द्वंद्व युद्ध - 12

द्वंद्व युद्ध - 12

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23 अप्रैल का दिन रमाशोव के लिए काफ़ी व्यस्त और विचित्र रहा। सुबह के दस बजे, जब सेकंड लेफ्टिनेंट अभी अपने बिस्तर में ही था, निकोलाएवों का अर्दली स्तेपान अलेक्सान्द्रा पेत्रोव्ना की चिट्ठी लेकर आया।

“प्यारे रोमच्का,” उसने लिखा था, “मुझे ज़रा भी अचरज नहीं होगा, अगर मुझे कोई ये बताए कि आप इस बात के बारे में भूल गए हैं कि आज हम दोनों का नामकरण-दिन है। इसलिए आपको इसकी याद दिला रही हूँ। चाहे कुछ भी हो जाए, मैं आपसे आज मिलना चाहती हूँ ! बस, सिर्फ मुबारकबाद देने दिन में मत आ जाना, बल्कि सीधे पाँच बजे आइए। दुबेच्नाया में पिकनिक पर चलेंगे।

आपकी अ। नि।”

रमाशोव के हाथों में ख़त थरथरा रहा था। पूरे हफ़्ते उसने शूरच्का का प्यारा, स्नेहभरा, कुछ मखौल उड़ाता सा, कुछ दोस्ताना फिक्र से सराबोर चेहरा नहीं देखा था, अपने आप पर उसके नाज़ुक, अधिकारपूर्ण आकर्षण को महसूस नहीं किया था। ‘आज !’ उसके भीतर एक खुशनुमा फुसफुसाहट ने कहा।

 “आज !” ज़ोर से चिल्लाया रमाशोव और नंगे पैर ही पलंग से फर्श पर कूद गया। “गैनान, नहाऊँगा !”

गैनान अन्दर आया।

 “हुज़ूर, वहाँ अर्दली खड़ा है। पूछ रहा है: क्या तुम जवाब लिखोगे ?”

 “हाँ, वही तो, वही तो !” रमाशोव ने आँखें फाड़ी और हौले से बैठ गया। “च् च् च्। उसे चाय के लिए कुछ देना पड़ेगा, मगर मेरे पास तो कुछ भी नहीं है।” उसने परेशानी से अर्दली की ओर देखा।

गैनान ने लंबी-चौड़ी मुस्कुराहट बिखेर दी।

 “मेले पास भी कुस नई ! तेले पास नई, मेले पास नई। ऐ, तो क्या ! वो वैसे ही चला जाएगी।”

रमाशोव के दिमाग में बसंत की काली रात कौंध गई, कीचड़, गीली, फिसलन वाली बागड़ जिसको पकड़े पकड़े वह चल रहा था, और अंधेरे से आती स्तेपान की उदासीन आवाज़: “आ जाता है, आ जाता है, हर रोज़।” उसे अपनी असहनीय शर्मनाक स्थिति की भी याद आई। ओह, भविष्य की कौन कौन सी ख़ुशियाँ निछावर न कर देता सेकंड लेफ्टिनेंट सिर्फ बीस कोपेक के एक सिक्के के लिए !

रमाशोव ने कँपकँपाते हुए, कसकर हाथों से अपना चेहरा पोंछा और परेशानी से घुरघुराया।

 “गैनान,” उसने घबराकर दरवाज़े की ओर तिरछी नज़र डालते हुए फुसफुसाकर कहा। “गैनान, तू जाकर उससे कह दे कि सेकंड लेफ्टिनेंट शाम को ज़रूर उसे चाय के लिए कुछ देंगे। सुन रहे हो: ज़रूर कह देना।”

रमाशोव ने अब पैसे की बड़ी कमी महसूस की। उसका उधार हर जगह बन्द कर दिया गया था: बुफेट में, अफ़सरों के लिए बनी सस्ती दुकान में, अफसरों वाली ट्रेजरी में। सिर्फ मेस में दोनों वक़्त का खाना मिलता था, और वह भी बगैर वोद्का के और टिट्-बिट्स के। उसके पास चाय और शकर तक नहीं थे, सिर्फ किसी खेल में जीता गया एक बड़ा सा कॉफ़ी के दानों का डिब्बा था। रमाशोव हर सुबह बड़ी बहादूरी से उसी को पीता था बगैर शक्कर के और उसके पीछे पीछे, उसी तरह भाग्य के सामने हाथ टेकते हुए, गैनान बची हुई कॉफ़ी पी जाता था।

