द्वंद्व युद्ध - 21.3
द्वंद्व युद्ध - 21.3
रमाशोव ने लजीली कृतज्ञता से नज़ान्स्की की ओर देखा, “मैं आपको पूरी तरह, पूरी तरह समझ रहा हूँ,” उसने कहा। “जब मैं न रहूँगा, तो क्या पूरी दुनिया ख़त्म हो जाएगी ? आप यही तो कह रहे हैं ना ?”
“बिल्कुल यही। और, तो, मैं कहता हूँ, लोगों के दिलों से मानवता के प्रति प्रेम काफ़ूर हो चुका है। उसके स्थान पर आ रहा है एक नया, स्वर्गीय विश्वास जो दुनिया के अंत तक अमर रहेगा। ये है, अपने आप के प्रति प्यार, अपने ख़ूबसूरत जिस्म के प्रति, अपनी सबसे बेहतरीन बुद्धि के प्रति, अपने विचारों की अनंत समृद्धि के प्रति प्यार। नहीं, सोचिए, सोचिए, रमाशोव : अपने आप से बढ़कर कोई और अधिक प्यारा, और अधिक निकट है आपके लिए ? कोई नहीं। आप – दुनिया के सम्राट हैं, उसका स्वाभिमान और आभूषण हैं। आप – समूची सजीव सृष्टि के ईश्वर हैं। हर वह चीज़, जो आप देखते हैं, सुनते हैं, महसूस करते हैं, सिर्फ आपकी है। जो जी में आए, वही कीजिए। वह सब ले लीजिए जो आपको अच्छा लगता है। पूरी सृष्टि में किसी से न डरिये, क्योंकि आपसे ऊपर कोई नहीं है, और आपके समान भी कोई नहीं है। वह समय आएगा, और अपने आप में महान विश्वास प्रकाशित करेगा, पवित्र आत्मा की अग्निशलाकाओं के समान सब लोगों के सिरों को, और तब न होंगे गुलाम, न स्वामी, न अपाहिज, न दयनीयता, न पाप, न दुष्टता, न ईर्ष्या। तब लोग ईश्वर बन जाएँगे। और सोचिए, तब मैं कैसे हिम्मत कर पाऊँगा मानव को अपमानित करने की, उसे धक्का देने की, उसे धोखा देने की, जिसके भीतर मैं अपने स्वयँ के सदृश्य प्रकाशमान ईश्वर को देखता हूँ ? तब ज़िन्दगी ख़ूबसूरत हो जाएगी। पूरी धरती पर हल्की, प्रकाशित इमारतें खड़ी हो जाएँगी; कोई बदसूरती, कोई ओछापन हमारी आँखों को अपमानित नहीं करेगा; जीवन एक मीठा श्रम; आज़ाद विज्ञान; आश्चर्यचकित करने वाला संगीत; प्रसन्न, चिरंतन और हल्का फुल्का त्यौहार बन जाएगा। प्यार स्वामित्व की जंज़ीरों से आज़ाद, विश्व का प्रकाशमान धर्म बन जाएगा; न कि रहस्यमय, शर्मनाक – अंधेरे कोने में घृणा से, सावधानी से किया जाने वाला पाप। और स्वयँ हमारे शरीर हो जाएँगे प्रकाशमान, ताक़तवर और ख़ूबसूरत, रंगबिरंगे शानदार वस्त्रों में लिपटे। वैसे ही, जैसे मेरे ऊपर स्थित इस शाम के आकाश में विश्वास करता हूँ,” समारोह पूर्वक हाथ ऊपर को उठाकर नज़ान्स्की चहका, “उसी तरह दृढ़ विश्वास है मेरा आनेवाली ईश्वर सदृश्य ज़िन्दगी में !”
रमाशोव , परेशान, सकते में आया हुआ, सिर्फ अपने बेरंग होठों को फड़फड़ाने लगा: “ नज़ान्स्की, ये सिर्फ ख़्वाब हैं, कल्पना है !”
