही आ गया। 

"राम राम साहब" दिलावर ने दोनों हाथ जोड़कर अभिवादन किया। 

"राम राम, दिलावर सिंह जी। आइए, बैठिए" 

दिलावर जेलर साहब के सामने रखी कुर्सी पर बैठते हुए बोला "हमसे कोई गुस्ताखी हो गई है का हुजूर" ? 

"अरे नहीं, दिलावर। बल्कि तुम्हारे लिए एक खुशखबरी है"। जेलर ने एक मीठी मुस्कान बिखेरते हुए कहा 

"हुजूर, पचास की उमर में अब और क्या खुशखबरी सुनने को मिलेगी ? अब तो मौत का समाचार ही खुशखबरी हो सकता है, माई बाप" 

"अरे अरे, छी छी ! ऐसी गन्दी बातें तुम्हारे मुंह से अच्छी नहीं लगती हैं दिलावर सिंह जी" 

"हुजूर, एक हत्यारे को तो अब मौत का ही इंतजार होता है। हाई कोर्ट ने मेरी फांसी की सजा कम करके उमर कैद में बदल दी। अब क्या और कुछ फैसला हुआ है" ? उसने जेलर की आंखों में झांकते हुए पूछा। 

"हां, मुझे इस जेल में आए हुए करीब पांच साल हो गए हैं। मैंने तुम्हें इस दौरान किसी से लड़ते झगड़ते नहीं देखा। कोई ग़लत काम की तो छोड़िए, ग़लत बात करते भी नहीं देखा। इसलिए मैंने सरकार से तुम्हारी सिफारिश की और सरकार ने वह सिफारिश मान ली। सरकार ने तुम्हारी बाकी की दो साल की सजा माफ कर दी है। अब तुम्हें कल या परसों यहां से रिहा कर दिया जाएगा"। जेलर के चेहरे पर खुशी की चमक स्पष्ट दिख रही थी। 

दिलावर इस खबर पर एकदम खामोश हो गया। उसे समझ नहीं आया कि वह इस खबर से रोये या हंसे ? वह खामोश ही बैठा रहा। तब जेलर ने कहा 

"तुम्हें खुशी नहीं हुई, दिलावर" ? 

वह फिर भी खामोश ही रहा। इस पर जेलर को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने फिर कहा 

"कुछ बोलते क्यों नहीं हो, दिलावर ? क्या तुम्हें बिल्कुल भी खुशी नहीं हुई" ? 

"मुझे अब इस जेल में ही रहना अच्छा लगता है साहब। आप मुझे यहीं रहने दीजिए न। मैं बाहर जाकर क्या करूंगा " ? 

"क्यों, तुम्हारे बीबी बच्चे नहीं हैं क्या" ? जेलर ने उसे दुनियादारी सिखाने की कोशिश की। 

तब दिलावर को कुछ अहसास हुआ। उसकी आंखों से अश्रु धारा बह निकली। रोते रोते बोला "साहब, मैं तो बीबी बच्चों का भी अपराधी हूं। मैं उनको क्या मुंह दिखाऊंगा ? मैंने उनके लिए किया ही क्या है" ? 

उसे ढांढस बंधाते हुए जेलर ने कहा "दिलावर, कभी कभी परिस्थितियां ऐसी बन जाती हैं कि जिससे इंसान से अपराध हो जाता है। मगर इसका मतलब यह तो नहीं कि वह इंसान पैदाइशी अपराधी है। तुमसे भी ऐसे ही संयोगवश अपराध हो गया था। जाओ, अब बाकी की जिंदगी परिवार के साथ गुजारो"। जेलर ने उसकी पीठ थपथपा कर उसका हौसला बढ़ाया। 

दिलावर को जेल से छुट्टी दे दी गई। जेल में आज गम का माहौल था। सब कैदी दिलावर से गले लगकर रो रहे थे। उसे बधाई भी दे रहे थे मगर उसकी कमी को रेखांकित कर रहे थे। 

जेल से रिहा होने के बाद दिलावर सीधा जग्गू कबाड़ी के पास गया। जग्गू कबाड़ी को एक मारपीट के मामले में एक साल की सजा हुई थी। उससे मुलाकात जेल में ही हुई थी और जेल में ही जग्गू कबाड़ी दिलावर का भक्त बन गया था। अभी छ: महीने पहले ही छूटा था जग्गू जेल से। जग्गू ने जैसे ही दिलावर को देखा, उसके पैर छुए और उसे अपनी गद्दी पर बैठाया। दिलावर ने बता दिया कि जेल से उसे दो साल पहले ही रिहा कर दिया गया है। दोनों जेल के अपने अनुभव सुनाते रहे।


दिलावर ने काफी सोच-विचार कर जग्गू से कहा "देख जग्गू, तू मुझे अपना गुरु मानता है" ? 