और अब, तिरस्कारपूर्वक मुँह बनाते हुए सेकंड लेफ्टिनेंट उसी काले, कड़वे, कड़क घोल को पी रहा था और अपनी स्थिति पर गहराई से विचार कर रहा था, 'हुम्, सबसे पहले, बिना उपहार के कैसे जाएँ ? चॉकलेट या दस्ताने ? फिर, यह भी तो मालूम नहीं कि उसका साइज़ क्या है। चॉकलेट ? सबसे अच्छी रहेगी सेंट की बोतल: यहाँ तो बड़े घटिया चॉकलेट मिलते हैं। फॅन ? हुम् ! हाँ, बेशक, सेंट ही ठीक रहेगा। उसे एस-बुके पसन्द है। फिर पिकनिक का ख़र्चा: गाड़ी वहाँ तक जाने और वापस आने के लिए, मान लीजिए – पाँच, स्तेपान को चाय के लिए – एक रुबल ! तोSS, सेकंड लेफ्टिनेंट रमाशोव महोदय, दस के नीचे आपका काम नहीं चलेगा।’

वह मन ही मन आय के स्त्रोतों का जायज़ा लेने लगा। तनख़्वाह ? मगर अभी कल ही तो उसने पे-रजिस्टर पर दस्तख़त किए थे: “हिसाब बराबर है। सेकंड लेफ्टिनेंट रमाशोव।” उसकी पूरी तनख़्वाह का हिसाब अलग अलग कॉलम्स में दिखाया गया था, जिसमें व्यक्तिगत रूप से उठाए गए कर्जों की अदायगी भी दिखाई गई थी; सेकंड लेफ्टिनेंट को एक भी कोपेक तनख़्वाह में नहीं मिला था। क्या एडवान्स मांग ले ? इस तरीक़े को वह कम से कम तीस बार अपना चुका था, मगर बगैर किसी सफ़लता के। अकाउंटेंट था स्टाफ-कैप्टेन दराशेन्का – एक उदास और गंभीर आदमी, ख़ास तौर से “मनचलों” के लिए। तुर्की के साथ लड़ाई में वह बड़ी अटपटी जगह पर घायल हुआ था – एड़ी में। उसके ज़ख़्म पर (जो उसे भागते समय नहीं लगा था, बल्कि तब लगा था, जब अपनी प्लैटून में वापस आकर वह हमले का संचालन कर रहा था) लगातार कसे जा रहे तानों का परिणाम यह हुआ कि जो सेकंड लेफ्टिनेंट एक ज़िन्दादिल इंसान के रूप में युद्ध पर गया था, वह ज़हरीला, चिड़चिड़ा, काल्पनिक रूप से बीमार व्यक्ति बनकर वापस लौटा। नहीं, दराशेन्का पैसे नहीं देगा, और वह भी उस सेकंड लेफ्टिनेंट को जो लगातार तीन महीनों से लिख रहा है: “हिसाब बराबर है।”

‘मगर हम निराश नहीं होंगे !’ रमाशोव ने अपने आप से कहा। “सारे अफ़सरों को याद कर लेते हैं। शुरुआत रेजिमेंट के अफ़सरों से। एक के बाद एक। पहली रेजिमेंट – असाद्ची।”

रमाशोव के सामने असाद्ची का ख़ूबसूरत, आश्चर्यजनक चेहरा आ गया अपनी कठोर, हिंस्त्र पशु जैसी नज़रों समेत। “नहीं – और कोई भी चलेगा – सिर्फ यह नहीं। सिर्फ यह नहीं। दूसरी रेजिमेंट – तल्मान। प्यारा तल्मान : वह हमेशा हरेक से पैसे माँगता रहता है, सब-वारंट ऑफ़िसर से भी। खूतिन्स्की ?”

रमाशोव सोच में डूब गया। एक शरारत भरा, बचकाना ख़याल उसके दिमाग़ में तैर गया: कम्पनी कमांडर के पास जाकर उधार मांगा जाए। मैं कल्पना कर सकता हूँ ! शायद पहले तो ख़ौफ़ खाकर सकते में आ जाए, फिर गुस्से से काँपने लगे और फिर दनादन फायर करने लगे, जैसे मॉर्टर से दाग़ते हैं: “क्या-SSS ? ख़ा-मो-श ! चार दिनों के लिए गार्ड हाउस में खड़े रहो !”

सेकंड लेफ्टिनेंट खिलखिलाकर हँस पड़ा। नहीं कोई बात नहीं, कोई न कोई रास्ता तो निकल ही आएगा ! दिन, जो इतनी प्रसन्नतापूर्वक शुरू हुआ था, व्यर्थ नहीं जाएगा ! इस बात को पकड़ पाना, उसे समझ पाना असंभव है, मगर वह हमेशा सही सही महसूस की जाती है, कहीं गहरे, चेतना से परे।

 “कैप्टेन द्युवेर्नुआ ? मज़ाक में सिपाही उसे कहते हैं ‘दवेर्नीनोगा (पैर मोड़ो) और कहते हैं कि एक और भी था – जनरल बुडबर्ग फोन शाऊफुस, - उसे सिपाहियों ने नाम दिया था : बूद्का ज़ा त्सेखाउज़ोम (वर्कशॉप के पीछे कैबिन)। नहीं द्युवेर्नुआ कंजूस है और वह मुझे पसन्द भी नहीं करता – यह मुझे मालूम है।”

इस तरह उसने पहली रेजिमेंट से सोलहवीं रेजिमेंट तक सारे रेजिमेंट कमांडरों की गिनती कर डाली, फिर गहरी साँस लेकर जूनियर अफ़सरों की ओर मुड़ा। उसने अभी भी सफ़लता में विश्वास खोया नहीं था, मगर वह कुछ परेशान ज़रूर होने लगा था, कि अचानक उसके दिमाग़ में एक नाम कौंध गया। ‘लेफ्टिनेंट कर्नल रफ़ाल्स्की !’