नज़ान्स्की नर्मी से हौले हौले मुस्कुराया, “हाँ,” उसने आवाज़ में मुस्कुराहट लाते हुए कहा, “कोई एक प्रोफ़ेसर कट्टर धर्म का, या क्लासिकल भाषा-शास्त्र का – दोनों पैर फैलाते हुए, हाथ दूर नचाता है और गर्दन तिरछी करके कहता है : मगर ये है प्रदर्शन चरम अहंभाव का ! बात भयानक शब्दों की नहीं है, मेरे प्यारे बच्चे, बात यह है कि, दुनिया में उन कल्पनाओं से, जिनके बारे में अब केवल कुछ ही लोग ख़्वाब देखते हैं, अधिक यथार्थ कोई चीज़ नहीं है। वे – ये कल्पनाएँ – लोगों के लिए सबसे ज़्यादा विश्वसनीय और उम्मीद से भरपूर कड़ी है। भूल जाएँ कि हम – फ़ौजी हैं। हम – गुलाम हैं। जैसे, मान लो सड़क पर एक अजीब राक्षस खड़ा है; ख़ुशनुमा, दो सिर वाला राक्षस। जो भी उसके नज़दीक से गुज़रता है, वह उसके चेहरे पर मारता है, फ़ौरन चेहरे पर मारता है। उसने अभी तक मुझे नहीं मारा है; मगर सिर्फ ये ख़याल कि वह मुझे मार सकता है, मेरी प्रिय औरत को अपमानित कर सकता है, तानाशाही से मेरी आज़ादी छीन लेता है, - ये ख़याल मेरे सारे अभिमान को झकझोर देता है। मैं अकेला उस पर क़ाबू नहीं पा सकता। मगर मेरी बगल में वैसा ही बहादुर और वैसा ही स्वाभिमानी व्यक्ति खड़ा है, जैसा कि मैं हूँ; और मैं उससे कहता हूँ: ‘ चलें, दोनों मिलकर कुछ ऐसा करे कि वह न तुम्हें, न मुझे मारे’, और हम चल पड़ते हैं। ओह, यह, बेशक, एक फूहड़ उदाहरण है, ये एक ख़ाका है, मगर इस दो सिर वाले राक्षस के रूप में मैं वह सब देखता हूँ जो मेरी रूह को बाँध देता है, मेरी आज़ादी पर अत्याचार करता है, अपने व्यक्तित्व के प्रति मेरे सम्मान को छोटा कर देता है। और तब न तो निकटतम व्यक्ति के लिए शारीरिक सहानुभूति, बल्कि स्वयँ के प्रति दैविक प्रेम ही मेरे प्रयत्नों को औरों के प्रयत्नों से जोड़ता है, ऐसे लोगों से जिनकी आत्मा मेरे ही समान है।”
नज़ान्स्की चुप हो गया। ज़ाहिर था कि ये बेआदतन मानसिक उत्तेजना उसे थका गई थी। कुछ मिनटों के पश्चात् उसने सुस्ती से आगे कहा, मरी मरी आवाज़ में: “तो ये बात है, मेरे प्यारे गिओर्गी अलेक्सेयेविच। हमारे निकट से तैर रही है विशाल, उलझी हुई, खदखदाती ज़िन्दगी; पैदा हो रहे हैं दैविक, सुलगते विचार, नष्ट हो रही हैं पुरानी सुनहरी मूर्तियाँ। और हम खड़े हैं हमारे अस्तबलों में, कमर पर हाथ रखे, और गरज रहे हैं: “आह, तुम, बेवकूफ़ ! गुलाम ! मा---रूँगा तुझे !” और ज़िन्दगी इस बात के लिए हमें कभी माफ़ नहीं करेगी।”
वह कुछ उठा, अपने कोट के नीचे सिकुड़ गया और थकान से बोला, “ठंड है, घर जाएँगे।”
रमाशोव ने सरकंड़ों के जाल से नाव बाहर निकाली। सूरज शहर की छतों के पीछे डूब रहा था, और वे गहराते हुए और स्पष्टता से संध्या प्रकाश के लाल पट्टे में उभर कर नज़र आ रही थीं। कहीं कहीं खिड़कियों के शीशों से परावर्तित होकर प्रकाश की लपटें खेल रही थीं। संध्या प्रकाश की ओर का पानी गुलाबी था, चिकना और प्रसन्न था; मगर नाव के पीछे वह घना हो रहा था, नीला पड़ रहा था और सलवटें डाल रहा था।