"इसमें क्या शक है ? मैं आज भी आपको गुरु मानता हूं और मरते दम तक मानूंगा"। 

"तो ठीक है। मुझे एक वचन दे"। दिलावर ने उसका हाथ अपने हाथ में लेकर कहा। 

"उस्ताद, आप तो आदेश दीजिए। पालना नहीं करूं तो मैं असल बाप का जाया नहीं" ? जग्गू उत्तेजित होकर बोला। 

"शाबास। मुझे तुमसे यही उम्मीद थी। इसीलिए मैं सीधा तुम्हारे पास आया हूं। मगर फिर भी मैं एक वचन चाहता हूं"। दिलावर ने उसकी आंखों में देखकर कहा। 

"दिया, उस्ताद दिया। अब तो खुश" ? जग्गू ने मुस्कुराते हुए कहा। 

"ओह जग्गू, मैं कितना खुश हूं तुझे बता नहीं सकता हूं। तूने मेरी सारी समस्या का समाधान कर दिया है। अब मैं जैसा कहूं वैसा करते जाना" दिलावर ने उसके दोनों हाथ कसकर पकड़ लिए। 

जग्गू ने गर्दन हिलाकर सहमति दे दी। तब दिलावर ने कहा "चल, मेरे साथ"। 

"कहां" ? 

"कोई प्रश्न नहीं"। 

"जी उस्ताद"। 

और जग्गू अपनी दुकान बंद कर दिलावर के साथ हो लिया। 

दिलावर जग्गू को "बेड़नियों के अड्डे" पर ले आया। जग्गू को बड़ा आश्चर्य हो रहा था कि दिलावर उसको "वेश्याओं के डेरे" पर क्यों लेकर आया है ? मगर उसे दिलावर पर विश्वास था। और फिर अब तो उसने वचन भी दे दिया था। 

बेड़नियों के अड्डे पर बहुत रौनक थी। करीब पंद्रह बीस घर थे जो कुछ कच्चे कुछ पक्के बने हुए थे। मर्द लोग चारपाई पर पड़े हुए थे और औरतें बन संवर कर तैयार होकर नये नये छोरों को आकर्षित कर रही थीं। सभी उम्र की औरतें थीं वहां पर अठ्ठारह वर्ष से लेकर चालीस पचास वर्ष तक की औरतें "वेश्यावृत्ति" करती थीं। ग्राहकों में युवा से लेकर अधेड़ और वृद्ध भी शामिल थे। लोग उन औरतों को देखकर फब्तियां भी कस रहे थे और उन्हें छेड़ भी रहे थे। औरतें भी उनको उकसा रही थीं आगे बढ़ने के लिए। 

दिलावर और जग्गू भी एक जगह खड़े होकर यह सब नजारा देखने लगे। उधर कुछ लड़कियां एक जगह खड़े होकर नौजवानों की ओर देखकर मुस्कुरा देती थीं और आपस में हंसी ठठ्ठा करके नौजवानों को अपनी ओर आकर्षित कर रही थीं। 

इन दोनों ( दिलावर और जग्गू) को देखकर चंपा बोली "कैसा जमाना आ गया है ? बाप बेटे दोनों एक साथ आए हैं अपने अड्डे पर ? सुन लैला, एक को तू सलटा दे दूसरे को जूली सलटा देगी" वह दोनों को देखकर आंख मारते हुए बोली और जोर से खिलखिला पड़ी। 

लैला ने कहा "ये तो हमारा धंधा है। यहां आने वाले सभी लोग हमारे ग्राहक हैं। वे चाहे नौजवान हों, अधेड़ या वृद्ध हों। हमारे लिए एक जैसे ही हैं"। 

जूली ने उसकी बात का समर्थन किया "सही तो कह रही है लैला। भगवान ने तो दो ही जातियां बनाई हैं एक मर्द और दूसरी औरत। बस, और कुछ नहीं। एक ही रिश्ता है दोनों के बीच और वह है "जिस्मानी रिश्ता"। अब मर्द पच्चीस का हो, पचास का हो या अस्सी का ? उससे क्या फर्क पड़ता है ? तू ही बता रीना, कुछ ग़लत कहा क्या मैंने" ? 