 “रफ़ाल्स्की। और मैं सिर धुने जा रहा था ! गैनान ! फ्रॉक-कोट, दस्ताने, ओवरकोट – फटाफट !”

लेफ्टिनेंट कर्नल रफाल्स्की, चौथी बटालियन का कमांडर, एक बूढ़ा, सनकी कुँआरा था, जिसे कम्पनी में मज़ाक से, और बेशक, पीठ पीछे कर्नल ब्रेम कहते थे। वह अपने किसी भी साथी के घर नहीं जाता था, केवल ईस्टर और नए साल को छोड़कर, क्योंकि इन शासकीय आयोजनों में जाना पड़ता था। अपनी फौजी सेवा में वह इतना लापरवाह था कि हमेशा उसे भर्त्सना भरे आदेश और पढ़ाई के समय उसकी भयानक खिंचाई की जाती थी। अपना पूरा समय, पूरी लगन और अपने दिल की प्यार करने की और समर्पण की क्षमता , जिन्हें व्यक्त होने का मौक़ा नहीं मिला था, वह अपने जानवरों को दिया करता था – पंछियों को, मछलियों को और चौपाए जानवरों को जिनके लिए उसके पास एक बहुत बड़ा और अनूठा ‘पशु-घर’ था। कम्पनी की महिलाएँ, जो दिल ही दिल में अपने प्रति उसकी उदासीनता के कारण खार खाए रहती थीं, कहा करती थीं कि वे समझ नहीं पातीं कि रफ़ाल्स्की के घर में कोई कैसे जा सकता है : “आह, कितना भयानक है ये जानवर ! और फिर, माफ़ कीजिए – बदबू ! ! छि: ! छि: !”

अपनी सारी कमाई कर्नल ब्रेम ‘पशु-घर’ पर ही खर्च कर देता था। यह सनकी आदमी अपनी ज़रूरतें कम से कम रखता था: वह न जाने किस सदी का फ्रॉक कोट और ओवरकोट पहनता, किसी तरह सोता, पन्द्रहवीं रेजिमेंट की देगची से खाना खाता, मगर फिर भी इस रसोईघर के लिए वह ज़रूरत से ज़्यादा रकम दिया करता था। मगर जब उसके पास पैसे होते थे तो अफसरों को , खास तौर से जूनियर अफ़सरों को वह छोटी-मोटी रकम उधार देने से नहीं हिचकिचाता था। ईमानदारी से कहना पड़ेगा कि उसका कर्ज़ चुकाना बड़ा अप्रिय काम समझा जाता था, बल्कि इसे लोग मज़ाक़ ही समझते थे – इसीलिए उसे सनकी, कर्नल ब्रेम कहते थे।

लापरवाह क़िस्म के एनसाइन, जैसे ल्बोव, उसके पास दो रुबल का क़र्ज़ मांगने जाते हुए ऐसा ही कहते थे, “पशु-घर देखने जा रहा हूँ”। यही रास्ता था कुँआरे बूढ़े के दिल और उसकी जेब तक पहुँचने का । “इवान अन्तोनोविच कोई नए जानवर आए हैं क्या ? दिखाइए, प्लीज़। आप सब कुछ इतनी दिलचस्पी से बताते हैं।।।”

रमाशोव भी उसके यहाँ अक्सर जाया करता था, मगर अभी तक बिना किसी स्वार्थ के ही गया था।: उसके दिल में जानवरों के लिए सचमुच एक विशेष, नज़ाकतभरा और संवेदनशील प्यार था। मॉस्को में कैडेट स्कूल में प्रशिक्षण प्राप्त करते हुए, वह ज़्यादातर थियेटर के बदले सर्कस देखने ही जाया करता, और बड़े शौक से प्राणी-संग्रहालय तथा पशु-घर जाता था। उसके बचपन का सपना था सेंट बर्नार्ड नस्ल के कुत्ते को पालना; अब वह सपना देखता था बटालियन-एड्जुटेंट बनने का जिससे उसे घुड़सवारी का मौक़ा मिले। मगर दोनों ही सपने पूरे नहीं हो सके : बचपन में – उसके परिवार की ग़रीबी की वजह से, और एड्जुटेंट भी उसे नहीं बना सकते थे क्योंकि वह एक “सम्माननीय व्यक्तित्व” था।