रमाशोव ने अचानक कहा, अपने ख़यालों के जवाब में: “आप सही कह रहे हैं। मैं रिज़र्व में चला जाऊँगा। ख़ुद भी नहीं जानता कि ये कैसे करूँगा, मगर मैं पहले भी इस बारे में सोचता था।”
नज़ान्स्की कोट में दुबक रहा था और ठंड से काँप रहा था।
“जाइये, जाइये,” उसने प्यार भरे दुख से कहा। “आपके भीतर कुछ है, कोई आंतरिक प्रकाश। मैं नहीं जानता कि उसे क्या कहते हैं मगर हमारी माँद में उसे बुझा दिया जाएगा। सिर्फ थूकेंगे उस पर और बुझा देंगे। ख़ास बात– आप डरिए नहीं, ज़िन्दगी से डरिए नहीं: वह बड़ी ख़ुशनुमा, दिलचस्प, आश्चर्यजनक चीज़ है– ये ज़िन्दगी और, कोई बात नहीं, अगर आपकी बात नहीं बनती है– आप गिरने लगते हैं, मारे मारे फिरने की नौबत आती है, नशे में धुत पड़े रहते हैं। मगर फिर भी, हे भगवान, मेरे अपने, कोई भी आवारा दस हज़ार गुना ज़्यादा पूरी पूरी और ज़्यादा दिलचस्पी ज़िन्दगी जीता है, आदम ईवानिच ज़ेर्ग्झ्त या कैप्टेन स्लीवा के मुक़ाबले में। धरती पर इधर उधर घूमते हो, विभिन्न शहर देखते हो, गाँव देखते हो, कई सारे विचित्र, ग़ैर ज़िम्मेदार, हास्यास्पद लोगों से मिलते हो, देखते हो, सूँघते हो, सोते हो ओस गिरी घास पर, बर्फ में ठिठुरते हो, किसी भी चीज़ से बंधे नहीं हो, किसी से डरते नहीं हो, रूह के हर कण से आज़ाद ज़िन्दगी का लुत्फ उठाते हो। ऐह, लोग आमतौर से कितना कम समझते हैं !
क्या सब एक ही नहीं है: कैस्पियन की छोटी मछली या जंगली बकरे का माँस खाना; मशरूम के साथ, वोद्का पीना अथवा शैम्पेन पीना; सिंहासन पर मरना या पुलिस चौकी में। ये सारे विवरण, छोटी छोटी सुविधाएँ, जल्दी से ख़त्म होने वाली आदतें हैं। वे सिर्फ ग्रहण लगाती हैं; सस्ता बनाती हैं जीवन के सबसे प्रमुख और विशाल सार को। मैं अक्सर देखता हूँ शानदार जनाजों को। चाँदी की पेटी में बेमतलब की सजावट के नीचे एक जर्जर, मुर्दा बूढ़ा बन्दर; और अन्य ज़िन्दा बन्दर उसके पीछे पीछे चलते हैं; थोबड़े खींचे, अपने आप पर और अपने आगे और पीछे हास्यास्पद सितारे और घुंघरू और ये सारे भाषण, मीटिंग्स, विज़िट्स। नहीं, मेरे अपने, सिर्फ एक ही निर्विवाद, ख़ूबसूरत और अपरिहार्य चीज़ है – आज़ाद रूह; और इसके साथ साथ सृजनात्मक विचार और जीवन की आनन्दमय प्यास। मशरूम हो भी सकते हैं, नहीं भी – ये बड़ा बेढंगा, तीखा और चिड़चिड़ाहटभरा खेल है परिस्थिति का। एक गार्ड भी, यदि वह एकदम बेवकूफ़ न हो, तो एक साल बाद अच्छी तरह पढ़ लिख जाएगा और भली भाँति राज कर सकेगा। मगर एक खिला खिला कर मोटा किया गया अकड़ू और मंदबुद्धि बन्दर, जो एक गाड़ी में बैठा है, चर्बी चढ़े पेट पर बहुमूल्य पत्थर चढ़ाए, आज़ादी की स्वाभिमानपूर्ण आकर्षक शान को नहीं समझ सकता; प्रेरणा के आनन्द को महसूस नहीं कर सकता; उत्साह के मीठे आँसू नहीं बहा सकता – यह देखकर कि विलो वृक्ष की टहनी पर कैसे फूली फूली टोपियाँ झिलमिला रही हैं !”