इतने में पूजा बोल पड़ी " रीना को तो बूढ़े ऐय्याश लोगों से सख्त नफरत है। शर्म नहीं आती है इनको ? पैर क़ब्र में पड़े हुए हैं लेकिन "गोश्त" जवान चाहिए सालों को। हरामखोर कहीं के"। 

"अरी, तू कैसी बेहया है ? शर्म नहीं आती है तुझे अपने भगवान को गाली देते हुए" ? 

इतने में सब लड़कियां एक साथ जोर से चीखीं " भगवान" ? 

"भगवान। हां, भगवान'। जूली अपनी आवाज बुलंद कर कहने लगीं। "तुम शायद भूल गई हो कि एक दुकानदार के लिए एक ग्राहक ही उसका भगवान होता है। अब हमारे ग्राहक 'ये ही लोग' हैं तो ये भी हमारे लिए भगवान ही हुए ना। और फिर यह भी तो सोचो कि अगर सब लोग सीधे सच्चे हों तो हमारे जैसे अड्डों पर कौन आएगा ? हमारी जैसी लाखों करोड़ों औरतों का पेट कैसे भरेगा ? अगर देखा जाए तो ये "आवारा लोग" भी बड़ा पुण्य कर रहे हैं, हम जैसी औरतों के परिवारों का पेट भरकर "। 

यह बात सुनकर सभी लड़कियां गंभीर हो गई। अब रीना ने पहली बार मुंह खोला "तू तो बहुत समझदार हो गई है, जूली। हमने तो कभी इस तरह सोचा ही नहीं था। मुझे तो मर्दों से घृणा सी हो गई थी। मगर, अब तेरी बातें सुनकर उन पर दया आने लगी है। बेचारे" 

"बेचारे" ? सब एक साथ बोल पड़ी। 

"बेचारे ही तो हैं ये। अच्छा एक बात बताओ कि अगर घर में बढ़िया खाना मिलता हो तो बाहर का खाना कौन खायेगा" ? रीना ने एक प्रश्न दाग दिया। 

सबने एक साथ कहा "कोई नहीं" 

तो यही बात इन जैसे मर्दों पर भी लागू होती है। अगर इनकी इच्छाएं घर में ही पूरी हो जाती तो फिर ये इधर का रुख कभी नहीं करते। हां, कुछ लोग ऐसे होते हैं कि बीबी चाहे जितना स्वादिष्ट खाना बना लें, मगर इनको तो बाहर का सड़ा गला खाना खाने में ही आनंद आता है। अब हमको कैसे पता चले कि कोई शौकिया तौर पर इधर आया है या कोई मजबूरी में चलकर" ? 

इनकी बातें चल ही रही थी कि दिलावर और जग्गू वहां पर आ गए। दिलावर को देखकर वे धीरे से मुस्कुराई और एक आंख मार दी। दिलावर ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और सीधे सपाट शब्दों में पूछा "तुम में से 'रीना' कौन है" ? 

बाकी सबने रीना की ओर इशारा करके कहा "हाय हाय। हम में ऐसी क्या कमी है ? रीना में ऐसा क्या है, बाबू ? जो चीज उसके पास है, हमारे पास भी है" खिलखिलाते हुए सब एक साथ बोल पड़ी। 

अब रीना इस बातचीत से खीझ गई थी। दिलावर और जग्गू से बोली "मेरा रेट तो पता है ना तुमको ? एक घंटे के हजार लेती मैं। अगर मंजूर हो तो चल आजा। नहीं तो फूट यहां से, खूसट कहीं का" 

"हमें मंजूर है" । दिलावर ने कहा 

"हमें ? क्या मतलब" ? रीना चौंकी। 

"हम दो हैं ना तो दोनों ही साथ रहेंगे"। 

"फिर तो पैसे भी डबल ही लगेंगे" ? रीना बोली। 

अब पहली बार जग्गू बोला 

पैसों की परवाह मत करो। बस, जो उस्ताद कहे, वैसा ही करो" 

"ठीक है। पहले पैसा निकालो फिर अंदर आ जाओ, जो भी पहले आना चाहता हो" 

जग्गू ने उसे दो हजार का नोट पकड़ा दिया। दोनों रीना के मकान में दाखिल हो गये। 

क्रमशः 

शेष अगले अंक में


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