वह घर से निकला। गर्माहटभरी बसंती हवा प्यार से हौले हौले उसके गालों को सहला रही थी। बारिश से तरबतर धरती जो अब सूख चुकी थी, पैरों के नीचे इलास्टिक की तरह बिछ रही थी। बागड़ों के पीछे से बर्ड-चेरी के सफ़ेद और लिली के बैंगनी घने गुच्छे सड़क की ओर काफ़ी नीचे लटक रहे थे। रमाशोव के सीने में अचानक कोई चीज़ असाधारण ताक़त से फैलती चली गई, मानो वह उड़ने के लिए पंख पसार रहा हो। चारों ओर नज़र डालकर, यह देखते हुए कि रास्ते पर कोई है तो नहीं, उसने जेब से शूरच्का का ख़त निकाला, उसे दुबारा पढ़ा और कस कर होठों से लगाते हुए उसके हस्ताक्षर को चूम लिया।

 “प्यारा आसमान ! प्यारे प्यारे पेड़ !” नम आँखों से वह फुसफुसाया।

कर्नल ब्रेम ऊँची हरी हरी जाली लगे आंगन में काफ़ी अंदर की ओर रहता था। फाटक पर संक्षेप में लिखा था, ‘बिना घंटी बजाए अन्दर न आएँ। कुत्ते ! !’ रमाशोव ने घंटी बजाई। फाटक से उलझे बालों वाला, सुस्त, उनींदा सा अर्दली बाहर आया।

 “क्या कर्नल साहब घर पर हैं ?”

 “तशरीफ़ लाईये, हुज़ूर।”

 “तुम पहले जाकर ख़बर तो करो।”

 “कोई बात नहीं, ऐसे ही आ जाइए”, अर्दली ने उनींदेपन से अपनी जांघ खुजाते हुए कहा। “उन्हें यह पसन्द नहीं है कि, जैसे कि, ख़बर की जाए।”

रमाशोव ईंटों वाले रास्ते से घर की ओर बढ़ा। कोने से दो बड़े-बड़े, जवान, कटे हुए कानों वाले, काले भूरे रंग के कुत्ते उछल कर सामने आए। उनमें से एक ज़ोर ज़ोर से, मगर प्यार से भौंकने लगा।

रमाशोव ने अपनी उंगलियों से उसे सहलाया, और कुत्ता बड़ी ज़िन्दादिली से अपने अगले पैरों से दाएँ बाएँ डोलने लगा। उसका साथी सेकण्ड लेफ्टिनेंट के पीछे चल पड़ा और अपना सिर बाहर निकाले उत्सुकतावश उसके ओवरकोट के पल्लों को सूंघने लगा। आंगन के भीतर नर्म हरी घास में एक छोटा सा गधा खड़ा था। वह ख़ुशी से अपने कानों को सिकोड़ते हुए और हिलाते हुए बसंती धूप में ख़ामोशी से ऊँघ रहा था। यहीं पर मुर्गियाँ और रंगबिरंगे मुर्गे, बत्तखें और फूली हुई नाक वाले कलहंस भी घूम रहे थे; कलगी वाले मुर्गे गला फ़ाड़ फ़ाड़ कर चिल्ला रहे थे, और शानदार टर्की अपनी पूँछ फैलाए और ज़मीन पर गोल गोल धारियाँ बनाते प्यार से पतली पतली गर्दनों वाली मादा टर्कियों के चारों ओर घूम रहे थे। टब के निकट बड़ा भारी, ऊँची जनन क्षमता वाला गुलाबी सुअर ज़मीन पर लेटा था।

कर्नल ब्रेम चमड़े का स्वीडिश जैकेट पहने, दरवाज़े की ओर पीठ किए खिड़की के पास खड़ा था, इसलिए उसने रमाशोव को अन्दर आते हुए नहीं देखा। वह एक्वेरियम के पास खड़ा होकर उसके भीतर कोहनियों तक हाथ डाले कुछ कर रहा था। इससे पहले कि ब्रेम पुरानी, कछुए की शक्ल वाला चश्मा पहने अपना दुबला-पतला, दाढ़ी वाला, लंबा चेहरा मोड़े, रमाशोव को दो बार ज़ोर से खाँसना पड़ा।

 “आ-आ, सेकंड लेफ्टिनेंट रमाशोव ! आइए, आइए।”

रफ़ाल्स्की ने गर्मजोशी से कहा। “माफ करना हाथ नहीं मिला पाऊँगा – गीला है। मैं एक तरह से नई साइफन बिठा रहा था। पुरानी वाली को ज़रा सा आसान कर दिया, और बढ़िया हो गया। चाय पिएंगे ?”