नज़ान्स्की खाँसने लगा और देर तक खाँसता रहा। फिर नाव से बाहर थूक कर आगे बोला:
“चले जाओ, रमाशोव । तुमसे ऐसा इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि मैंने ख़ुद भी आज़ादी का लुत्फ़ उठाया है; और अगर मैं वापस आया, इस ज़हरीले पिंजरे में, तो इसकी वजह ये थी।।।ख़ैर, जाने दो।।।एक ही बात है, आप समझ रहे हैं। निडरता से ज़िन्दगी में कूद पड़िये, वो आपको धोखा नहीं देगी। वो एक विशाल इमारत है, हज़ारों कमरों वाली, जिनमें रोशनी, ख़ूबसूरत तस्वीरें, ज़हीन, सलीक़ेदार आदमी; हँसी, नृत्य, प्यार – वह सब, जो महान और भव्य है कला के क्षेत्र में। और आपने अब तक इस महल में सिर्फ एक अंधेरी, तंग कोठरी ही देखी है, कूड़ा-करकट और मकड़ जालों वाली – और आप उससे बाहर निकलने में डरते हैं।”
रमाशोव नौका को किनारे तक ले आया और उसने नज़ान्स्की की नाव से उतरने में मदद की। अँधेरा हो गया था जब वे नज़ान्स्की के कमरे में वापस आए। रमाशोव ने अपने साथी को पलंग पर लिटाया और ऊपर से कंबल और ओवरकोट से ढाँक दिया।
नज़ान्स्की इतनी बुरी तरह काँप रहा था कि उसके दाँत किटकिटा रहे थे। एक गठरी जैसा सिमट कर और सिर को तकिए में घुसा कर वह बड़ी दयनीय, असहाय, बच्चों जैसी आवाज़ में बोला:
“ओह, कितना डर लगता है मुझे अपने कमरे में। कैसे सपने; कैसे कैसे सपने !”
“आप चाहें तो मैं रात में यहीं रुक जाऊँ ?” रमाशोव ने कहा।
“नहीं, नहीं, ज़रूरत नहीं है। कृपया ब्रोमाइड़ मंगवा दीजिए और थोड़ी वोद्का भी। मेरे पास पैसे नहीं हैं।”
रमाशोव उसके पास ग्यारह बजे तक बैठा रहा। धीरे धीरे नज़ान्स्की की कंपकंपाहट कम हुई। उसने अचानक अपनी बड़ी बड़ी, चमकीली, उत्तेजित आँखें खोलीं और निर्णयात्मक लहज़े में रुक रुक कर कहा, “अब जाइये। अलविदा।”
“अलविदा,” रमाशोव ने दयनीयता से कहा।
उसका दिल चाह रहा था कि कहे, “अलविदा, उस्ताद,” मगर वह शर्मा गया और कुछ मज़ाहिया अंदाज़ में आगे बोला, “ ‘अलविदा’ क्यों ? ‘द स्विदानिया (अगली मुलाक़ात तक)’ क्यों नहीं ?”
नज़ान्स्की हँस पड़ा, बोझिल, बेमतलब, अप्रत्याशित हँसी थी ये।
“और ‘ द स्विश्वेत्सिया’ क्यों नहीं ?” वह पागलों जैसी जंगली आवाज़ में चिल्लाया और रमाशोव को अपने पूरे शरीर में भय की थरथराती लहरों का अनुभव हुआ।
यहाँ दस्विदानिया- का वास्तविक अर्थ तो है, फिर मिलेंगे, मगर दस्विश्वेत्सिया में श्वेत्सिया से तात्पर्य है– घटना से।