दुःख
दुःख
उस दिन घर में कुछ खाने को न था। मां भी बहुत बीमार थी। छोटी बहन बुरे हालातों से संघर्ष करते करते एक वर्ष पूर्व ही परलोक सिधार चुकी थी। पिता का साया भी बरसों पहले छूट गया था। सगे संबंधियों का अब दूर दूर तक कोई नाता न था। परिस्थिति ऐसी थी की मैं भी प्राण हीन स महसूस कर रहा था। ठेले पर कुछ आम थे। चाहते हुए भी मां को नहीं दे सकता था, क्योंकि मां को मधुमेह के रोग ने भी जकड़ रखा था। ऊपर से खांसी, बुखार मानो शूल बनकर खड़े थे। मां की हालत गंभीर होती जा रही थी। मां के इलाज के लिए अच्छी दवाइयां और खाने की बहुत आवश्यकता थी। मां को अकेले छोड़ कर जाना मेरी विवशता थी। जानता था कोई सहायता नहीं करें गा। पर एक आशा लिए मैं फिर एक बार रवि बाबू से मां के लिए उधार पैसे मांगने गया। परन्तु इस बार उन्होंने उधार देने से मना कर दिया। क्योंकि अनेकों बार मैं उनसे उधार ले चुका था। उन्हें लगा कि मैं रोज़ मां के नाम पर मैं उधार लेता हूं, और पैसे जानबूझ कर नहीं देता।
वह नहीं जानते थे मेरे स्थिति को। उनसे बहस भी न कर सकता था। फिर इधर - उधर हाथ - पैर मरने के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं बचा था। उस दिन मेरे भाग्य में कुछ और लिखा था। उस दिन किसी को भी मुझ पर दया नहीं आई। भटकते - भटकते शाम हो चली और जैसे ही घर पहुंचा तो यह पता चला कि मां मेरी आशा में परलोक सिधार गई। मुझ जैसा अभागा इस धरती पर कोई न होगा। उस दिन मेरी आंखों से आंसू की एक बूंद भी नहीं निकली। बिना प्राणों के शरीर था तो अश्रु कहां से बहते। मां को दवाई तो न दे सका , पर अब चिंता यह थी कि मां की चिता को अग्नि कैसे दूंगा। बस इसी कर्तव्य को पूरा करने के लिए मां के चरण स्पर्श कर..... मैं अपना ठेला लिए घर से निकल पड़ा। मां को अच्छा जीवन तो न दे सका पर अंतिम यात्रा तो अच्छी कर सकूं.......
यथार्थ आज मेरी परीक्षा थी। पड़ोसियों ने सहायता तो कभी न की, पर मुझे देख व्यंग्य करने में किसी ने कमी न की।
अरे बेशर्म , नालायक बेटा, स्वार्थी और न जाने किन किन शब्दों से मुझे सम्बोधित किया गया।
बस में बिना रुके और बिना कुछ कहे चलता गया। हृदय की पीड़ा को छुपाएं आम- ताज़े - मीठे - आम कहता चला जा रहा था। तभी सामने से रवि बाबू ने कहा, "क्या रे तेरी मां मर गई है, क्या तुझे तनिक भी दुःख नहीं।" मैंने सिर्फ एक उत्तर दिया, "हम दुःख नहीं बांटते साहब, खेल खेलते रहते है, बड़े और छोटे दुःख का" ..................