 “धन्यवाद। पी चुका हूँ, कर्नल महोदय मैं इसलिए आया हूँ।”

 “आपने सुना ? ये अफ़वाहें फैल रही हैं कि कम्पनी को दूसरे शहर में ले जाया जा रहा है,” रफाल्स्की ने कहा, मानो टूटी हुई बातचीत जारी रख रहा हो। “आप समझ सकते हैं, कि मैं किसी हद तक बदहवास हो गया हूँ। आप ही सोचिये, मैं अपनी मछलियों को कैसे ले जाऊँगा ? आधी तो दम ही तोड़ देंगी और एक्वेरियम ? उसके काँच– आप ख़ुद ही देखिए – दस-दस फुट लम्बे हैं। आह, बाप रे बाप !” वह अचानक दूसरे विषय पर कूदा– “सेवास्तोपोल में मैंने कैसा एक्वेरियम देखा था ! जैसे कोई तालाब हो। ऐ ख़ुदा, जैसे इस कमरे में, पत्थर की दीवारों वाले, समन्दर के बहते हुए पानी से भरे। और बिजली ! खड़े होकर ऊपर से देख लो कि मछलियाँ कैसे रहती हैं उसके भीतर। बेलूगा (सफ़ेद स्टर्जन), शार्क। स्केट मछली, समुद्री मुर्गे, आह कितने प्यारे हैं ! या, किसी हद तक समुद्री बिल्ली। कल्पना कीजिए, ऐसी मालपुए जैसी। करीब डेढ‌ आर्शिन (एक आर्शिन - 28 इंच - अनु।) व्यास की, और किनारों से थरथराती हैं, जानते हैं, लहरों के समान, और पीछे पूँछ, तीर जैसी – मैं दो घंटे खड़ा रहा। आप हँस क्यों रहे हैं ?”

 “माफ कीजिए, मैंने अभी अभी ग़ौर किया कि आपके कंधे पर सफ़ेद चूहा बैठा है।”

 “आह, तू, बदमाश, कहाँ पहुँच गया !” रफ़ाल्स्की ने मुँह मोड़ कर होठों से चुम्बन जैसी मगर असाधारण रूप से पतली, चूहे की चीं चीं जैसी आवाज़ निकाली। छोटा सा, सफ़ेद, लाल आँखों वाला जानवर उतर कर उसके चेहरे तक आ गया और अपने पूरे शरीर को हिलाते हुए परेशानी से उसकी दाढ़ी और मुँह में अपनी सिर घुसाने लगा।

 “कैसे जानते-समझते हैं वे आपको !” रमाशोव ने कहा।

 “हाँ।।।जानते हैं।” रफाल्स्की ने गहरी साँस लेकर सिर हिलाया, “और यही तो दुख की बात है कि हम उन्हें नहीं जानते। लोगों ने कुत्ते को ट्रेन्ड कर दिया है, कुछ हद तक घोड़ों को भी अपने अनुकूल बना लिया है। बिल्ली को भी पालतू बना दिया है, मगर ये प्राणी हैं कैसे – इस बारे में हम जानना भी नहीं चाहते। कोई वैज्ञानिक अपनी पूरी ज़िन्दगी, शैतान उसे ले जाए, किसी तरह से महा जलप्लावन से पूर्व के किसी एक फ़ालतू शब्द को समझाने के लिए समर्पित कर देता है, और इसके लिए उसका कितना सम्मान किया जाता है। मगर यहाँ– आप इन कुत्तों को ही लीजिए, हमारे साथ साथ जीते हैं। चलते-फिरते, सोच-विचार करने वाले, ज़हीन प्राणी, मगर कम से कम एक तो प्रोफेसर उनके मनोविज्ञान का अध्ययन करने की कोशिश करता !”

 “हो सकता है, कुछ शोध कार्य किया गया हो, जिसके बारे में हम न जानते हों,” रमाशोव ने नम्रता से अपना विचार रखा।

 “शोध कार्य ? हुँ। बेशक, हैं कुछ काम, बड़े बड़े। यहाँ ही देखिए, मेरे पास– पूरी लाइब्रेरी है। कर्नल ने हाथ से दीवार से लगी शेल्फ्स की ओर इशारा किया, “लिखते हैं बुद्धिमत्तापूर्ण और अन्दर तक जाकर। खूब सारा ज्ञान है इनमें ! कौन कौन से उपकरण, कौन कौन सी बौखला देने वाली विधियाँ मगर, वो नहीं, जिसके बारे मैं कह रहा हूँ ! उनमें से किसी ने भी, किसी भी तरह से, इस उद्देश्य के बारे में नहीं सोचा – कि कम से कम एक दिन, सिर्फ एक दिन किसी कुत्ते या बिल्ली का ध्यान से अवलोकन करें। तुम जाओ तो सही, देखो तो सही कि कुत्ता जीता कैसे है, किस बारे में सोचता है, कैसी चालें चलता है, कैसे दुख उठाता है, कैसे ख़ुश होता है। सुनिए: मैंने देखा है कि जोकर-मसख़रे जानवरों से क्या क्या करवाते हैं। आश्चर्यजनक ! कल्पना कीजिए सम्मोहन की, किसी हद तक, सचमुच के, असली सम्मोहन की ! मुझे एक जोकर-मसख़रे ने किएव के होटल में दिखाया था – आश्चर्यजनक, अविश्वसनीय था ! मगर आप सोचिए – जोकर, जोकर ! और क्या हो, अगर यही काम कोई गंभीर प्रकृति-वैज्ञानिक करे, जिसके पास ज्ञान है, प्रयोगों को करने की बेहतरीन तकनीक है, वैज्ञानिक साधन हैं। ओSSS कैसी कैसी चौंकाने वाली बातें सुनने को मिलतीं, कुत्तों की बौद्धिक सामर्थ्य के बारे में, उसके स्वभाव के बारे में, संख्याओं के ज्ञान के बारे में, और भी बहुत कुछ ! पूरी दुनिया, विशाल, दिलचस्प दुनिया। जैसे, आप जो चाहें समझें, मेरा, मिसाल के तौर पर, पक्का विश्वास है कि कुत्तों की अपनी भाषा होती है, और, काफ़ी हद तक काफ़ी विस्तृत होती है ये भाषा।”

 “तो उन्होंने अब तक इस दिशा में काम क्यों नहीं किया, इवान अंतोनोविच ?” रमाशोव ने पूछा। “यह तो इतना आसान है !”

रफाल्स्की कटुता से मुस्कुराया।

 “इसीलिए, हे-हे-हे,- कि आसान है। सिर्फ इसीलिए, उसके लिए, पहली बात, कुत्ता – क्या है ? एक रीढ़दार, स्तनपायी, शिकारी प्राणी, कुत्तों की नस्ल का वगैरह वगैरह। ये सब बिल्कुल ठीक है। नहीं, मगर तुम कुत्ते के नज़दीक जाओ, जैसे किसी आदमी के नज़दीक जाते हैं, जैसे बच्चे के पास जाते हैं, जैसे किसी सोच-विचार करने वाले प्राणी के पास जाते हैं। मगर यह सच है कि अपने वैज्ञानिक घमंड के बावजूद उनमें और उस गँवार आदमी में ज़्यादा फर्क नहीं है, जो यह कहता है कि कुत्ते में, किसी हद तक, रूह के बदले भाप होती है।”

वह ख़ामोश हो गया और उस इलास्टिक के पाइप से गुस्से में पानी चूसने और थूकने लगा, जिसे वह एक्वारियम के तल में फिट कर रहा था। रमाशोव ने हिम्मत बटोरी।

 “इवान अंतोनोविच, मेरी आपसे एक बड़ी, बहुत बड़ी प्रार्थना है।”

 “पैसे ?”

 “सही कहा, आपको परेशान करने में हिचकिचाहट हो रही है, मगर मुझे थोड़े से ही चाहिए, क़रीब दस रुबल्स। जल्दी ही वापस करने का वादा तो नहीं करता, मगर।”

इवान अंतोनोविच ने हाथ पानी से बाहर निकाला और उसे तौलिए से पोंछने लगा।

 “दस दे सकता हूँ, ज़्यादा नहीं दे सकता, मगर दस खुशी खुशी दूँगा। आपको शायद बेवकूफ़ियों के लिए चाहिए ? ओय, ओय, ओय, मैं मज़ाक कर रहा हूँ। चलिए।”

वह पाँच कमरों वाले पूरे फ्लैट से उसे अपने पीछे पीछे लेकर गया – इन कमरों में न तो कोई फ़र्नीचर था, न ही परदे लगे थे। हवा में तीखी गंध फैली हुई थी, जो छोटे-मोटे शिकारी प्राणियों के बिलों से आती है। फर्श इतने चीकट हो गए थे कि उन पर चलते हुए पैर फिसल रहे थे। सभी कोनों में कैबिनों के, ख़ाली ठूँठों के, बेपेंदे की गठरियों के आकार में बिल और माँद बनाए गए थे। दो कमरों में फैले हुए पेड़ थे – एक पंछियों के लिए, दूसरा ऊद-बिलावों और गिलहरियों के लिए। इन पेड़ों पर कृत्रिम खोहें और घोंसले बने हुए थे। जिस तरह से इन प्राणियों के आवासों की रचना की गई थी, उससे विचारपूर्वक लिए गए निर्णय, जानवरों के प्रति प्रेम और बड़ी गहरी निरीक्षण क्षमता प्रदर्शित होती थी।

 “इस प्राणी को देख रहे हैं ?” रफ़ाल्स्की ने उँगली से एक छोटे कुत्ता-घर की ओर इशारा किया जिसके चारों ओर तार की बागड़ लगी हुई थी। उसके अर्धवृत्ताकार छेद से, जो एक गिलास के पेंदे जितना चौड़ा था, दो चमकीले काले बिंदु दमक रहे थे। “यह पूरी दुनिया में सबसे ज़्यादा हिंस्त्र, किसी हद तक, सबसे वहशी प्राणी है। पोल कैट (मार्जारिका), नहीं, आप कुछ मत सोचिए, इसके सामने तो ये सारे सिंह और चीते – छोटे छोटे बछड़ों जैसे हैं। शेर तो अपना एक पूद ( एक पूद - 16।3 किलोग्राम - अनु।) माँस खाकर लुढ़क जाता है, और बड़े प्यार से देखता है कि कैसे सियार बचे हुए शिकार को खा रहे हैं। मगर यह प्यारा सा बदमाश, अगर मुर्गियों के दड़बे में घुस जाए तो एक भी मुर्गी नहीं छोड़ता – हर मुर्गी का यहाँ पीछे – छोटा मस्तिष्क ज़रूर काटता है। तब तक चैन नहीं लेता, नीच। और सारे जानवरों में सबसे ज़्यादा जंगली, सबसे ज़्यादा ना-पालतू होता है। ऊSSS…।दुष्ट कहीं का, ख़तरनाक !”

उसने बागड़ के पीछे हाथ डाला। गोल दरवाज़े से फ़ौरन बाहर निकला छोटा सा क्रोधित सिर, सफ़ेद तीक्ष्ण दाँतों वाला ऊदबिलाव, जो गुस्साई खाँसी जैसी आवाज़ निकालते हुए कभी दिखाई दे रहा था और कभी छुप रहा था।

“देख रहे हो, कैसा है ?” और मैं पूरे साल भर से उसे खिला रहा हूँ।

कर्नल शायद रमाशोव की प्रार्थना के बारे में बिल्कुल भूल गया था। वह उसे एक बिल से दूसरे बिल की ओर ले जा रहा था और अपने प्रिय प्राणी दिखा रहा था, उनके बारे में इतनी तन्मयता से और इतने प्यार से, उनकी आदतों के बारे में और स्वभाव के बारे में इतनी विद्वत्ता से बोल रहा था, जैसे बात भले, परिचितों के बारे में हो रही हो। वास्तव में, किसी मुरीद के लिए, जो किसी कस्बाई शहर में रहता हो, उसके पास एक बढ़िया संग्रह था: सफ़ेद चूहे, ख़रगोश, गिनी पिग्स, साही, शैलमूषक, कई ज़हरीले साँप काँच की      

पेटियों में, कुछेक किस्में छिपकलियों की, दो बन्दर-मार्मजेट, काला ऑस्ट्रेलियन खरगोश और एक खूबसूरत पर्शियन कैट।

 “क्या ? अच्छी है ?” रफाल्स्की ने पर्शियन कैट की ओर इशारा करते हुए पूछा। “सच है न, कि किसी हद तक यह बड़ी दिलकश है ? मगर मैं इसकी इज़्ज़त नहीं करता। बेवकूफ़ है। सभी बिल्लियों से ज़्यादा बेवकूफ़। देखो, फिर से !” अचानक वह ज़िन्दादिली से बोला। “आपके लिए यह भी एक प्रमाण है कि हम अपने पालतू प्राणियों की मानसिकता के प्रति कितने लापरवाह रहते हैं। हम बिल्ली के बारे में जानते ही क्या हैं ? और घोड़े के बारे में ? और गायें ? और सुअर ? क्या हम जानते हैं कि इनमें से कौन काफ़ी बुद्धिमान है ? सुअर। हाँ, हाँ, आप मुस्कुराइए नहीं।” रमाशोव तो मुस्कुराने के बारे में सोच भी नहीं रहा था। “सुअर ख़तरनाक हद तक ज़हीन होते हैं। पिछले साल मेरे वराह(नर-सुअर) ने क्या किया मालूम है ? मेरे लिए शुगर फैक्ट्री से फ़ालतू उत्पाद भेजा गया था, वो अपने बगीचे के लिए और सुअरों के लिए। तो इससे सब्र नहीं हुआ। गाड़ीवान मेरे अर्दली को देखने गया, और इसने अपने दाँतों से ड्रम का ढक्कन खींच कर निकाल दिया। ड्रम से रस गिरता रहा और यह शैतान उसका लुत्फ उठाता रहा। और तो और: एक बार जब इसे चोरी करते हुए पकड़ा गया तो इसने न सिर्फ ढक्कन उखाड़ लिया, बल्कि उसे बगीचे में ले जाकर क्यारी में गाड़ दिया। तो ये है, सुअर। मैं स्वीकार करता हूँ,” रफाल्स्की ने एक आँख बारीक करके चेहरे पर चालाकी का भाव लाते हुए कहा, “मैं स्वीकार करता हूँ कि मैं अपने सुअरों के बारे में एक छोटा सा लेख लिख रहा हूँ।।।बस श्, श्, श् ! सीक्रेट – किसी से मत कहना। कुछ अटपटा सा लगता है: कहाँ शानदार रूसी फौज का लेफ्टिनेंट कर्नल और अचानक – सुअरों के बारे में। अब मेरे पास काफ़ी जनन क्षमता वाले सुअर हैं। देखे हैं ? देखना चाहेंगे ? और मेरे आँगन में एक बिज्जू है- छोटा सा, बड़ा प्यारा बिज्जू है।।।चलेंगे ?”

 “माफ कीजिए, इवान अंतोनोविच,” रमाशोव ने झिझकते हुए कहा। “मैं ख़ुशी ख़ुशी चलता, मगर, ख़ुदा क़सम, अभी समय नहीं है।”

रफाल्स्की ने माथे पर हाथ मार लिया।

 “आह, मेरे प्यारे ! माफ़ करना, ख़ुदा के लिए। मैं-तो बूढ़ा। बकबक करने लगा। अच्छा, अच्छा, अच्छा। चलो, जल्दी से चलते हैं।”

वे एक छोटे से ख़ाली कमरे में आए, जहाँ वाक़ई में कुछ भी नहीं था, सिवाय एक नीचे कैम्प-बेड़ को छोड़कर, जिसका कपड़ा नाव के पेंदे जैसा झोल खा रहा था, और एक छोटी सी मेज़ थी – स्टूल समेत। रफाल्स्की ने मेज़ की दराज़ खींची और उसमें से पैसे निकाले।

 “आपकी ख़िदमत करते हुए मुझे बड़ी खुशी हो रही है, सेकंड लेफ्टिनेंट, बहुत ख़ुशी हो रही है। मगर वो कहाँ की शुक्रगुज़ारी ! बकवास है। मैं ख़ुश हूँ। फिर आइए, जब आपके पास वक़्त हो। बातें करेंगे।”

सड़क पर आते ही रमाशोव वेत्किन से टकरा गया। पावेल पाव्लोविच की मूँछे कुछ बेतरतीब थीं, और कैप मनचले नौजवान की तरह सिर पर तिरछी बैठी थी।

 “आ-आ ! प्रिन्स हैम्लेट !” वेत्किन ख़ुशी से चिल्लाया, “किधर से और किधर को ? फु, शैतान, तुम तो ऐसे चमक रहे हो जैसे आज तुम्हारा नामकरण दिन हो।”

 “आज है ही मेरा नामकरण दिन,” रमाशोव मुस्कुराया।

 “हाँ ? हाँ, सही तो है : जॉर्जी और अलेक्सान्द्रा। अति सुन्दर। मुझे तुम्हारा आलिंगन करने दो !”

उन्होंने वहीं, रास्ते पर ही एक दूसरे को कस कर चूम लिया।

 “शायद, इस मौके पर मेस चलेंगे ? एक एक पैग एक ही घूँट में घोंप लें, जैसा कि हमारा शरीफ़ दोस्त अर्चाकोव्स्की कहता है ?” वेत्किन ने सुझाव दिया।

 “नहीं आ सकता, पावेल पाव्लीच। जल्दी में हूँ। मगर, लगता है कि आज आप बड़े अच्छे मूड़ में हैं ?”

 “ओ-ओ-ओ ! वेत्किन ने अभिमानपूर्वक अर्थपूर्ण ढंग से ठोढ़ी ऊपर उठाकर सिर हिलाया, “मैंने आज ऐसा कारनामा किया कि किसी भी फाइनांस मिनिस्टर के पेट में ईर्ष्या के कारण दर्द होने लगे।”

 “मतलब ?”

वेत्किन का कारनामा बड़ा आसान था, मगर था बड़ा अक्लमंदी भरा, ऊपर से उसमें मुख्य भूमिका थी फ़ौजी-दर्जी खाईम की। उसने वेत्किन से रसीद ली फॉक-कोट की जोड़ी प्राप्त करने की, मगर असल में आविष्कारक पावेल पाव्लोविच ने दर्जी से फ्रॉक-कोट की जोड़ी नहीं, बल्कि 30 रुबल्स नक़द प्राप्त किए।

 “और आख़िर में हम दोनों ही खुश थे,” विजयी वेत्किन कह रहा था, “यहूदी भी ख़ुश था कि अपने 30 रुबल्स के बदले उसे यूनिफॉर्म डिपार्टमेंट से पैंतालीस रुबल्स मिलेंगे, और मैं इसलिए ख़ुश हूँ कि आज इन सब जुआरियों के मेले में शेख़ी बघार रहा हूँ। क्या ? आराम से हो गया न काम ?”

 “आराम से !” रमाशोव ने सहमति जताई। अगली बार इस बारे में याद रखूंगा। ख़ैर, अलबिदा, पावेल पाव्लीच। ताश के लिए गुड़ लक।”

वे जुदा हुए। मगर एक मिनट बाद वेत्किन ने अपने साथी को आवाज़ दी। रमाशोव मुड़ा।

 “पशु-घर देखकर आ रहे हो ?” वेत्किन ने रफाल्स्की के घर की ओर कंधे के ऊपर से बड़ी वाली उंगली से इशारा करते हुए शरारत से पूछा।  

रमाशोव ने सिर हिलाया और यकीन के साथ कहा, "हमारा ब्रेम बढ़िया आदमी है। इतना प्यारा है !"

 “क्या बात है !” वेत्किन ने सहमति जताई। “सिर्फ– सिर फिरा है !”


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